विकेंद्रीकृत खरीद योजना में सुधार | 21 Dec 2017

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक उच्च स्तरीय समिति द्वारा नीति आयोग से अनाज की खरीद में प्रयोग की जाने वाली प्रवृत्तियों का अध्ययन करने, उस पर विकेंद्रीकृत खरीद योजना (Decentralized Procurement Scheme - DCP) प्रणाली के प्रभाव का आकलन करने और इस योजना के तहत खरीद एजेंसियों की दक्षता तथा प्रभावशीलता का आकलन करने का अनुरोध किया गया है।  

प्रमुख बिंदु

  • गैर- विकेंद्रीकृत खरीद वाले राज्यों को नियमित रूप से अनाज हेतु विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली लेने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। हालाँकि, यह योजना संबंधित राज्य की सहमति से ही लागू होती है। 
  • वर्तमान में 15 राज्यों ने चावल की खरीद के लिये डीसीपी मोड को अपनाया है (जिनमें से झारखंड ने आंशिक रूप से पाँच राजस्व ज़िलों के लिये डीसीपी को संचालित किया है)। 
  • इसके अलावा 8 राज्यों ने गेहूँ की खरीद के लिये डीसीपी मोड को अपनाया है, जिनमें से राजस्थान ने 9 ज़िलों के लिये आंशिक रूप से डीसीपी ऑपरेशन को अपनाया है। 
  • हालाँकि, राजस्थान को केन्द्रीय खरीद में केवल आरएमएस (Rabi Marketing Season) 2017-18 के लिये शामिल किया गया है। 

एक उच्च स्तरीय समिति

  • इस संबंध में श्री शांता कुमार की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति (एचएलसी) की स्थापना की गई थी, ताकि अनाज, विपणन, भंडारण, संरक्षण और वितरण की खरीद संबंधी मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा की जा सके।

इस समिति की सिफारिशों के आधार पर निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य किये गए: -

⇒ चावल के चक्कियों पर करारोपण को समाप्त कर दिया गया है।
⇒ एन.डब्ल्यू.आर. (Negotiable Warehouse Receipts (NWRs) के पंजीकरण के नियम संबंधी कार्यों को सुव्यवस्थित करने और एन.डब्ल्यू.आर. के उपयोग में वृद्धि के लिये आवश्यक संशोधन किये गए हैं।
⇒ वर्तमान में 526 एफ.सी.आई. गोदामों में डी.ओ.एस. (Depot Online System - DOS) को चालू किया गया है।
⇒ पूर्वी राज्यों में धान की खरीद पर विशेष ध्यान दिया गया है, जिसके परिणामस्वरूप के.एम.एस.  (Kharif Market Season) 2016-17 में चावल की खरीद में 70.70 लाख मीट्रिक टन तक की वृद्धि हुई है। के.एम.एस. 2015-16 में यह मात्र 53.65 लाख मीट्रिक टन ही थी। 
⇒ भारत सरकार ने 2019-20 तक 100 एल.एम.टी. सिलो (LMT silos) के निर्माण के लिये कार्य योजना को मंजू़री दे दी है।
⇒ इसके अतिरिक्त अधिशेष राज्यों की स्थिति में एम.एस.पी. पर और अधिक बोनस की घोषणा करते हुए केन्द्रीय पूल (Central Pool) में चावल/गेहूँ की गैर-स्वीकृति के संबंध में भी नीतिगत निर्णय लिये गए हैं।

विकेंद्रीकृत खरीद योजना (Decentralized Procurement Scheme) क्या है?

  • खाद्यान्नों की खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की कार्यकुशलता में वृद्धि करने तथा स्थानीय किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ देकर अधिकतम सीमा तक स्थानीय खरीद को प्रोत्साहित करने और ढुलाई की लागत में बचत करने के उद्देश्य से सरकार ने वर्ष 1997-98 में खाद्यान्नों की ‘विकेंद्रीकृत खरीद योजना’ की शुरुआत की थी। 
  • इस योजना के तहत उन खाद्यान्नों की खरीद की जाती है, जो स्थानीय तौर पर अधिक पसंद किये जाते हैं। 
  • इसमें राज्य सरकार स्वयं, भारत सरकार की ओर से धान और गेहूँ की सीधे खरीद करती है तथा लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) एवं अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत इन खाद्यान्नों के भंडारण और वितरण का कार्य भी करती है। 
  • केंद्र सरकार, अनुमोदित लागत के अनुसार राज्य सरकारों द्वारा खरीद कार्यों पर वहन किये गए सभी व्ययों को पूरा करती है। 
  • केन्द्र सरकार इस योजना के अधीन खरीदे गए खाद्यान्नों की गुणवत्ता की मॉनीटरिंग भी करती है तथा यह सुनिश्चित करने के लिये कि खरीद कार्य सुचारु रूप से संचालित हो, प्रबंधों की समीक्षा भी करती है। 
  • ध्यातव्य है कि यह योजना ‘उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक मंत्रालय’ के अधीन कार्यरत ‘खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग’ के द्वारा संचालित की जाती है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य   

  • प्रथम: न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की अवधारणा ने बाज़ार को विकृत कर दिया है। यह धान और गेहूँ के लिये प्रभावी है, जबकि यह अन्य फसलों के लिये केवल संकेत है।  

⇒ एमएसपी को बाज़ार की गतिशीलता के साथ जोड़ने के बजाय, किसानों के हितों के अनुरूप बढ़ाने से कीमत निर्धारण प्रणाली विकृत हो गई है। इसलिये, जब सोयाबीन की एमएसपी बढ़ती है, तब बाज़ार की कीमतों में बढ़ोतरी होगी, भले ही फसल अच्छी हो, क्योंकि एमएसपी एक बेंचमार्क तय करती है। 
⇒ एमएसपी एक उचित बाज़ार मूल्य बनने के बजाय आय-निर्धारित करने वाली बन जाती है। इसका मुद्रास्फीति में भी योगदान है। 

  • दूसरा: सरकार द्वारा एमएसपी के नीचे होने वाली बिक्री को अपराध ठहराने की इच्छा का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि एमएसपी विभिन्न वर्गों के बीच अंतर नहीं करती है, बल्कि यह एक औसत उचित गुणवत्ता को संदर्भित करती है।

⇒ उच्च गुणवत्ता की फसल को आधार मूल्य पर बिक्री के लिये बाध्य करने से किसानों और व्यापारियों दोनों की स्थिति एक जैसी हो जाती है। 
⇒ ऐसी नीतियाँ किसानों को अपने मानकों को कम करने और निम्न किस्मों के उत्पादन के लिये प्रेरित करेंगी जिससे क्रेता कम गुणवत्ता वाले अनाज के लिये उच्च मूल्य का भुगतान करने का अनिच्छुक होगा और इससे गतिरोध हो सकता है।

  • तीसरा: धान और गेहूँ के लिये खरीद तय की गई है, जो सीधे पीडीएस से जुड़ी हुई है। एक के पीछे एक व्यवस्था अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन यह कुछ विशिष्ट फसलों तक सीमित होती है। 

⇒ इसके अलावा, एक खुली समाप्ति योजना (ओपन एंडेड स्कीम) होने पर एफसीआई के पास अधिशेष अनाज का बाढ़ आ जाता है, जिससे भंडारण और अपव्यय की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। 
⇒ अतीत में यह देखा गया है कि दालों, चीनी और तिलहन के उत्पादन में तेज़ी आने से बाज़ार की कीमतें डगमगा जाती हैं। इसलिये ऐसी सभी भेद्य (vulnerable) वस्तुओं का न्यूनतम स्टॉक बनाए रखने की आवश्यकता है। यदि इसे अर्थपूर्ण बनाना है तो अन्य वस्तुओं के लिये भी खरीद और मूल्य स्थिरीकरण के उपाय किये जाने चाहिये। 

  • चौथा: थोक व्यापारी और फुटकर विक्रेता द्वारा जमा की जाने वाली राशि को प्रतिबंधित करने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसी भी समय लागू किया जा सकता है। चूँकि यह अवधारणा सही लगती है, क्योंकि यह जमाखोरी से निपट सकती है। परन्तु, जो बात भुला दी जाती है वह यह है कि अधिकांश फसलें वर्ष में एक बार ही काटी जाती हैं और शेष वर्ष के लिये संगृहीत की जाती हैं।  

⇒  किसी न किसी को फसल का भण्डारण करना ही पड़ता है, अन्यथा इसे उपभोक्ताओं के लिये पूरे वर्ष उपलब्ध नहीं किया जा सकता है। 
⇒  इसमें गुणवत्ता के नुकसान के जोखिम के साथ-साथ लागत के जोखिम भी शामिल हैं, जो मध्यस्थ द्वारा वहन किया जाते हैं। 

  • पाँचवा: कृषि उत्पादों के लिये हमारी व्यापार नीति भी विकृत है। जैसे जब अन्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहता है तब फसल उत्पादन में कमी के समय, अन्न की कमी की पहचान करने और बोली प्रक्रिया के माध्यम से आयात करने में अधिक समय लग जाता है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि जब तक अन्न का आयात होता है तब तक मूल्य सामान्य हो जाता है।  

निष्कर्ष

भारत में अधिशेष गेहूँ या चावल निर्यात करने के लिये कोई नीति नहीं है। अगर फसल उत्पादन में कोई चक्रीय विफलता उत्पन्न होती है तो सरकार पर पिछले वर्षों में कमोडिटी निर्यात करने का दोष लगाया जाता है। वर्ष 2010 में चीनी के साथ ऐसा ही हुआ था। इसलिये अन्न के आयात-निर्यात एवं उनकी रणनीति को इस तरह परिभाषित किया जाना चाहिये, ताकि उनको सरलता से लागू किया जा सके।