आवश्यक है ‘हिरासत में यातना’ का उन्मूलन | 01 Dec 2017

संदर्भ

  • हाल ही में विधि आयोग ने अपनी 273वीं रिपोर्ट जारी की है, जिसमें सुझाव दिया गया है कि भारत द्वारा यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (United Nations Convention against Torture) की पुष्टि (ratify) की जानी चाहिये।
  • गौरतलब है कि वर्ष 1997 में इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करने के बावजूद भारत ने अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है।
  • विधि आयोग के सुझावों में यह भी शामिल है कि कारागारों में होने वाली यातनाओं को रोकने और यह अपराध करने वाले अपराधियों को दंडित करने के लिये कानून पारित किया जाए।
  • सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बी.एस. चौहान के नेतृत्व में की गई आयोग की सिफारिशें यातना दिये जाने को एक अलग अपराध के रूप में पहचान करने के लिये सरकार पर दबाव बनाने का काम करेंगी।

विधि आयोग के रिपोर्ट में क्या?

विधि आयोग की 273वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार के एजेंट्स यानी सरकार के वैसे प्रतिनिधि जो लोगों को हिरासत में लेने संबंधी दायित्वों का निर्वहन करते हैं, उनके द्वारा नागरिकों पर किये गए किसी भी आत्याचार के लिये राज्य को उत्तरदायी बनाया जाए। विधि आयोग की कुछ महत्त्वपूर्ण सिफारिशें हैं:

 ►सरकार ‘यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन’ की पुष्टि करे।
► विधायिका, यातना के विरुद्ध एक विशेष कानून बनाए।
► राज्य अपने प्रतिनिधियों या एजेंटों के कार्यों से प्रतिरक्षा का दावा न करे।
► विधि आयोग ने ‘द प्रिवेंशन ऑफ टार्चर बिल’ 2017" नामक एक नया कानून प्रस्तावित किया है।

द प्रिवेंशन ऑफ टार्चर बिल’ 2017 की महत्त्वपूर्ण बातें:

  • इस विधेयक में ‘यातना’ (torture) की विस्तृत परिभाषा शामिल की गई है, जिसमें केवल शारीरिक यातना का ही नहीं बल्कि मानसिक व मनोवैज्ञानिक यातनाओं का भी संज्ञान लिया जाएगा।
  • इस मसौदा विधेयक में यातना देने का अपराध करने वालों के लिये ज़ुर्माने के साथ-साथ आजीवन कारावास के दंड की सिफारिश की गई है।
  • विधेयक के अनुसार यदि पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति को चोट पहुँचती है तो यह माना जाएगा कि वह पुलिस द्वारा यातना का शिकार हुआ है और स्वयं को निर्दोष साबित करने की ज़िम्मेदारी भी पुलिस की ही होगी।
  • विधेयक में पीड़ितों को मुआवज़ा देने का भी प्रावधान किया गया है, जहाँ अदालतों को यह दायित्व दिया गया है कि वे पीड़ित की मानसिक और शारीरिक पीड़ा को देखते हुए उचित मुआवज़े का निर्धारण करें।

क्या है यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र का कन्वेंशन?

  • यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है, जिसकी घोषणा वर्ष 1984 में की गई तथा वर्ष 1987 में इसे लागू किया गया।
  • इसका उद्देश्य दुनिया भर में होने वाली यातनाओं तथा क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक कृत्यों को रोकना है।
  • यह यातना देने को एक दंडनीय अपराध मानता है और पीड़ितों के लिये मुआवजे के अधिकार को मान्यता देता है।
  • यह देशों को अपने नागरिक, उन देशों में भेजने से मना करता है, जहाँ यह संभावना है कि उन्हें यातना झेलनी पड़ सकती है।

यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन की पुष्टि आवश्यक क्यों?

  • ‘हिरासत में मौत’ की बढ़ती घटनाएँ:

► न्यायिक या पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति की मृत्यु की घटना को ‘हिरासत में मौत’ (custodial death) के रूप में परिभाषित किया गया है।
► राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001 से वर्ष 2010 के बीच ‘न्यायिक हिरासत’ में 12,727 लोगों की, जबकि ‘पुलिस हिरासत’ में 1275 लोगों की मौत हो चुकी है।

  • कठिन है अपराधियों का प्रत्यर्पण:

► अन्य देशों से अपराधियों के प्रत्यर्पण का भारत का अनुरोध कई बार सिर्फ इसलिये खारिज़ कर दिया जाता है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के भीतर यह डर व्याप्त है कि भारत में आरोपी व्यक्तियों को यातनाएँ दी जाती हैं।
► अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के इस डर का कारण है भारत का यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन की पुष्टि न करना।

  • रेयान इंटरनेशनल स्कूल मामला:

► भारत में बड़े पैमाने पर कैद में यातनाएँ दी जाती हैं और इसका हालिया उदाहरण है ‘रेयान इंटरनेशनल स्कूल मामला’।
► इस मामले में आरोपी को यातनाएँ देकर अपराध स्वीकार करने पर मजबूर किया गया था।

  • आईपीसी और सीपीसी में कोई प्रावधान नहीं:

► भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure Code) दोनों में ही ‘कैद में यातना’ (custodial torture) के संबंध में कोई विशेष और व्यापक प्रावधान नहीं हैं।
► यदि भारत कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करता है तो पहले आईपीसी और सीपीसी में समुचित प्रावधान जोड़ने होंगे और यह एक आवश्यक सुधार होगा।

  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मांग:

► राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा सरकार को ‘कैद में यातना’ को एक अलग और दंडनीय अपराध के रूप में पहचान करने की मांग की जाती रही है।
► मानवाधिकार आयोग का मानना है कि एक सभ्य समाज में ‘हिरासत में हिंसा’ जैसी घटनाओं की अनुमति नहीं होनी चाहिये।

आगे की राह

  • सरकार को यातना तथा अन्य क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक कृत्यों को रोकने के लिये विधायी उपाय करने चाहिये।
  • सरकार को बिना किसी देरी के विधि आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करना चाहिये।
  • ‘आपराधिक न्याय प्रणाली’ के आधुनिकीकरण और आईपीसी से संबंधित कानूनों में सुधार की भी महत्ती आवश्यकता है।
  • साथ ही पुलिस को संवेदनशील बनाना और इसकी छवि को सुधारना भी अत्यंत आवश्यक है।

निष्कर्ष

  • औपनिवेशिक शासन मुख्यत: पुलिस यातनाओं के दम पर ही लोगों की आवाज़ दबाने में सफल रहा, लेकिन स्वतंत्र भारत में यह विडंबना ही है कि आज तक ‘हिरासत में हिंसा’ के विरुद्ध कोई कानून नहीं बन सका है।
  • दरअसल, भारत ने वर्ष 1997 में ही संयुक्त राष्ट्र के यातनाओं के विरुद्ध कन्वेंशन पर हस्ताक्षर कर दिया था, लेकिन वह आज तक इसकी पुष्टि नहीं कर पाया है।
  • वर्ष 2010 में लोकसभा में एक यातना निरोधक विधेयक पारित किया गया था जो राज्यसभा से वापस ले लिया गया और तब से यह ठंडे बस्ते में पड़ा है।
  • पुलिस द्वारा यातना के मामले इतने अधिक हैं कि न्यायालयों व मानवाधिकार आयोगों ने हज़ारों मामलों का संज्ञान लिया है और अनेकों निर्देशिकायें जारी की हैं। वक्त आ गया है कि हिरासत में यातना पर पुर्णतः रोक लगाई जाए।