आरक्षण का लाभ वास्तविक लाभार्थियों को नहीं | 23 Apr 2020

प्रीलिम्स के लिये:

संवैधानिक पीठ, आरक्षण संबंधी प्रमुख निर्णय 

मेन्स के लिये:

आरक्षण व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्रप्रदेश राज्यपाल के उस आदेश को असंवैधानिक घोषित किया जिसमें ‘अनुसूचित क्षेत्रों’ में स्कूल शिक्षकों के पदों पर ‘अनुसूचित जनजाति’ (Scheduled Tribes- STs) के उम्मीदवारों को 100% आरक्षण प्रदान करने का प्रावधान किया गया था। 

मुख्य बिंदु: 

  • पाँच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ का गठन आंध्र प्रदेश राज्य के तत्कालीन राज्यपाल द्वारा जनवरी 2000 में जारी की गई अधिसूचना को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई करने के लिये किया गया था।
  • हालाँकि परिस्थितियों को देखते हुए संवैधानिक पीठ ने आंध्र प्रदेश के इस नियुक्ति आदेश को रद्द नहीं किया है लेकिन भविष्य में इस तरह के प्रावधान नहीं करने को कहा है।

संवैधानिक पीठ: 

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के अनुसार, संविधान की व्याख्या के रूप में यदि विधि का कोई सारवान प्रश्न निहित हो तो उसका विनिश्चय करने अथवा अनुच्छेद 143 के अधीन मामलों की सुनवाई के प्रयोजन के लिये संवैधानिक पीठ का गठन किया जाएगा जिसमें कम-से-कम पाँच न्यायाधीश होंगे। 
  • हालाँकि इसमें पाँच से अधिक न्यायाधीश भी हो सकते हैं जैसे- केशवानंद भारती केस में गठित संवैधानिक पीठ में 13 न्यायाधीश थे।

आंध्र प्रदेश सरकार का पक्ष:

  • अनुसूचित क्षेत्रों में 100% आरक्षण प्रदान करने के पीछे सरकार द्वारा यह तर्क दिया गया कि- "आदिवासियों को केवल आदिवासियों द्वारा ही शिक्षा देनी चाहिये।" 
  • पीठ ने सरकार के पक्ष को इस आधार पर खारिज कर दिया कि जब अन्य स्थानीय निवासी जनजातीय क्षेत्र में रह रहे हैं तो वे भी इन आदिवासियों को पढ़ा सकते हैं।

आरक्षण व्यवस्था पर चिंता:

  • पाँच जजों की संविधान पीठ ने ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (Other Backward Classes- OBCs), ‘अनुसूचित जाति’ (Scheduled Castes- SCs तथा ‘अनुसूचित जनजाति’ (Scheduled Tribes- STs) वर्गों में आरक्षण व्यवस्था पर चिंता व्यक्त की है।
  • पीठ के अनुसार OBCs/STs/SCs वर्गों में भी अनेक सामाजिक और आर्थिक रूप से उन्नत उपवर्ग हैं जिनकी वजह से आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्गों के सभी लोगों को नहीं मिल पा रहा है।

आरक्षण सूची में संशोधन:

  • संवैधानिक पीठ ने इस बात पर सहमति व्यक्त की है कि आरक्षण के हकदार लोगों की आरक्षण सूचियों को समय-समय पर संशोधित किया जाना चाहिये।
  • सूचियों का अद्यतन, आरक्षण व्यवस्था में बदलाव किये बिना जा सकता है अर्थात किसी वर्ग को प्रदान किये गए आरक्षण के कुल प्रतिशत में किसी प्रकार की कमी न की जाए। 

आरक्षण सूची में संशोधन का लाभ:

  • प्रथम, वे वर्ग इस सूची से बाहर हो जाएँगे जो पिछले 70 वर्षों से आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
  • द्वितीय, आरक्षण सूची में बाद में शामिल किये गए वर्ग; जो वास्तव में आरक्षण के हकदार नहीं थे, बाहर हो जाएँगे। 
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह कि सरकार इस तरह की कवायद करने के लिए बाध्य है क्योंकि ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले’ के निर्णय के अनुसार ऐसा करना संवैधानिक रूप से परिकल्पित है।

आरक्षण प्रणाली के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या : 

  • संवैधानिक पीठ के अनुसार अनुसूचित जनजातियों को 100% आरक्षण देने से अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को उनके उचित प्रतिनिधित्त्व से भी वंचित किया गया है। 
  • आरक्षण की अवधारणा समानुपाती नहीं, बल्कि पर्याप्त (Not Proportionate but Adequate) पर आधारित है, अर्थात आरक्षण का लाभ जनसंख्या के अनुपात में न होकर, पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व प्रदान करने के लिये है।
  • इस प्रकार कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के प्रावधानों का उल्लंघन करती है। 
  • आरक्षण प्रदान करते समय मेरिट को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
  • राज्यपाल का निर्णय कानून से ऊपर नहीं हो सकता, अत: असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये (इंदिरा साहनी वाद का निर्णय)।  

निष्कर्ष:

  • भारतीय समाज विशेषकर पिछड़े वर्ग के विकास में आरक्षण की भूमिका को पहचानने की ज़रूरत है। आवश्यक है कि विषय से संबंधित विभिन्न हितधारकों से विचार-विमर्श किया जाए और यथासंभव एक संतुलित मार्ग की खोज की जाए।

स्रोत: इंडियन एक्स्प्रेस