एलजीबीटीआईक्यू+ व्यक्तियों के अधिकार | 26 May 2022

प्रिलिम्स के लिये:

ILO, संयुक्त राष्ट्र, आईपीसी, मौलिक अधिकार, IPC 

मेन्स के लिये:

ट्रांसजेंडर से संबंधित मुद्दे, सामाजिक सशक्तीकरण 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने ‘वर्ल्ड ऑफ वर्क’ में एलजीबीटीआईक्यू+ (LGBTIQ+) व्यक्तियों को शामिल करने के लिये एक दस्तावेज़ जारी किया। यह कार्य प्राप्त करने के अधिकार पर LGBTIQ+ व्यक्तियों के लिये समान अवसर और उपचार सुनिश्चित करने हेतु कुछ सिफारिशें प्रदान करता है। 

  • LGBTIQ का मतलब लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, इंटर-सेक्स और क्वीर है।
  • प्लस साइन विविध SOGIESC लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। कुछ संदर्भों में विशेष आबादी को संदर्भित करने के लिये एलजीबी, एलजीबीटी या एलजीबीटीआई शब्द का उपयोग किया जाता है।
    • SOGIESC शब्द यौन अभिविन्यास, लिंग पहचान, लिंग अभिव्यक्ति और यौन विशेषताओं को संदर्भित करता है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन: 

  • यह संयुक्त राष्ट्र की एकमात्र त्रिपक्षीय संस्था है। यह श्रम मानक निर्धारित करने, नीतियाँ को विकसित करने एवं सभी महिलाओं तथा पुरुषों के लिये सभ्य कार्य को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम तैयार करने हेतु 187 सदस्य देशों की सरकारों, नियोक्ताओं और श्रमिकों को एक साथ लाता है।
    • वर्ष 1969 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।
  • वर्ष 1919 में वर्साय की संधि द्वारा राष्ट्र संघ की एक संबद्ध एजेंसी के रूप में इसकी स्थापना हुई।
  • वर्ष 1946 में यह संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध पहली विशिष्ट एजेंसी बन गया।
  • मुख्यालय: जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड

अनुशंसाएँ:

  • राष्ट्रीय नीति और श्रम कानून की समीक्षा: 
    • राष्ट्रीय नीति और श्रम कानून की समीक्षा सरकारों को एलजीबीटीआईक्यू+ व्यक्तियों के लिये अपने देश की कार्य नीति के माहौल का आकलन करने की अनुमति देगी।
    • ह कानूनी और नीतिगत माहौल में सुधार, भेदभाव और बहिष्कार को समाप्त करने, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय उपकरणों के अनुपालन के लिये उचित पहलों की पहचान करने की अनुमति देगा।
      • LGBTIQ+ लोगों को उनके यौन अभिविन्यास, लिंग पहचान, लिंग अभिव्यक्ति और यौन विशेषताओं के कारण विश्व भर में उत्पीड़न, हिंसा तथा भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
      • भेदभाव न केवल LGBTIQ+ व्यक्तियों एवं उनके परिवारों के लिये बल्कि उद्यमों और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के लिये भी हानिकारक है।
  • सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम:
    • इसने सदस्य देशों, नियोक्ता संगठनों और श्रमिकों के प्रतिनिधियों को समाज में LGBTIQ+ व्यक्तियों के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिये सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम शुरू करने की सिफारिश की।
  • परामर्श की सुविधा:
    • नियोक्ताओं और श्रमिक संगठनों के साथ सामाजिक संवाद के अलावा LGBTIQ+ समुदायों के साथ परामर्श किया जाना आवश्यक है।
      • यह LGBTIQ+ व्यक्तियों को श्रम बाज़ार में प्रवेश करने और सामाजिक सुरक्षा सहित सरकारी योजनाओं तक पहुँचने में आने वाली बाधाओं की पहचान करने की अनुमति देगा।
  • लघु और मध्यम उद्योग संघों के साथ कार्य:
    • लिंग और यौन पहचान जैसे भेदभाव एवं कलंक को दूर करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने सरकारों को छोटे एवं मध्यम क्षेत्र के संघों, क्षेत्रीय संघों तथा अनौपचारिक अर्थव्यवस्था वाले श्रमिक संघों के साथ काम करने के लिये प्रोत्साहित किया।
  • कार्यस्थल पर यौन भेदभाव का अंत:
    • कार्यस्थल में यौन भेदभाव को समाप्त करने एवं LGBTIQ+ को कार्यस्थल में शामिल करने  के लिये नियोक्ता संगठनों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
      • अध्ययनों के अनुसार, LGBTIQ+ व्यक्तियों सहित कार्यस्थल में विविधता का होना व्यवसायों के लिये बेहतर हो सकता है।
      • यह एक रचनात्मक वातावरण का संकेत देता है जो आर्थिक विकास के लिये सही परिस्थितियों का निर्माण करता है। 
      • नियोक्ता संगठन अपने सदस्यों को नीतिगत मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं, पक्षपोषण कर सकते हैं तथा कार्यस्थलों में LGBTIQ+ व्यक्तियों को शामिल करके जागरूकता बढ़ा सकते हैं, सामाजिक संवाद और सामूहिक सौदेबाज़ी को बढ़ावा दे सकते हैं एवं सदस्यों के बीच अच्छी प्रथाओं को सीखने व साझा करने की सुविधा प्रदान कर सकते हैं।
  • संगठन की स्वतंत्रता के अधिकार को व्यवस्थित और प्रयोग करना:
    • ILO ने यूनियनों से LGBTIQ+ श्रमिकों को संगठित करने तथा उनके संघ की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रयोग में मदद करने के लिये कहा है। 
      • श्रमिक संघ यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि LGBTIQ + श्रमिकों को प्रभावित करने वाले मुद्दों का प्रतिनिधित्व नियोक्ताओं के साथ सामूहिक सौदेबाज़ी समझौतों और कार्यस्थल पर नीतियों तथा अन्य उपकरणों के रूप में किया जाए।
      • कई LGBTIQ+ कार्यकर्त्ता, विशेष रूप से छोटे कार्यस्थलों में अपने LGBTIQ+ साथियों या सहयोगियों के बिना अलग-थलग महसूस कर सकते हैं।

भारत में LGBTIQ+ समुदाय की स्थिति: 

  • राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘ट्रांसजेंडरों को ‘तीसरे लिंग’ के रूप में मान्यता देना एक सामाजिक या चिकित्सा मुद्दा नहीं है, बल्कि मानवाधिकार का मुद्दा है।’ 
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 के कुछ हिस्सों को हटाकर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, जिन्हें LGBTQ समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना जाता था।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है जो LGBTQ समुदाय की 'समावेशिता' को साकार करते हुए नागरिकों के सभी वर्गों पर लागू होता है।
    • इसने भारत में संवैधानिक नैतिकता की श्रेष्ठता को यह मानते हुए भी बरकरार रखा कि कानून के समक्ष समानता को सार्वजनिक या धार्मिक नैतिकता को वरीयता देकर नकारा नहीं जा सकता।
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, 'यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के मुद्दों के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय कानून के आवेदन पर योग्याकार्ता सिद्धांत' को भारतीय कानून के एक भाग के रूप में लागू किया जाना चाहिये।
      • ‘योग्याकार्ता सिद्धांत’ मानव अधिकारों के हिस्से के रूप में यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान की स्वतंत्रता को मान्यता देते हैं।
      • इन्हें वर्ष 2006 में इंडोनेशिया के योग्याकार्ता में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विशेषज्ञों के विशिष्ट समूह द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
  • समलैंगिक विवाह पर विवाद: शफीन जहान बनाम असोकन के.एम. और अन्य (2018) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि साथी का चुनाव करना एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, जो  समलैंगिक जोड़ों पर भी लागू हो सकता है।
    • हालाँकि फरवरी 2021 में केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह का विरोध करते हुए कहा कि भारत में एक विवाह को तभी मान्यता दी जा सकती है जब वह "जैविक पुरुष" और बच्चे पैदा करने में सक्षम "जैविक महिला" के बीच हो।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019: संसद द्वारा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 पारित किया गया, जिसमें लिंग और लेैंगिक पहचान जैसी संकीर्ण सोच की आलोचना की गई।

स्रोत:द हिंदू