बहिष्कार पर प्रतिबंध | 24 Jul 2017

संदर्भ
अनौपचारिक ग्राम परिषदों द्वारा व्यक्तियों, परिवारों और किसी समुदाय के सामाजिक बहिष्कार पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये लाया गया महाराष्ट्र राज्य का नया कानून एक बहुत ही सराहनीय प्रयास है| इस प्रगतिशील कानून को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् जुलाई माह के आरंभ में लागू कर दिया गया है| वस्तुतः इस कानून का मुख्य उद्देश्य सामाजिक अनुरूपता को बनाये रखने के लिये  अनौपचारिक जाति पंचायतों अथवा प्रमुख वर्गों द्वारा किये जाने वाले सामाजिक बहिष्कार पर प्रतिबंध लगाना है|

प्रमुख बिंदु

  • महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘सामाजिक बहिष्कार से लोगों को संरक्षित करने के लिये बनाया गया महाराष्ट्र संरक्षण (रोकना, निषेध और निवारण) अधिनियम’, 2016 (The Maharashtra Protection of People from Social Boycott (Prevention, Prohibition and Redressal) Act) अन्य राज्यों में भी इसी प्रकार के कानून के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य करेगा|
  • इस अधिनियम में ऐसी कई गतिविधियों का उल्लेख किया गया है जिनके कारण सामाजिक बहिष्कार किया जाता है|
  • उक्त अधिनियम में सामाजिक बहिष्कार को एक दंडनीय अपराध माना गया है जिसके लिये तीन वर्ष तक के कारावास अथवा 1 लाख अथवा दोनों सजाओं के दंड का प्रावधान सुनिश्चित किया गया है|
  • इस अधिनियम के द्वारा सामाजिक अथवा धार्मिक रीतियों के प्रदर्शन पर रोक, अंत्येष्टि अथवा विवाहों में प्रदर्शन करने के अधिकार पर रोक, शिक्षा, चिकित्सा संस्थानों अथवा सामुदायिक भवनों और सार्वजनिक सुविधाओं अथवा सामाजिक बहिष्कार के किसी भी तरीके तक पहुँच बनाने से रोकने के लिये किसी के सामाजिक और वाणिज्यिक सम्बन्धों को समाप्त कर देने संबंधी प्रावधानों को शामिल किया गया है|
  • इसमें नैतिकता, सामाजिक स्वीकार्यता, राजनीतिक झुकाव, लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव पर भी प्रतिबंध लगाया गया है| साथ ही इस अधिनियम के अंतर्गत लोगों पर एक विशेष प्रकार के वस्त्र पहनने और विशिष्ट भाषा बोलने के लिये दबाव बनाने को भी अपराध की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है|
  • ध्यातव्य है कि यह इस प्रकार का पहला कानून नहीं है| इससे पहले भी वर्ष 1949 में धर्म से बहिष्कार कर देने के विरोध में ऐसा ही कानून पारित किया गया था परन्तु दावूदी बोहरा समुदाय (Dawoodi Bohra community) द्वारा सफलतापूर्वक इसका विरोध किये जाने के पश्चात् वर्ष 1962 में इसे समाप्त कर दिया गया|
  • उक्त मामले में दावूदी बोहरा समुदाय द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि यह कानून अपने धार्मिक मामलों को प्रबंधित करने के उनके समुदाय के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है|
  • संविधान के अनुच्छेद 17 और ‘नागरिक अधिकारों का संरक्षण अधिनियम’ में अस्पृश्यता तथा इसके सभी स्वरूपों का विरोध किया गया है, परन्तु यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह मात्र अनुसूचित जातियों को प्रदान किया गया कानूनी संरक्षण है| 
  • इसके विपरीत वास्तविकता यह है कि विभिन्न जातियों और समुदायों के सदस्यों को भी अनौपचारिक ग्राम परिषदों और बुजुर्गों के विरोध के चलते ऐसे ही संरक्षण की आवश्यकता होती है| 
  • प्राय : यह देखा जाता है कि ये बुजुर्ग अपनी धारणाओं, समुदाय के तथाकथित अनुशासन एवं नैतिकता के पक्षों को आधार बनाकर व्यक्तियों और परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं|