सूखे की स्थिति से निपटने में संघर्षरत भारत | 08 May 2019

संदर्भ

महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के क्षेत्रों में लगातार सूखे की स्थिति के बावजूद सरकार की तरफ से इससे निपटने के लिये अब तक कोई सक्षम रणनीति सामने नहीं आई है।

समस्याएँ

  • पिछले कई वर्षों से फसलों का खराब होना और सूखा पड़ना एक स्थायी समस्या बन गई है।
  • भारत में सूखा की स्थिति लंबे समय से बनी रही है किंतु इन दिनों इसकी आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है।
  • सरकार की तरफ से सूखे से निपटने के लिये तात्कालिक तौर पर चारा-शिविर, पानी के टैंकर और सूखा राहत कोष जैसी व्यवस्था कर दी जाती है किंतु दीर्घकालिक अवधि में इससे निपटने के लिये कोई ठोस कदम नही उठाए गए है।

आँकड़े

  • आंध्र प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में पिछले चार वर्षों में चार बार सूखा पड़ा है।
  • इस अवधि के दौरान कर्नाटक के 20 से अधिक ज़िले तीन साल तक सूखे की चपेट में रहे।
  • वहीं महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा को दो बार सूखे का सामना करना पड़ा।
  • कृषि मंत्रालय के अनुसार,
  • पिछले चार वर्षों में लगातार सूखे से न केवल खरीफ और रबी की फसल प्रभावित हुई है, बल्कि इन राज्यों में खरीफ की पूरक फसलें भी नष्ट हुई हैं।
  • कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड के कुछ हिस्से अच्छी तरह से सिंचित नहीं होने के कारण जलवायु परिवर्तन के प्रति बेहद संवेदनशील हो गए हैं।
  • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय एवं विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अनुसार,
  • उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत तथा मध्य भारत के आसपास सूखे की तीव्रता अधिक देखी गई है साथ ही, हाल के दशकों में भारत में सूखे की तीव्रता और क्षेत्र में वृद्धि हुई है।
  • आर्थिक सर्वेक्षण (2017-18) में तापमान, वर्षा और फसल उत्पादन पर जिला-स्तरीय आँकड़ों को प्रस्तुत करते हुए औसत वर्षा में गिरावट, अत्यधिक वर्षा और तापमान में वृद्धि की दीर्घकालिक प्रवृत्ति का दस्तावेजीज़ीकरण किया है।
    इसके अनुसार,
  • तापमान और वर्षा का प्रभाव केवल अति के रूप में महसूस किया जाता है; अर्थात् जब तापमान बहुत अधिक होता है, वर्षा काफी कम होती है, और ‘शुष्क दिनों’ की संख्या सामान्य से अधिक होती है।
  • ये प्रभाव सिंचित क्षेत्रों की तुलना में असिंचित क्षेत्रों में काफी अधिक प्रतिकूल हैं।
  • जलवायु में प्रतिकूल परिवर्तन के कारण सिंचित क्षेत्र में कृषि से उत्पन्न वार्षिक आय औसतन 15 प्रतिशत से 18 प्रतिशत तक और असिंचित क्षेत्रों के लिये 20 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक कम हो सकती है।

सरकार द्वारा किये गए उपाय

  • सरकार जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) चला रही है जिसके अंतर्गत विशिष्ट क्षेत्रों में आठ मिशन लागू किये गए हैं। ये क्षेत्र हैं-
  • सौर ऊर्जा
  • ऊर्जा दक्षता
  • जल
  • कृषि
  • हिमालय का पारिस्थिकी तंत्र
  • स्थायी आवास
  • हरित भारत
  • जलवायु परिवर्तन पर रणनीतिक ज्ञान।
  • राज्यों ने NAPCC के उद्देश्यों के अनुरूप और जलवायु परिवर्तन से संबंधित राज्य के विशिष्ट मुद्दों को ध्यान में रखते हुए जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्ययोजना (SAPCC) तैयार की है
  • इसके अलावा केंद्र एवं राज्य सिंचाई केंद्रित कई योजनाएँ जैसे- प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP) इत्यादि भी चला रहे हैं।

