भारतीय महिलाएँ और श्रम-बल | 13 Mar 2021

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारतीय श्रम-बल में महिलाओं की भूमिका और इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

बीते दो दशकों में वैश्विक स्तर पर महिलाओं की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की गई है, साथ ही प्रजनन दर में भी गिरावट देखने को मिल रही है, इन दोनों ही कारकों के परिणामस्वरूप दुनिया भर में वैतनिक श्रम-बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में अतुलनीय बढ़त हासिल हुई है। हालाँकि भारत के मामले में स्थिति सामान्य और स्पष्ट नहीं है। 

आवधिक श्रम-बल सर्वेक्षण, 2018-19 की मानें तो 15 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं के बीच महिला श्रम-बल भागीदारी दर (LFPR) ग्रामीण क्षेत्रों में तकरीबन 26.4 प्रतिशत और भारत के शहरी क्षेत्रों में तकरीबन 20.4 प्रतिशत से कम है। 

बीते तमाम वर्षों में लैंगिक समानता की दिशा में सरकार द्वारा किये गए प्रयासों और प्रगति को प्रभावित करते हुए कोरोना महामारी ने महिलाओं और लड़कियों के समक्ष मौजूद असमानता की गहरी खाई को और अधिक चौड़ा कर दिया है।

आपूर्ति और मांग दोनों की कारकों ने महिलाओं के बीच रोज़गार के निम्न स्तर में योगदान दिया है, जिसमें घरेलू ज़िम्मेदारियों का बोझ और महिलाओं द्वारा निभाई गई प्रजनन भूमिकाओं सहित पर्याप्त एवं उचित नौकरी के अवसरों की कमी आदि शामिल हैं।

भारत में महिला रोज़गार में गिरावट के कारण

  • सामाजिक दबाव: प्रायः कामकाजी महिलाओं को संपूर्ण समुदाय द्वारा कलंकित किये जाने का डर बना रहता है, जो कि उनके काम को निम्न दर्जे के रूप में चिह्नित कर सकता है। अक्सर महिलाओं का काम करना हमारे पुरुष-प्रधान समाज में उनके पति की असमर्थता के रूप में देखा जाता है। 
    • इसके अलावा भारतीय समाज में ऐसी रुढ़िवादी धारणा भी काफी प्रबल है, जो यह मानती है कि एक महिला का स्थान केवल घर और रसोई तक ही सीमित है और यदि एक महिला सामाजिक रूप से स्वीकृत दायरे से बाहर कदम रखती है, तो इससे हमारे सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
  • कार्य का अनौपचारिकरण: पिछले तीन दशकों में देश में कृषि-रोज़गार में भारी गिरावट देखने को मिली है, जबकि इसकी तुलना में ग्रामीण गैर-कृषि रोज़गार एवं आजीविका के अवसरों में उस स्तर तक वृद्धि नहीं हो सकी है। 
    • ऐसे में अक्सर लोग कृषि से हटकर अनौपचारिक एवं आकस्मिक रोज़गार की ओर पलायन कर रहे हैं, जहाँ काम काफी छिटपुट होने के साथ ही प्रायः 30 दिनों से भी कम का होता है।
  • महिलाओं के कार्य को स्वीकृति ना मिलना: वस्तुतः यह देखा गया है कि आम लोगों के बीच महिलाओं द्वारा किये जाने वाले कार्य को एक औपचारिक कार्य के रूप में स्वीकृति नहीं मिलती है, जो कि महिला रोज़गार की दर में हो रही गिरावट की एक प्रमुख समस्या है।
    • आँकड़े इस ओर इशारा करते हैं कि महिला श्रम-बल भागीदारी दर (LFPR) में हो रही गिरावट के कारणों में महिलाओं का वैतनिक कार्य से अवैतनिक कार्य की ओर हस्तांतरण भी शामिल है, नतीजतन महिलाओं को ‘श्रमिक’ के रूप में नहीं गिना जाता है और वे श्रम-बल से बाहर हो जाती हैं, भले ही वे पारिवारिक उद्यमों में अवैतनिक कार्य (जैसे- कृषि, पशुपालन, किराने की दुकान और हस्तनिर्मित उत्पाद आदि) में संलग्न हों।
  • अपर्याप्त सामाजिक सुरक्षा: कई अवसरों पर यह देखा जाता है कि जो महिलाएँ श्रम-बल में शामिल भी हैं, वे अपने रोज़गार की प्रकृति के कारण देश के अधिकांश श्रम कानूनों के दायरे से बाहर रहती हैं, इसमें हाल ही में पारित सामाजिक सुरक्षा संहिता भी शामिल है।
    • इसके कारण स्वतः ही स्व-रोज़गार और अनौपचारिक रोज़गार में संलग्न महिलाएँ इन श्रम सुरक्षा कानूनों से बाहर हो जाती हैं, जो कि देश में कुल महिला कर्मचारियों की संख्या का 90 प्रतिशत से भी अधिक है।
    • इसके अलावा कृषि में अधिकांश भूमि पुरुषों के नाम पर पंजीकृत है, जिससे महिलाओं को किसानों के रूप में भी मान्यता नहीं मिलती है, जबकि देश में ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश महिलाएँ कृषि कार्य में शामिल हैं। 
    • महिलाओं के नाम पर भूमि पंजीकृत न होने के कारण प्रायः महिलाओं को सरकार द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाओं और सुविधाओं जैसे- सस्ता ऋण और नकद हस्तांतरण आदि का लाभ प्राप्त नहीं हो पाता है।

