शाह बानो केस 1985 और भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकार | 11 Nov 2025
चर्चा में क्यों?
शाह बानो केस (1985) से प्रेरित एक हालिया बॉलीवुड फिल्म ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों और समान नागरिक संहिता (UCC) से जुड़े भारत के सबसे चर्चित न्यायिक निर्णयों में से एक पर जनता का ध्यान एक बार पुन: केंद्रित कर दिया है। यह केस व्यक्तिगत कानूनों और संवैधानिक सिद्धांतों के बीच संतुलन स्थापित करने का एक ऐतिहासिक प्रयास माना जाता है।
शाह बानो केस के निर्णय ने भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिये कानूनी परिदृश्य को कैसे प्रभावित किया?
- मामले की पृष्ठभूमि: वर्ष 1978 में शाह बानो बेगम, 62 वर्षीय मुस्लिम महिला ने अपने पति द्वारा तलाक दिये जाने के बाद CrPC की धारा 125 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023) के तहत भरण-पोषण की मांग की। यह धारा धर्म की परवाह किये बिना आश्रितों को भरण-पोषण का अधिकार सुनिश्चित करती है।
- शाह बानो के पति ने यह तर्क दिया कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के अनुसार उसकी ज़िम्मेदारी इद्दत अवधि (तलाक के बाद लगभग तीन महीने) तक ही सीमित है। हालाँकि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने शाह बानो के भरण-पोषण की राशि बढ़ा दी, जिसके विरुद्ध उसके पति ने सर्वोच्च न्यायालय (SC) में अपील दायर की।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (1985): पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से शाह बानो के पक्ष में निर्णय दिया तथा दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 को एक पंथनिरपेक्ष कानून घोषित किया जो मुस्लिम महिलाओं सहित सभी पर लागू होती है।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि शाह बानो को इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण का अधिकार है और यह खेद व्यक्त किया कि अनुच्छेद 44 (UCC) “मृत-पत्र” बना हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 44 के क्रियान्वयन न होने की आलोचना की, जो समान नागरिक संहिता की वकालत करता है।
- न्यायालय ने तलाक के बाद भी भरण-पोषण जारी रखने के समर्थन में कुरान का उल्लेख किया।
- प्रतिघात और विधायी प्रतिक्रिया (1986): रूढ़िवादी मुस्लिम समूहों के विरोध का सामना करते हुए, सरकार ने मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया।
- इस अधिनियम ने शाह बानो के पति की ज़िम्मेदारी को इद्दत अवधि तक सीमित करके और दीर्घकालिक भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी महिला के परिजनों या वक्फ बोर्ड पर स्थानांतरित करके सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को कमज़ोर कर दिया।
- डैनियल लतीफी मामले (2001) में पुनः पुष्टि: वर्ष 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1986 के अधिनियम को बरकरार रखा, जब डैनियल लतीफी (शाह बानो के वकील) ने डैनियल लतीफी मामले, 2001 में इसकी वैधता को चुनौती दी।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि पति को इद्दत अवधि के भीतर एकमुश्त भुगतान करना होगा ताकि महिला की भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, जिससे शाह बानो निर्णय की भावना संरक्षित रहे।
- मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य मामला, 2024: सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि 1986 का अधिनियम दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को रद्द नहीं करता है, जिससे तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएँ भरण-पोषण के लिये किसी एक या दोनों कानूनों के अंतर्गत आवेदन कर सकती हैं।
- शाह बानो मामले (1985) का महत्त्व: इसने कानूनी स्पष्टता को बहाल किया, न्याय तक पहुँच को सुदृढ़ किया, मुस्लिम महिलाओं के लिये संवैधानिक समानता सुनिश्चित की और भारतीय भरण-पोषण कानून के पंथनिरपेक्ष स्वरूप को पुनः पुष्ट किया।
- यह मामला आज भी भारत की संवैधानिक यात्रा को प्रभावित करता है, क्योंकि यह आस्था बनाम समता, कानून बनाम राजनीति और धर्म बनाम सुधार के बीच के तनावों को उजागर करता है।
समान नागरिक संहिता (UCC)
- परिचय: समान नागरिक संहिता (UCC), जो संविधान के राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 44 में उल्लिखित है, पूरे भारत के सभी नागरिकों के लिये समान नागरिक कानूनों के एक सामान्य समूह की परिकल्पना करती है।
- हालाँकि इसका कार्यान्वयन सरकार के लिये विवेकाधीन है, अनिवार्य नहीं।
- ऐतिहासिक संदर्भ: ब्रिटिश काल में समान आपराधिक कानून लागू किये गए थे, लेकिन धार्मिक संवेदनशीलताओं के कारण पारिवारिक कानूनों को अछूता छोड़ दिया गया।
