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भारत और तुर्कवाद का उदय | 17 Nov 2021 | अंतर्राष्ट्रीय संबंध

यह एडिटोरियल 16/11/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Doing Business with Turkey” लेख पर आधारित है। इसमें यूरेशियाई क्षेत्र में तुर्की के बढ़ते प्रभाव और भारत के परिप्रेक्ष्य में इसके परिणामों के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

धर्म, क्षेत्र या धर्मनिरपेक्ष विचारधाराओं पर आधारित अंतर्राष्ट्रीयतावाद (Internationalism) को हमेशा से सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद की ओर से विरोध का सामना करना पड़ा है। हालाँकि, क्षेत्रवाद, अंतर्राष्ट्रीयतावाद के साथ-साथ धार्मिक और जातीय एकजुटता के ये आह्वान प्रायः राष्ट्रीय हित को बढ़ावा देने हेतु एक साधन के रूप में ही काम करते हैं।

वर्तमान में, राष्ट्रीय हित के लिये अंतर्राष्ट्रीय कार्ड खेलने का सबसे उपयुक्त उदाहरण तुर्की के राष्ट्रपति ‘रेसेप तईप एर्दोआन’ पेश कर रहे हैं, जो अपने आधुनिक राष्ट्र को उसके अतीत के इस्लामी और सैन्य गौरव की छाप के साथ एक नया रूप देना चाहते हैं।

चूँकि चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सहयोगी के रूप में तुर्की की उपस्थिति धीरे-धीरे अरब जगत में और भारत के पड़ोस में प्रभावशाली बनती जा रही है,ऐसे में भारत के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने हित के लिये दृष्टिकोण में बदलाव लाते हुए तुर्की को एक संभावित सहयोगी के रूप में देखना शुरू करे।

तुर्की के प्रभाव का विस्तार

भारत के लिये चुनौतियाँ

आगे की राह

निष्कर्ष

अभ्यास प्रश्न: भारत की यूरेशिया नीति में तुर्की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रखता है। टिप्पणी कीजिये।