भारत पर प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव | 23 Nov 2018

संदर्भ


बीते दिनों दुनिया के सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रथम विश्वयुद्ध की ख़बरें सुर्ख़ियों में बनी रहीं। दरअसल, इन सुर्ख़ियों की मुख्य वज़ह प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के सौ वर्षों (11 नवंबर को) का पूरा होना था। इस अवसर पर पेरिस में आयोजित एक समारोह में विश्व के लगभग 70 देशों के नेता एकत्रित हुए जिसमें भारत की ओर से उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू भी शामिल हुए। हालाँकि, इस युद्ध में न तो विश्व के सभी देश शामिल थे और न ही सभी देशों का हित इस युद्ध में निहित था, लेकिन फिर भी इस युद्ध ने भारत सहित दुनिया के सभी देशों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया।

पहला विश्वयुद्ध और इसके कारण


प्रथम विश्वयुद्ध मित्र/संयुक्त राष्ट्र और केंद्रीय शक्तियों के बीच लड़ा गया था।

जहाँ सहयोगी शक्तियों के मुख्य सदस्य फ्राँस, रूस और ब्रिटेन थे (1917 के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी सहयोगियों की तरफ से लड़ाई लड़ी।), वहीं केंद्रीय शक्तियों के मुख्य सदस्य जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, तुर्क साम्राज्य और बुल्गारिया थे।

प्रथम विश्वयुद्ध के लिये कोई एक घटना उत्तरदायी नहीं थी बल्कि इस युद्ध को 1914 तक के वर्षों में घटने वाली विभिन्न घटनाओं और कारणों का परिणाम माना जा सकता है। प्रथम विश्वयुद्ध हेतु ज़िम्मेदार कारणों को दीर्घकालिक और तात्कालिक कारणों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

दीर्घकालिक कारण


दीर्घकालिक कारणों में वर्ष 1914 तक के वर्षों में घटने वाली विभिन्न घटनाओं यथा - राष्ट्रीयता की उग्र भावना का विकास, सैनिकवाद और शस्त्रीकरण, साम्राज्यवाद तथा आर्थिक प्रतिद्वंद्विता, गुप्त व कूटनीतिक संधियाँ, साम्राज्यवाद की भावना, समाचार पत्र-पत्रिकाओं का अभाव, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का अभाव सामाजिक असंतुलन आदि को शामिल किया जा सकता है।

तात्कालिक कारण


लंबे समय से संपूर्ण यूरोप में अशांति व अव्यवस्था के चिह्न पहले से ही मौजूद थे, तात्कालिक परिस्थिति ने तो केवल आग में घी का काम किया।

दरअसल, 28 जून, 1914 को ऑस्ट्रिया के राज सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डिनेंड की बोस्निया (राजधानी सेराजेवो) में हत्या कर दी गई और इस हत्या का आरोप सर्बिया पर लगाया गया। दोनों के मध्य पहले से ही चल रहे कटु संबंधों के कारण ऑस्ट्रिया को सर्बिया से बदला लेने का अवसर मिल गया।

परिस्थिति को देखते हुए ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को कुछ मांगों (दस सूत्री मांग पत्र) को मानने हेतु बाध्य किया, किंतु सर्बिया ने इस मांग पत्र की अनुचित मांगों को अस्वीकार कर दिया। परिणामतः ऑस्ट्रिया ने  28 जुलाई, 1914 को सर्बिया पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में विभिन्न देश शामिल होते गए और अंततः युद्ध ने विश्वव्यापी रूप ले लिया।

प्रथम विश्वयुद्ध का भारत के लिये महत्त्व


चूँकि इस युद्ध में ब्रिटेन भी शामिल था और उन दिनों भारत पर ब्रिटेन का शासन था अतः इस कारण हमारे सैनिकों को इस युद्ध में शामिल होना पड़ा।

इसके अतिरिक्त उस समय भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभुत्व का दौर था, ये राष्ट्रवादी यह मानते थे कि युद्ध में ब्रिटेन को योगदान देने के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा भारतीय निवासियों के प्रति उदारता बरती जाएगी और उन्हें अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त होंगे।

इस युद्ध के बाद लौटे सैनिकों ने जनता के मनोबल बढ़ाया।

दरअसल, भारत ने लोकतंत्र की प्राप्ति के वादे के तहत इस विश्वयुद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया था लेकिन युद्ध के तुरंत बाद अंग्रेज़ो ने रौलेट एक्ट पारित किया। परिणामस्वरूप भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति असंतोष का भाव जागा इससे राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ तथा जल्द ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई।

इस युद्ध के बाद यूएसएसआर के गठन के साथ ही भारत में भी साम्यवाद का प्रसार (सीपीआई के गठन) हुआ और परिणामतः स्वतंत्रता संग्राम पर समाजवादी प्रभाव देखने को मिला।

प्रथम विश्व युद्ध में शामिल होने के कारण


भारतीय सैनिकों ने युद्ध के मैदान में बहादुरी से लड़कर अपने कबीले या जाति को सम्मान दिलाने के कार्य को अपने कर्तव्य के रूप में देखा।

एक भारतीय पैदल सैनिक का मासिक वेतन उस समय महज़ 11 रुपए था, लेकिन युद्ध में भाग लेने से अर्जित अतिरिक्त आय किसान परिवार के लिये एक अच्छा विकल्प था, इसलिये धन की प्राप्ति युद्ध में शामिल होने का एक उद्देश्य माना जा सकता है।

अक्सर विभिन्न पत्रों में उल्लेख मिलता है कि भारतीय सैनिकों ने सम्राट जॉर्ज पंचम के प्रति व्यक्तिगत कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर इस युद्ध में हिस्सा लिया था।

