विधायिका को अधिक उत्तरदायी बनाने की आवश्यकता है | 01 Jul 2017

संदर्भ
देश की संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। यह पूरे देश की जन-भावनाओं को प्रदर्शित करने वाला एक मंच प्रदान करती है। यहीं से देश के भविष्य की दिशा और दशा तय की जाती है, लेकिन दुर्भाग्य से आजकल संसद में होने वाली बहस की गुणवत्ता में गिरावट आई है। संसद में जहाँ बहस राष्ट्रीय और महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर की जाती थी वहाँ आजकल स्थानीय समस्याओं पर ही सिमट गई है। संसद सदस्यों की कमज़ोर उपस्थिति, मुद्दों पर बहस करने की गुणवत्ता में कमी और कोलाहलपूर्ण कार्यवाही ऐसे कुछ मुद्दे हैं, जिन्होंने न केवल ससंद की उत्पादकता को कम किया है, बल्कि उसकी छवि को धूमिल किया है।

कमियाँ 

  • 1950 और 1960 के बीच लोक सभा की कार्यवाही एक वर्ष में औसतन 120 दिनों की रही थी, लेकिन पिछले दशक में यह घटकर एक वर्ष में औसत 70 दिन ही रह गई है। 
  • वर्ष 2016 के शीतकालीन सत्र में लोक सभा की उत्पादकता 14% रही, जबकि राज्यसभा की 20% रही। 
  • वर्ष 2012 में संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व के संदर्भ में भारत को नीचे से 20वें स्थान पर रखा गया था।
  • तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम, केरल और पुडुचेरी की विधानसभाओं में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 10% से भी कम है।
  • संसद में ‘महिला आरक्षण विधेयक’ कई दिनों से लंबित पड़ा हुआ है, जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि संसद और राज्य विधानसभाओं की कुल सीटों का 33% महिलाओं के लिये आरक्षित होना चाहिये।
  • ज़्यादातर सांसदों के पास सीमित या नहीं के बराबर शोध कर्मचारी हैं, जो महत्त्वपूर्ण मामलों पर सलाह प्रदान कर सके।
  • संसद की लाइब्रेरी और संदर्भ, अनुसंधान, प्रलेखन और सूचना सेवा (LARRDIS) में वर्तमान में 231 कर्मचारियों के स्थान पर 176 ही कार्यरत है, जो लोक सभा सचिवालय की कुल संख्या का लगभग 8% है।
  • संसद की विधायी प्रक्रिया की भी अक्सर आलोचना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि अधिनियमों को ज़ल्दबाजी में तैयार किया जाता है तथा इन्हें अव्यवस्थित तरीके से संसद के समक्ष रखा जाता है। उदहारणस्वरूप वर्ष 2008 में 16 विधेयकों को 20 मिनट से भी कम समय में पारित कर दिया गया था।

अन्य देशों से संसद की तुलना

  • ‘ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स’ में पिछले 15 वर्षों में प्रत्येक वर्ष औसतन 150 दिनों तक सत्र चलाया गया। 
  • इसी अवधि में अमेरिकी सदन के प्रतिनिधियों द्वारा 140 दिनों तक सत्र चलाया गया। 
  • ऐसा देखा गया कि विश्व के ज़्यादातर देशों में संसद वर्षभर सत्र में रही हैं।

क्या किया जाना चाहिये?

  • संसद की बैठक के न्यूनतम अनिवार्य दिनों की संख्या को सुनिश्चित किया जाना चाहिये। 
  • संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले ‘राष्ट्रीय आयोग’ ने क्रमशः लोक सभा और राज्य सभा के लिये 120 और 100 दिनों की बैठक की अनुशंसा की है। उल्लेखनीय है कि ओडिशा सरकार ने राज्य विधानसभा के लिये कम-से-कम 60 दिन की बैठक करना अनिवार्य बना दिया है।
  • महिला आरक्षण विधेयक (108वाँ संशोधन) को पारित करने की आवश्यकता है।
  • दल-बदल कानून में संशोधन किया जाए तथा इसका उपयोग असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिये।
  • दल-बदल कानून के भय के बिना, सांसदों को अपनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करने की अनुमति होनी चाहिये। उदाहरण के लिये यू.के. में सदस्यों को संसद में अपनी इच्छा से किसी भी विषय पर स्वतंत्र वोट करने की छूट है।
  • सांसदों के लिये अनुसंधान स्टाफ की व्यवस्था की जानी चाहिये। इसके लिये संसद की बौद्धिक पूंजी (Intellectual Capital)के विकास में निवेश करना चाहिये।
  • एल.ए.आर.आर.डी.आई.एस. को अतिरिक्त बजटीय सहायता प्रदान की जानी चाहिये। 
  • बजट जाँच प्रक्रिया की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिये एक संस्थागत प्रक्रिया की स्थापना की ज़रूरत है। इसके लिये यू.एस. के समान संसदीय बजट कार्यालय बनाना जा सकता है।
  • हमें विधायी इंजीनियरिंग और प्राथमिकता के लिये एक व्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इस क्रम में संसदीय समितियाँ संस्थागत महत्त्व प्रदान कर सकती है।
  • कानून मंत्रालय ने एक ‘संविधान समिति’ बनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। संविधान संशोधन से संबंधित विधेयकों को आम विधेयकों की तरह प्रस्तुत करने के बजाय इस समिति के पास भेजा जाना वांछनीय होगा, ताकि इस प्रस्ताव पर गहन शोध किया जा सके।

निष्कर्ष 
संसद देश के लोगों की भावनाओं की अभिव्यक्ति है। अत: हमें इसमें विद्यमान विसंगतियों को तुरंत दूर किया जाना चाहिये, ताकि हम संसद के प्रति लोगों के विश्वास को और बढ़ा सके। हमें ऐसी  मज़बूत विधायी व्यवस्था बनानी चाहिये, जिसका उपयोग नीति-निर्माण के लिये हो न की राजनीति के लिये।