भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार से संबंधित चिंताएँ | 03 Feb 2018

संदर्भ:

  • भारत और अमेरिका ने वर्ष 2008 में ऐतिहासिक असैन्य परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किये। यह भारत की परमाणु नीति के विकास की दिशा में एक प्रमुख सफलता थी।
  • दरअसल, सीटीबीटी (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty) और एनपीटी (Non-Proliferation Treaty) का हस्तारक्षरकर्त्ता न होने के कारण भारत की परमाणु नीति सकारात्मक दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रही थी।
  • इस दृष्टि से इस समझौते ने भारत की उम्मीदों में पंख लगाने का कार्य किया, लेकिन आज इतने वर्षों बाद भी इस दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हो पाई है।

क्या है भारत-अमेरिकी परमाणु समझौता?

  • इस समझौते के तहत, भारत अपनी नागरिक और सैन्य परमाणु गतिविधियों को अलग करने पर सहमत हो गया।
  • साथ ही भारत ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) द्वारा निरीक्षण के प्रति भी अपनी सहमत जताई थी।
  • बदले में अमेरिका ने भारत के साथ परमाणु व्यापार को फिर से शुरू करने की पेशकश की, जिसमें शामिल था:
    ► रिएक्टरों की बिक्री।
    ► प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण।
    ► यूरेनियम बिक्री की सहमति।
  • यह समझौता कई जटिल चरणों से होकर गुज़रा है, जैसे- अमेरिका के घरेलू कानून में बदलाव, भारत में सैन्य व असैन्य कार्यक्रमों का पृथक्करण और भारत-आईएईए सुरक्षा समझौते आदि।

अमेरिका ने क्यों किये इस समझौते पर हस्ताक्षर?

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  • आर्थिक उद्देश्य:
    ► दरअसल, अमेरिका यह चाहता था कि भारत को एनपीटी की व्यवस्था के करीब लाया जाए।
    ► अमेरिका यह भी चाहता था कि देश के रिएक्टटरों में आईएईए के सुरक्षा-उपायों को लागू किया जा सके।
  • राजनैतिक उद्देश्य: 
    ► यह सौदा भारत के आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकता है और अगले दशक में भारत परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिये $ 150 बिलियन का निवेश कर सकता है।
    ► गौरतलब है कि $ 150 बिलियन के निवेश में अमेरिका स्वयं का एक  हिस्सा चाहता है।
  • भारत यूरेनियम का बड़ा खरीदार:
    ► भारत यूरेनियम के सबसे बड़े खरीदारों में से एक है और ऐसे में हर कोई इस बाज़ार का हिस्सा बनना चाहता है।
    ► साथ ही भारतीय प्रौद्योगिकी विशेषकर थोरियम आधारित शोध अमेरिका के लिये भी लाभदायक हो सकता है।

समझौते में हुई प्रगति:

  • इससे अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) की निगरानी वाले रिएक्टरों के लिये ईंधन के आयात की सुविधा प्राप्त हुई है।
  • इससे विदेशी तकनीकी सहयोग के साथ बड़ी क्षमता वाले लाइट वॉटर रिएक्टर्स (एलडब्ल्यूआर) स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
  • नौ रिएक्टर निर्माणाधीन हैं और सरकार द्वारा 12 रिएक्टरों को प्रशासनिक स्वीकृति और वित्तीय मंज़ूरी दी गई है।
  • हालाँकि, द्विपक्षीय समझौतों के बावजूद अमेरिकी कंपनी और भारतीय अधिकारियों के बीच किसी भी अनुबंध का अभी तक कोई संकेत नहीं मिला है।

क्या हैं वर्तमान चुनौतियाँ?

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  • ट्रंप इफेक्ट:
    ► ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका की नीतियों में बदलाव देखा जा रहा है और वह नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग को उतना महत्त्व नहीं दे रहा।
    ► अमेरिका अब तेल, गैस, कोयला और शेल गैस के व्यापार पर जोर दे रहा है। विदित हो कि हाल ही में भारत ने अमेरिका से तेल और गैस आयात करना आरंभ कर दिया है।
    ► ऐसे में भारत की अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के वित्तपोषण में ओबामा युग के दौरान मिलने वाला समर्थन खो सकता है।
  • अमेरिकी कंपनियों के रुख में बदलाव:
    ► लागत में वृद्धि के कारण अमेरिका ने पहले ही अपने दो रिएक्टरों में काम बंद कर दिया है।
    ► जबकि भारत में रिएक्टर निर्माण के संबंध में इन कंपनियों का कहना है कि अब वे सीधे निर्माण कार्यों में हिस्सा न लेकर सिर्फ इससे संबंधित सामग्री प्रदान करेंगी।
    ► यदि भारत-अमेरिका तकनीकी-वाणिज्यिक अनुबंध को वर्ष 2019 में हरी झंडी दिखा भी दी जाती है तो अगला रिएक्टर बनने में लगभग 10 साल का समय लग सकता है।
  • भारत की आवश्यकताओं में बदलाव:
    ► जब भारत और अमेरिका के बीच यह परमाणु समझौता हुआ था, तब से लेकर अब तक भारत की ऊर्जा ज़रूरतों में व्यापक बदलाव आया है।
    ► मंत्रिमंडल ने हाल ही में 7,000 मेगावाट की क्षमता वाले 10 हैवी वाटर रिएक्टरों की निर्माण योजना को मंज़ूरी दी है।
    ► मौजूदा 6,780 मेगावाट की क्षमता को बढ़ाकर 2024 तक भारत ने 14,600 मेगावाट परमाणु ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य तय किया है।
  • लागतवृद्धि की समस्या:
    ► एक और बड़ी समस्या भारत की परमाणु ऊर्जा के लिये विदेशी सहयोग के एवज में की जाने वाली भुगतान की लागत से संबंधित है।
    ► फ्राँस के सहयोग से जैतपुर में बनने वाले 1,650 मेगावाट के छह यूरोपियन प्रेशराइज्ड रिएक्टरों के निर्माण में पहले से ही विलंब हो रहा है।
    ► दरअसल, यह विलंब अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और फ्राँसीसी कंपनी अरेवा के बीच के मतभेदों के कारण है। (अब इंग्लैण्ड की ईडीएफ एनर्जी कंपनी को सौंप दिया गया है)

निष्कर्ष

  • अमेरिका अपने प्रतिनिधियों को भारत भेजकर सौदे पर फिर से बातचीत शुरू करना चाहता ताकि वाणिज्यिक अनुबंध के संबंध में निर्णय लिया जा सके। भारत को इस पर आगे बढ़ने से पहले उपरोक्त चिंताओं को संज्ञान में लेना होगा।