- संविधान सभा में मुस्लिम सदस्यों ने व्यक्तिगत कानूनों के संरक्षण की मांग की, जबकि के.एम. मुंशी, अल्लादी कृष्णास्वामी और बी.आर. अंबेडकर ने समता और राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने के लिये समान नागरिक संहिता (UCC) का समर्थन किया।
- भारत में समान नागरिक संहिता (UCC): 2018 में 21वें विधि आयोग ने “पारिवारिक कानून में सुधार” पर एक परामर्श-पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया कि “वर्तमान चरण में समान नागरिक संहिता का निर्माण न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।”
- गोवा 1867 के पुर्तगाली सिविल कोड के तहत समान नागरिक संहिता (UCC) का पालन करता है, जबकि उत्तराखंड अपना स्वयं का समान नागरिक संहिता लागू करने वाला पहला भारतीय राज्य है।
- समान नागरिक संहिता (UCC) को प्रोत्साहित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:
- सरला मुद्गल मामला, 1995: इस मामले में धार्मिक परिवर्तन और बहुविवाह से संबंधित मुद्दों पर विचार किया गया, साथ ही समान नागरिक संहिता (UCC) के महत्त्व पर भी ज़ोर दिया गया।
- लिली थॉमस मामला, 2013: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक हिंदू व्यक्ति इस्लाम धर्म अपनाने के बाद अपनी मौजूदा शादी को समाप्त किये बिना पुनर्विवाह नहीं कर सकता है, जिससे द्विविवाह कानूनों से बचने के लिये धर्मांतरण के दुरुपयोग पर रोक लग गई।
- शायरा बानो मामला, 2017: सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 2019 लागू हुआ, जो तत्काल तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को अपराध बनाता है।
- जोस पाउलो कॉउटिन्हो केस, 2019: न्यायालय ने गोवा को एक "उज्ज्वल उदाहरण" के रूप में सराहा और कहा कि पुर्तगाली नागरिक संहिता, 1867, जो राज्य में लागू होती है, गोवा के बाहर या भारत में कहीं और स्थित संपत्तियों के लिये गोवा के निवासियों के उत्तराधिकार तथा विरासत के अधिकारों को भी नियंत्रित करती है।
निष्कर्ष
शाह बानो मामला और उसके बाद के कानून भारत में व्यक्तिगत कानूनों और संवैधानिक समानता के बीच संघर्ष को उजागर करते हैं। राजनीतिक प्रतिरोध के बावजूद, न्यायालयों ने महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकारों को बरकरार रखा तथा धर्मनिरपेक्षता, लैंगिक न्याय एवं समान नागरिक संहिता पर सुधार व संवाद की आवश्यकता पर चल रहे तनाव को रेखांकित किया।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. "न्यायिक हस्तक्षेप धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित किये बिना संवैधानिक नैतिकता को आगे बढ़ा सकता है।" इसका आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। |
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
1. शाह बानो मामले में मुख्य कानूनी मुद्दा क्या था?
यह मामला इस बात पर केंद्रित था कि क्या एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला CrPC की धर्मनिरपेक्ष धारा 125 के तहत इद्दत अवधि के बाद भी भरण-पोषण का दावा कर सकती है, या मुस्लिम पर्सनल लॉ पति के दायित्व को सीमित करता है।
2. समान नागरिक संहिता (UCC) का संवैधानिक आधार क्या है?
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44, जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का एक भाग है, राज्य को पूरे भारत में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का निर्देश देता है।
3. दानियाल लतीफी (2001) के फैसले ने वर्ष 1986 के अधिनियम को किस प्रकार प्रभावित किया है?
दानियाल लतीफी (2001) में सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम को बरकरार रखा, लेकिन इसकी व्याख्या इद्दत के दौरान एक बार के "उचित और निष्पक्ष प्रावधान" की आवश्यकता के रूप में की, जिससे प्रभावी रूप से दीर्घकालिक भरण-पोषण सुनिश्चित हुआ—शाह बानो की भावना को संरक्षित करते हुए।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)
प्रिलिम्स:
प्रश्न. भारत के संविधान में निहित राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत निम्नलिखित प्रावधानों पर विचार कीजिये: (2012)
- भारत के नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करना
- ग्राम पंचायतों का गठन
- ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना
- सभी श्रमिकों के लिये उचित अवकाश और सांस्कृतिक अवसर सुरक्षित करना
उपर्युक्त में से कौन-से गांधीवादी सिद्धांत हैं जो राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में परिलक्षित होते हैं?
(a) केवल 1, 2 और 4
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
उत्तर: (b)
मेन्स:
प्रश्न. उन संभावित कारकों पर चर्चा कीजिये, जो भारत को अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने से रोकते हैं, जैसा कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में प्रदान किया गया है। (2015)