पंजाब में एकल कृषि की समस्या | 17 Dec 2020

चर्चा में क्यों?

राजधानी दिल्ली की सीमा पर चल रहे विरोध प्रदर्शन के बीच खासतौर पर पंजाब में धान-गेहूँ की खेती की संवहनीयता पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं।

प्रमुख बिंदु

पंजाब में एकल कृषि 

  • एकल कृषि एक विशेष कृषि पद्धति है, जो कि एक विशिष्ट भूमि अथवा खेत पर एक समय में केवल एक ही प्रकार की फसल उगाने के विचार पर आधारित है। 
    • हालाँकि यहाँ यह ध्यान दिया जाना महत्त्वपूर्ण है कि एकल कृषि पद्धति केवल फसलों पर ही लागू नहीं होती है, बल्कि इसमें एक समय में विशिष्ट भूमि अथवा खेत पर केवल एक ही प्रजाति के जानवरों के प्रजनन की पद्धति भी शामिल है।
  • वर्ष 2018-19 में पंजाब का सकल कृषि क्षेत्र तकरीबन 78.30 लाख हेक्टेयर था, जिसमें से तकरीबन 35.20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र गेहूँ के लिये और तकरीबन 31.03 लाख हेक्टेयर क्षेत्र धान के लिये प्रयोग किया गया, जो कि कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 84.6 प्रतिशत था।
    • इस तरह पंजाब में गेहूँ और धान की खेती इतने व्यापक स्तर पर की जाती है जिसका खामियाजा अन्य फसलों जैसे- दाल, मक्का, बाजरा और तिलहन आदि की कमी के रूप में उठाना पड़ता है।

एकल कृषि की समस्या

  • एक ही भूमि अथवा खेत में वर्ष-दर-वर्ष एक ही प्रकार की फसल उगाने से कीट और रोगों के हमलों की संभावना बढ़ जाती है, वहीं फसल और आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होती है, कीटों और रोगजनकों के लिये फसल को नुकसान पहुँचाना उतना ही मुश्किल होता है।
  • गेहूँ एवं धान के पौधे अन्य फसलों [जैसे दाल एवं फलीदार (legumes) फसलें] के समान नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रकिया में सक्षम नहीं होते हैं। अतः फसल विविधता के बिना  निरंतर गेहूँ एवं धान की खेती करने से मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है, जिससे किसानों को रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भर होना पड़ता है।

गेंहूँ बनाम धान

  • गेंहूँ
    • यह प्राकृतिक रूप से पंजाब की मिट्टी और कृषि जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल है।
      • यह एक ठंडे मौसम की फसल है, जिसे उन स्थानों पर उगाया जा सकता है, जहाँ मार्च माह में तापमान 30 डिग्री की रेंज में रहता है।
    • इसकी खेती राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है।
      • पंजाब में प्रति हेक्टेयर औसतन 5 टन से अधिक गेहूँ का उत्पादन किया जाता है, जबकि राष्ट्रीय औसत 3.4-3.5 टन के आसपास है।
  • धान
    • धान की खेती के लिये भारी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है।
      • किसान आमतौर पर पाँच बार गेहूँ की सिंचाई करते हैं, जबकि धान के लिये 30 या उससे भी अधिक बार सिंचाई की आवश्यकता होती है।
      • धान की खेती और सिंचाई के लिये मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने संबंधी राज्य सरकार की नीति के कारण पंजाब के भूजल स्तर में प्रतिवर्ष औसतन 0.5 मीटर की गिरावट दर्ज हो रही है।
    • सरकार की इस नीति ने राज्य के किसानों को धान की लंबी अवधि की किस्मों जैसे- पूसा-44 की उपज के लिये प्रेरित किया है। 
      • पूसा-44 धान की उपज काफी अधिक होती है, किंतु इसकी अवधि काफी लंबी होती है। 
      • लंबी अवधि का अर्थ है कि मई माह के मध्य तक इसकी रोपाई की जाती है और अक्तूबर माह तक इसकी कटाई कर ली जाती है, जिससे समय रहते गेहूँ की अगली फसल की रोपाई भी हो जाती है। हालाँकि इसमें सिंचाई के लिये पानी की काफी अधिक आवश्यकता पड़ती है।

सरकार के प्रयास

  • पंजाब प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल वॉटर एक्ट, 2009 के तहत पंजाब के किसानों को प्रत्येक वर्ष 15 मई से पूर्व धान की बुवाई और 15 जून से पूर्व धान की रोपाई करने से मना किया गया है।
    • इस अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य भू-जल संरक्षण को बढ़ावा देना है।
  • संबंधित समस्याएँ
    • जब जून के मध्य में बारिश के बाद ही धान की रोपाई की अनुमति दी जाती है, तो धान की कटाई भी अक्तूबर माह के अंत तक होती है, जिससे 15 नवंबर की समय-सीमा से पूर्व गेहूँ की बुवाई के लिये काफी कम समय बचता है।
    • ऐसी स्थिति में किसानों के पास धान की पराली जलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। इस तरह पंजाब में भू-जल संरक्षण दिल्ली में वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है।

आगे की राह

  • गेहूँ की खेती के लिये एकड़ क्षेत्र को कम करने और पंजाब में मोटे अनाजों जैसी वैकल्पिक फसलों को बढ़ावा देने से इस क्षेत्र में फसल विविधीकरण संभव हो सकेगा, जिससे मिट्टी की उर्वरता में बढ़ोतरी होगी और स्थानीय लोगों की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ भी पूरी हो सकेंगी।
  • धान की खेती को पूर्वी तथा दक्षिणी राज्यों में स्थानांतरित करने, धान की फसल की केवल छोटी अवधि की किस्मों का रोपण करने और सिंचाई के लिये मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने की सरकार की नीति में कुछ संशोधन करने से एकल कृषि की समस्याओं और घटते भू-जल स्तर जैसे मुद्दों को संबोधित किया जा सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस