जनप्रतिनिधि और आचार संहिता | 15 Jan 2020

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में जनप्रतिनिधियों के लिये आचार संहिता की आवश्यकता, भारत में उसके इतिहास और अन्य विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

वर्ष 2018 में अपने कार्यकाल के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडु ने संसदीय संस्थानों के प्रति नागरिकों के विश्वास को बनाए रखने और कार्यपालिक/विधायिका के कामकाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये नीति निर्माताओं से सांसदों एवं विधायकों हेतु एक आचार संहिता के निर्माण का आग्रह किया था। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में भी नैतिकता और राजनीति पर चर्चा करते हुए स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि स्वतंत्रता संग्राम का अटूट हिस्सा रहे नैतिक आचरण के ऊँचे मापदंड भारतीय राजनीति में समय के साथ कमज़ोर होते जा रहे हैं। ऐसे में यह प्रश्न अनिवार्य है कि क्या हमें नैतिक आचरण के ऊँचे मापदंडों की विरासत को बरकरार रखने के लिये नए नियमों की आवश्यकता है?

आचार संहिता का अर्थ

  • सामान्य शब्दों में आचार संहिता नियमों का एक समूह है, जो किसी प्राधिकरण के व्यवहार को विनियमित और नियंत्रित करता है तथा जिसका पालन करना अनिवार्य होता है।
  • नीति संहिता व आचार संहिता को लेकर प्राय: भ्रम की स्थिति रहती है। अक्सर लोग आचार संहिता और नीति संहिता को एक ही मानकर एक-दूसरे के पर्याय के रूप में इनका प्रयोग करते हैं। हालाँकि दोनों के मध्य अंतर होता है और जेरेमी बेंथम का यह कथन इसी अंतर को भलीभांति स्पष्ट करता है:
    • “नीति संहिता में आमतौर पर सामान्य मूल्य होते हैं, जबकि आचार संहिता उन सिद्धांतों को बताती है जो मूल्यों से प्राप्त होते हैं। मूल्य सामान्यत: नैतिक उत्तरदायित्व होते हैं, जबकि सिद्धांत वे अपेक्षित नैतिक शर्तें या व्यवहार होते हैं जो मूल्यों का अनुसरण करते हैं।”
  • अतः सैद्धांतिक तौर पर यह कहा जा सकता है कि नीति संहिता मूल्य को संदर्भित करती है और मूल्य साध्य है तो आचरण संहिता उसे प्राप्त करने का साधन।

जनप्रतिनिधियों के लिये आचार संहिता की पृष्ठभूमि

  • भारत में उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों और जनप्रतिनिधियों के लिये आचार संहिता की आवश्यकता पर चर्चा का एक लंबा इतिहास है। इसकी शुरुआत वर्ष 1964 में ‘मंत्रियों के लिये आचार संहिता’ को अपनाए जाने के साथ ही हो गई थी।
    • विदित हो कि इस संहिता में केंद्रीय मंत्रियों और राज्य मंत्रियों के आचरण से संबंधित विभिन्न प्रावधान किये गए हैं, जिसमें मंत्रियों द्वारा 'क्या किया जाना चाहिये' तथा 'क्या नहीं किया जाना चाहिये' जैसे मार्गदर्शक सिद्धांत शामिल हैं।
  • वर्ष 1999 में मुख्य न्यायाधीशों के एक सम्मेलन में सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों हेतु एक आचार संहिता अपनाने का संकल्प लिया गया था।
    • विदित हो कि 15-सूत्रीय इस संकल्प में सिफारिश की गई थी कि सेवारत न्यायाधीशों को आधिकारिक और व्यक्तिगत जीवन के मध्य अलगाव बनाए रखना चाहिये।
  • सांसदों के मामले में आचार संहिता के निर्माण का कार्य दोनों सदनों (राज्यसभा और लोकसभा) में नैतिकता पर संसदीय स्थायी समितियों के गठन के साथ शुरू हुआ था।
    • राज्यसभा में इस समिति का उद्घाटन समिति के अध्यक्ष के. आर. नारायणन द्वारा वर्ष 1997 में किया गया था।

जनप्रतिनिधियों के लिये आचार संहिता की आवश्यकता क्यों है?

  • भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ चुनावों को लोकतंत्र के पर्व के रूप में देखा जाता है, किंतु भारत के इसी लोकतांत्रिक पर्व का एक अन्य पक्ष भी है। भारत में चुनावों को अक्सर निजी हमलों तथा अपमानजनक और नफरत फैलाने वाले भाषणों के लिये याद किया जाता है। सामान्यतः इन अपमानजनक और नफरत फैलाने वाले भाषणों के कारण ही देश में सांप्रदायिकता और अराजकता का माहौल पैदा होता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिये जनप्रतिनिधियों के आचार को नियंत्रित करना आवश्यक हो जाता है।
  • कई जनप्रतिनिधि अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करने के प्रयास में अक्सर अपने निजी और सार्वजानिक जीवन के मध्य की रेखा को मिटा देते हैं और चुनाव जीतने के लिये किसी भी हद तक चले जाते हैं। इसके अलावा कुछ राजनेता मतदाताओं को प्रतिकूल परिणाम भुगतने की धमकियाँ भी देते हैं।
  • देश के सदन की कार्य क्षमता में भी काफी कमी देखने को मिली है। आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 1952 से वर्ष 1967 तक तीनों लोकसभाओं ने औसतन 600 दिनों या 3,700 घंटे तक कार्य किया, जबकि 16वीं लोकसभा (जून 2014 से फरवरी 2019) ने मात्र 1,615 घंटे ही कार्य किया। विदित हो कि अंतिम लोकसभा के कार्य घंटे अब तक की सभी पूर्ण लोकसभाओं के औसत कार्य घंटे (2,689 घंटे) से भी 40 प्रतिशत कम है।
  • संसद में हंगामा करना, अस्वीकार्य टिप्पणी करना और सदन की कार्यवाही को बाधित करने जैसे आरोप मौजूदा समय में लगभग प्रत्येक छोटे-बड़े नेता के नाम के साथ जुड़े हुए हैं।
  • जनप्रतिनिधि देश के आम नागरिकों के लिये प्रेरणास्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं और यदि वे अपने आचरण में सुधार नहीं करेंगे तो आम जनता को भी इस सुधार के लिये प्रेरित नहीं कर पाएँगे।
  • राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र का प्रमुख अंग बन गया है। मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत में राजनीति अपराधियों को बच निकलने का एक नया रास्ता प्रदान करती है। ऐसी स्थिति पर आचार संहिता के माध्यम से काफी हद तक रोक लगाई जा सकती है।
  • अतः राजनीतिक भाषणों और अभिव्यक्तियों में शिष्टाचार सुनिश्चित करने के लिये राजनेताओं हेतु आचार संहिता स्थापित करना अनिवार्य है।