त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (एआईबीपी)
Accelerated Irrigation Benefits Program – AIBP

  • सिंचाई की दर में निरंतर गिरावट के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार द्वारा अपूर्ण सिंचाई योजनाओं को पूरा करने के लिये सहायता देने हेतु 1996-97 से त्वरित सिंचाई लाभ कार्यक्रम (AIBP) प्रारंभ किया गया।
  • इस कार्यक्रम के अंतर्गत योजना आयोग द्वारा अनुमोदित परियोजनाएँ सहायता प्राप्त करने की पात्र हैं।

योजनाएँ कागज़ों तक ही सीमित

  • विशेषज्ञों और किसानों का आरोप है कि सरकार की योजनाएँ सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित हैं।
  • कृषि और जलवायु परिवर्तन शोधकर्त्तार्ओं के अनुसार, धरातल पर विशेष कुछ नहीं हो रहा है। इस मुद्दे से व्यापक रूप से निपटने के लिये राज्य और केंद्रीय स्तर पर सिर्फ तात्कालिक रूप से समाधान प्रस्तुत करने का कोई अर्थ नहीं है।
  • कृषि पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के प्रति उदासीनता भविष्य के लिये एक बड़े संकट का कारण बन सकती है।

आगे की राह

  • जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता को कम करने के लिये ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रौद्योगिकियों के माध्यम से सिंचाई का विस्तार करना आवश्यक है।
  • मोर क्रॉप फॉर एवरी ड्रॉप (More Crop For Every Drop) की दिशा में कार्य करना होगा।
  • बिजली और उर्वरक क्षेत्र में असंगत सब्सिडी के बदले प्रत्यक्ष आय समर्थन प्रदान करना चाहिये।
  • भू-जल के अन्य भंडारों की खोज के लिये रिमोट सेंसिंग, उपग्रह से प्राप्त मानचित्रों तथा भौगोलिक सूचना तंत्र आदि तकनीकों का प्रयोग किया जाना चाहिये।
  • जल संग्रहण के लिये छोटे बांधों का निर्माण किया जाना चाहिये। 
  • ‘हर खेत को पानी' के तहत कृषि योग्य क्षेत्र का विस्तार करना तथा खेतों में ही जल को इस्तेमाल करने की दक्षता को बढ़ाना होगा।
  • पौधरोपण तथा सूखारोधी फसलों की कृषि के माध्यम से सूखे के प्रभावों को सीमित किया जा सकता है तथा नीतियों को फसल-केंद्रित बनाया जाना चाहिये।

सूखा

सूखा एक असामान्य व लंबा शुष्क मौसम होता है जो किसी क्षेत्र विशेष में स्पष्ट जलीय असंतुलन पैदा करता है। सूखा के लिये मानसून की अनिश्चितता के अतिरिक्त कृषि का अवैज्ञानिक प्रबंधन भी उत्तरदायी कारक हो सकते हैं। ‘सूखे’ की तीन स्थितियाँ होती हैं-

(i) मौसमी सूखाः किसी बड़े क्षेत्र में अपेक्षा से 75% कम वर्षा होने पर उत्पन्न हुई स्थिति।

(ii) जलीय सूखाः जब ‘मौसम विज्ञानी सूखे’ की अवधि अधिक लंबी हो जाती है तो नदियों, तालाब, झीलों जैसे जल क्षेत्र सूखने से यह स्थिति बनती है।

(iii) कृषिगत सूखाः इस स्थिति में फसल के लिये अपेक्षित वर्षा से काफी कम वर्षा होने पर मिट्टी की नमी फसल विकास के लिये अपर्याप्त होती है।

स्रोत: द हिंदू