17वीं लोकसभा में महिला सांसदों की स्थिति | 30 May 2019

चर्चा में क्यों?

लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व लगातार बढ़ता जा रहा है। पहले चुनाव में सदन में केवल 5% महिलाएँ थी। वर्तमान में यह संख्या बढ़कर 14.3% हो गई हैं।

प्रमुख बिंदु

  • 17वीं लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या बढ़कर 78 हो गई है जो कि अब तक की सबसे अधिक संख्या है।
  • हालाँकि वृहद् स्तर पर देखें तो यह संख्या अभी भी कम है क्योंकि यह आनुपातिक प्रतिनिधित्त्व के आस-पास भी नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिका में यह आँकड़ा 32% है, जबकि पड़ोसी देश बांग्लादेश में 21% है।
  • वर्ष 1962 से अभी तक लगभग 600 महिलाएँ सांसद के रूप में चुनी गई हैं। 543 निर्वाचन क्षेत्रों में से लगभग आधे (48.4%) ने वर्ष 1962 के बाद किसी महिला को सांसद के रूप में नहीं चुना है।

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  • आज़ादी के बाद केवल 15वीं और 16वीं लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी देखने को मिली, जो इससे पहले 9% से कम रहती थी।

क्या हैं प्रमुख चुनौतियाँ

  • महिलाओं को नीति निर्धारण में पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व न मिलने के पीछे निरक्षरता भी एक बड़ा कारण है। अपने अधिकारों को लेकर पर्याप्त समझ न होने के कारण महिलाओं को अपने मूल और राजनीतिक अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं हो पाती है।
  • शिक्षा, संसाधनों/संपत्ति का स्वामित्व और रोज़मर्रा के काम में पक्षपाती दृष्टिकोण जैसे मामलों में होने वाली लैंगिक असमानताएँ महिला नेतृत्व के उभरने में बाधक बनती हैं।
  • कार्यों और परिवार का दायित्व: महिलाओं को राजनीति से दूर रखने में पुरुषों और महिलाओं के बीच घरेलू काम का असमान वितरण भी महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को परिवार में अधिक समय देना पड़ता है और घर तथा बच्चों की देखभाल का ज़िम्मा प्रायः महिलाओं को ही संभालना पड़ता है। बच्चों की आयु बढ़ने के साथ महिलाओं की ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ती जाती हैं।
  • राजनीति में रुचि का अभाव: राजनीतिक नीति-निर्धारण में रुचि न होना भी महिलाओं को राजनीति में आने से रोकता है। इसमें राजनीतिक दलों की अंदरूनी गतिविधियाँ और इज़ाफा करती हैं। राजनीतिक दलों के आतंरिक ढाँचे में कम अनुपात के कारण भी महिलाओं को अपने राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों की देखरेख के लिये संसाधन और समर्थन जुटाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
  • इसके अलावा, महिलाओं पर थोपे गए सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व भी उन्हें राजनीति में आने से रोकते हैं।

आगे की राह

  • भारत जैसे देश में मुख्यधारा की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं को भागीदारी के समान अवसर मिलने चाहिये।
  • महिलाओं को उन अवांछित बाध्यताओं से बाहर आने की पहल स्वयं करनी होगी जिनमें समाज ने जकड़ा हुआ है, जैसे कि महिलाओं को घर के भीतर रहकर काम करना चाहिये।
  • राज्य, परिवारों तथा समुदायों के लिये यह बेहद महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षा में लैंगिक अंतर को कम करना, लैंगिक आधार पर किये जाने वाले कार्यों का पुनर्निधारण करना तथा श्रम में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने जैसी महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं का समुचित समाधान निकाला जाए।
  • राज्य विधानसभाओं और संसदीय चुनावों में महिलाओं के लिये न्यूनतम सहमत प्रतिशत सुनिश्चित करने हेतु मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के लिये इसे अनिवार्य बनाने वाले भारत निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव (इसे गिल फॉर्मूला कहा जाता है) को लागू करने की आवश्यकता है। जो दल ऐसा करने में असमर्थ रहेगा उसकी मान्यता समाप्त की जा सकेगी।
  • विधायिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का आधार न केवल आरक्षण होना चाहिये, बल्कि इसके पीछे पहुँच और अवसर तथा संसाधनों का सामान वितरण उपलब्ध कराने के लिये लैंगिक समानता का माहौल भी होना चाहिये।
  • निर्वाचन आयोग की अगुवाई में राजनीतिक दलों में महिला आरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिये प्रयास किये जाने चाहिये। हालाँकि इससे विधायिका में महिलाओं की संख्या तो सुनिश्चित नहीं हो पाएगी, लेकिन जटिल असमानता को दूर करने में इससे मदद मिल सकती है।

स्रोत- द हिंदू