गौरतलब है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और देश का सामाजिक-आर्थिक विकास एक-दूसरे से अलग नहीं है बल्कि यह सह-संबंधित है। प्रथम विश्वयुद्ध ने भारत को वैश्विक घटनाओं और इसके विभिन्न प्रभावों से जोड़ने का कार्य किया। इसके विभिन्न प्रभाव निम्नानुसार हैं -

राजनीतिक प्रभाव


युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में पंजाबी सैनिकों की वापसी ने उस प्रांत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियों को भी उत्तेजित किया जिसने आगे चलकर व्यापक विरोध प्रदर्शनों का रूप ले लिया। उल्लेखनीय है कि युद्ध के बाद पंजाब में राष्ट्रवाद का बड़े पैमाने पर प्रसार हेतु सैनिकों का एक बड़ा भाग सक्रिय हो गया।

जब 1919 का मोंटग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 'गृह शासन की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा तो भारत में राष्ट्रवाद और सामूहिक नागरिक अवज्ञा का उदय हुआ।

युद्ध हेतु सैनिकों की ज़बरन भर्ती से उत्पन्न आक्रोश ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की पृष्ठभूमि तैयार की।

सामाजिक प्रभाव


युद्ध के तमाम नकारात्मक प्रभावों के वाबजूद वर्ष 1911 और 1921 के बीच, भर्ती हुए सैनिक समुदायों में साक्षरता दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। युद्ध के मैदान में पुरुषों की उपयोगिता की धारणा का उन दिनों महत्त्व होने के कारण सैनिकों ने अपने विदेशी अभियानों हेतु पढ़ना-लिखना सीखा।

युद्ध में भाग लेने वाले विशेष समुदायों का सम्मान समाज में बढ़ गया।

इसके अतिरिक्त गैर-लड़ाकों की भी बड़ी संख्या में भारत से भर्ती की गई- जैसे कि नर्स, डॉक्टर इत्यादि। अतः इस युद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य-क्षेत्र का भी विस्तार हुआ और उन्हें सामाजिक महत्त्व भी प्राप्त हुआ।

हालाँकि, भारतीय समाज को ऐसी परिस्थितियों में आवश्यक सेवाओं से वंचित कर दिया गया जहाँ पहले से ही ऐसी सेवाएँ/कौशल (नर्स, डॉक्टर) दुर्लभ थे।

आर्थिक प्रभाव


ब्रिटेन में भारतीय सामानों की मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई क्योंकि ब्रिटेन में उत्पादन क्षमताओं पर युद्ध के कारण बुरा प्रभाव पड़ा था।

हालाँकि, युद्ध के कारण शिपिंग लेन में व्यवधान उत्पन्न हुआ लेकिन इसका यह अर्थ था कि भारतीय उद्योगों को ब्रिटेन और जर्मनी से पहले आयात किये गए इनपुट की कमी की वज़ह से असुविधा का सामना करना पड़ा था। अतः अतिरिक्त मांग के साथ-साथ आपूर्ति की बाधाएँ भी मौजूद थीं।

युद्ध का एक और परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया। वर्ष 1914 के बाद छह वर्षों में औद्योगिक कीमतें लगभग दोगुनी हो गईं और बढ़ती कीमतों में तेज़ी ने भारतीय उद्योगों को लाभ पहुँचाया।

कृषि की कीमतें औद्योगिक कीमतों की तुलना में धीमी गति से बढीं। अगले कुछ दशकों में और विशेष रूप से महामंदी (Great Depression) के दौरान वैश्विक वस्तुओं की कीमतों में गिरावट की प्रवृत्ति जारी रही।

खाद्य आपूर्ति, विशेष रूप से अनाज की मांग में वृद्धि से खाद्य मुद्रास्फीति में भी भारी वृद्धि हुई। यूरोपीय बाज़ार के नुकसान के कारण जूट जैसे नकदी फसलों के निर्यात को भी भारी नुकसान पहुँचा।

उल्लेखनीय है कि इस बीच सैनिकों की मांगों में वृद्धि के चलते भारत में जूट उत्पादन में संलग्न मजदूरों की कमी हुई और बंगाल के जूट मिलों के उत्पादन को भी हानि पहुँची जिसके लिये मुआवज़ा दिया गया परिणामतः आय असमानता में वृद्धि हुई।

वहीं, कपास जैसे घरेलू विनिर्माण क्षेत्रों में ब्रिटिश उत्पादों में आई गिरावट से लाभ भी हुआ जो युद्ध पूर्व बाज़ार पर हावी था।

ब्रिटेन में ब्रिटिश निवेश को पुनः शुरू किया गया, जिससे भारतीय पूंजी के लिये अवसर सृजित हुए।

निष्कर्ष :


समग्र रूप से देखा जाए तो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भले ही विश्व के कई देशों ने लाखों की संख्या में जनबल को खोया किंतु भारत पर इसके प्रभाव कई मायनों में सकरात्मक भी कहे जा सकते हैं क्योंकि भारतीय सैनिकों के इस युद्ध में शामिल होने की शर्तों को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पूरा न किये जाने से भारतीयों का उसके प्रति मोहभंग हो गया और बढ़ते असंतोष ने राष्ट्रवाद को बढ़ाया, अंततः स्वतंत्रता की चेतना प्रस्फुटित हुई। इसके अतिरिक्त सामाजिक,राजनीतिक एवं अर्थव्यवस्था के स्तर पर भी व्यापक परिवर्तन देखे गए। संक्षेप में कहा जा सकता है कि युद्ध के दौरान अर्थव्यवस्था ने कई मायनों में भारत में पूंजीवाद को बढ़ावा दिया।


स्रोत : लाइव मिंट