जनप्रतिनिधियों हेतु आचार संहिता के प्रमुख बिंदु

जनप्रतिनिधियों के लिये आचार संहिता के निर्माण हेतु नीति निर्माता निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं:

  • जनप्रतिनिधियों और विभिन्न महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन लोगों को अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये।
  • उन्हें अपने निजी हितों और सार्वजनिक हितों के मध्य संघर्ष से बचना चाहिये।
  • किसी भी सांसद को उन सवालों पर सदन में मतदान करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, जिनमें उसका निजी हित निहित है।
    • उदाहरण के लिये सदन में पेट्रोल से संबंधित किसी मुद्दे पर चर्चा की जा रही है तो इस स्थिति में ऐसे सांसदों को मतदान का अधिकार नहीं होना चाहिये जो पेट्रोल के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।
  • 100 से अधिक सदस्यों वाली विधायिका में कार्य के न्यूनतम 110 दिन और 100 से कम सदस्यों वाली विधायिका में कार्य के न्यूनतम 90-95 दिन सुनिश्चित किये जाने चाहिये।
  • जनप्रतिनिधियों को अपनी आय, संपत्तियों और देनदारियों तथा इनमें परिवर्तन से संबंधित सूचना समय-समय पर साझा करनी चाहिये।
  • दुर्व्यवहार करने और नियमों का उल्लंघन करने को लेकर किसी भी सदस्य के सदन से स्वत: निलंबन की व्यवस्था की जानी चाहिये।

अन्य देशों में क्या है व्यवस्था?

  • कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स ने इस संदर्भ में एक आयुक्त की नियुक्ति की है जिसके पास अन्य सदस्य के अनुरोध पर या सदन के प्रस्ताव पर या स्वयं की पहल पर हितों के टकराव के मामलों की जाँच करने की शक्तियाँ हैं।
  • जर्मनी में वर्ष 1972 से बुंडेस्टैग के सदस्यों (Members of the Bundestag) के लिये एक आचार संहिता है।
  • अमेरिका के पास भी इस संदर्भ में वर्ष 1968 से एक आचार संहिता मौजूद है।

जनप्रतिनिधियों के लिये आचार संहिता और 2nd ARC

जनप्रतिनिधियों से प्रशासन के नेतृत्त्व तथा मार्गदर्शन की आशा की जाती है। ऐसे में उनके भी आचार और व्यवहार को नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता है। दूसरे प्रशासनिक आयोग ने जनप्रतिनिधियों के लिये नैतिक तथा आचरण संहिता पर निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये हैं-

  • उन्हें सामूहिक नेतृत्व का पालन करते हुए नैतिकता के सर्वोच्च मानक बनाए रखने चाहिये तथा अपने विभाग की नीतियों, निर्णयों और कार्यों की जानकारी संसद या विधायिका को देना चाहिये।
  • उन्हें हितों के टकराव से बचना चाहिये और यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उनके कर्त्तव्यों और निजी हितों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो। साथ ही उन्हें अपने राजनीतिक, दलीय तथा निजी हितों की पूर्ति के लिये सरकारी संसाधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
  • उन्हें सिविल सेवकों की राजनीतिक निष्पक्षता को बनाए रखने में सहयोग करना चाहिये।
  • सरकारी निधि का उपयोग उचित ढंग से किया जाना सुनिश्चित करना चाहिये।
  • उन्हें अपनी कार्यशैली में वस्तुनिष्ठता, ईमानदारी, निष्पक्षता, समानता आदि का समावेश और अभ्यास करना चाहिये।

आगे की राह

  • इस संदर्भ में चुनाव आयोग की भूमिका को और अधिक विस्तृत किये जाने की आवश्यकता है, उनकी भूमिका केवल आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं के विरुद्ध FIR दर्ज करने तक सीमित नहीं रहनी चाहिये। चुनाव आयोग को ऐसे उम्मीदवारों के राजनीतिक दलों से इनकी उम्मीदवारी रद्द करने की भी सिफारिश करनी चाहिये।
  • नियमों का उल्लंघन करने पर राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने जैसे कठोर कदम देश के लोकतंत्र के पक्ष में हो सकते हैं।
  • साथ ही यह भी यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि आचार संहिता विपक्ष की भूमिका पर अंकुश लगाने का साधन न बन जाए।

प्रश्न: जनप्रतिनिधियों और उच्च पदों पर आसीन लोगों के लिये आचार संहिता की आवश्यकता को स्पष्ट करते हुए इस संदर्भ में द्वितीय प्रशासनिक आयोग के विचारों का उल्लेख कीजिये।