आगे की राह

  • महिलाओं को नेतृत्त्वकारी भूमिका प्रदान करना: लैंगिक भागीदारी में कमी सामाजिक-आर्थिक मुद्दों का ही परिणाम है और व्यवहार में परिवर्तन लाकर इस चुनौती से आसानी से निपटा जा सकता है। ऐसा तभी संभव हो सकेगा जब महिलाओं को अधिक-से-अधिक नेतृत्त्वकारी भूमिका प्रदान की जाएगी।
    • इस प्रकार कंपनी बोर्डों से संसद तक, उच्च शिक्षा से लेकर सार्वजनिक संस्थानों तक  सभी स्तरों और क्षेत्रों में विशेष प्रावधानों एवं कोटा के माध्यम से समान प्रतिनिधित्त्व  सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
  • अप्रत्यक्ष एवं गैर-मान्यता प्राप्त कार्य की पहचान: देखभाल के मामले में अर्थव्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण रूप से निवेश किये जाने की आवश्यकता है, घरेलू काम करने वाली महिलाओं को मान्यता देने के लिये सकल घरेलू उत्पाद को पुनः परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है।
  • लैंगिक समानता को प्रोत्साहन: अर्थव्यवस्था में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी और समावेश सुनिश्चित करने के लिये उनके समक्ष मौजूद बाधाओं को दूर किये जाने की आवश्यकता है, जिसमें श्रम बाज़ार तक पहुँच और संपत्ति में अधिकार सुनिश्चित करना और लक्षित ऋण तथा निवेश आदि  शामिल हैं।
    • सरकार द्वारा शुरू की गई महिला उन्मुख पहलें जैसे- ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ और ‘किरण’ (शिक्षण द्वारा अनुसंधान विकास में ज्ञान की भागीदारी) योजना आदि सही दिशा में उठाए गए कदम प्रतीत होते हैं।
  • महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की रोकथाम: भारत सरकार को महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध हिंसा से संबंधित मुद्दे को संबोधित करने के लिये एक आपातकालीन प्रतिक्रिया योजना विकसित करनी चाहिये और इस संकट को समाप्त करने के लिये आवश्यक वित्त, नीतियों और राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ उस कार्ययोजना का क्रियान्वयन करना चाहिये।

निष्कर्ष

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि कोरोना वायरस महामारी ने पुरुषों से अधिक महिलाओं के रोज़गार को प्रभावित किया है। श्रम-बल में प्रवेश करने वाली महिलाओं के लिये समान अवसर सुनिश्चित करने हेतु मज़बूत एवं सम्मिलित प्रयास किये जाने की आवश्यकता है, जिसमें महिलाओं के लिये परिवहन, सुरक्षा और छात्रावास की सुविधा उपलब्ध कराने के साथ-साथ बच्चों की देखभाल और मातृत्व लाभ जैसे- सामाजिक सुरक्षा प्रावधान किया जाना शामिल है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में महिलाओं के बीच रोज़गार के निम्न स्तर में योगदान देने वाले मांग और आपूर्ति कारकों पर चर्चा कीजिये।