वैज्ञानिक परियोजनाओं एवं अनुसंधानों की प्रगति में राजनीतिक और कानूनी बाधाएँ | 12 Jan 2017

सन्दर्भ

राजनीतिक और कानूनी बाधाओं के चलते भारत वैज्ञानिक परियोजनाओं और अनुसंधान के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति नहीं कर पा रहा है| गुजरात में चल रहे वाइब्रेंट गुजरात शिखर सम्मेलन में नोबेल पुरस्कार विजेता डेविड ग्रॉस द्वारा यह बात कही गई|

प्रमुख बिंदु

  • वाइब्रेंट गुजरात वैश्विक शिखर सम्मेलन की शुरुआत वर्ष 2003 में हुई थी| इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य गुजरात में निवेश आकर्षित करना है| इसे एक  महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है जिसमें देश के शीर्ष उद्योगपतियों के अलावा कई देशों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। वर्तमान शिखर सम्मेलन का केंद्रीय विषय (Theme) “सतत् आर्थिक एवं सामाजिक विकास” है|
  • इस चार दिवसीय सम्मेलन की शुरुआत 10 जनवरी को हुई है जो 13 जनवरी तक चलेगा।
  • भारत में वैज्ञानिक परियोजनाओं और अनुसंधान की आवश्यकता पर बल देते हुए डेविड ग्रॉस ने इस सन्दर्भ में भारत की न्यूट्रिनो ओब्जरवेटरी का ज़िक्र किया| 
  • विदित हो कि केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा वर्ष 2015 में तमिलनाडु में थेनी ज़िले में एक न्यूट्रिनो वेधशाला की स्थापना संबंधी परियोजना को मंज़ूरी दी गई थी।
  • वस्तुतः यह परियोजना एक भूमिगत प्रयोगशाला बनाए जाने से संबंधित है जिसका उद्देश्य प्राथमिक कण ‘न्यूट्रिनो’ (Neutrino) पर बुनियादी अनुसंधान (Basic Research) करना है|
  • गौरतलब है तमिलनाडु के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र के अंतर्गत आने के कारण यह वेधशाला आलोचना का शिकार हो गई है| हालाँकि, वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे पर्यावरण को खतरा नहीं है लेकिन फिर भी अभी तक इसे प्रारंभ नहीं किया जा सका है|
  • इसके साथ ही डेविड ग्रॉस ने “लीगो” (Laser Interferometer Gravitational-wave Observatory - LIGO) का भी ज़िक्र किया, जिसे पृथ्वी से 1.3 प्रकाश वर्ष दूर स्थित दो ब्लैकहोल्स की टक्कर से उत्पन्न होने वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगो का पता लगाने के लिये अनुसंधान हेतु सरकार द्वारा अनुमति प्रदान की गई थी, लेकिन तब से इसमें कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकी है|  
  • इसके अतिरिक्त, सम्मेलन में उपस्थित वैज्ञानिकों ने खाद्य सुरक्षा के लिये जीएम खाद्य पदार्थों का बचाव करते हुए कहा कि अनुवांशिक रूप से संशोधित फसलों को परंपरागत फसलों के स्थान पर अधिक खतरनाक माना जाना सही नहीं है| ये वैश्विक स्तर पर व्याप्त भुखमरी की विकरालता को नियंत्रित करने में सहायक हो सकती हैं| साथ ही, इन वैज्ञानिकों द्वारा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के प्रो-जीएम स्टैंड की भी सराहना की गई|

भारत की स्थिति का मूल्यांकन 

  • भारत जैसे देश में विज्ञान की भूमिका क्‍या है, इसका कोई सरल-सा उत्तर नहीं है। हालाँकि, एक ऐसा विकासशील देश, जो गरीबी और विकास की चुनौतियों के बीच जूझ रहा हो- उसके लिये विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवीकरण की व्‍यापक और सुविचारित नीति का सबसे बड़ा उद्देश्‍य त्‍वरित, सतत् और समग्र विकास के राष्‍ट्रीय लक्ष्‍य की प्राप्ति में सहयोग देना होना चाहिये|
  • भारत, जहाँ ज्ञान और आविष्कारों की एक विकसित परंपरा विद्यमान रही, वहाँ विगत कुछ दशकों से विज्ञान जगत में भारत की स्थिति अपेक्षाकृत नीचे चली गई है और चीन जैसे देश ऊपर आ गए हैं। 
  • अब स्थिति बदल रही है, लेकिन भारत ने जो कुछ भी प्राप्‍त किया है, उससे संतुष्‍ट नहीं हुआ जा सकता। भारतीय विज्ञान की छवि बदलने के लिये बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 
  • जहाँ तक संसाधनों की बात है, भारत में सकल घरेलू उत्‍पाद का जो थोड़ा-सा ही हिस्‍सा अनुसंधान एवं विकास पर खर्च होता है।
  • सरकारी-निजी भागीदारी को बढ़ाना होगा तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्‍थाओं और उद्योगों के बीच आदान-प्रदान में वृद्धि करनी होगी। 
  • भारतीय परिस्थितियों में निजी अनुसंधान और विकास में निवेश को प्रोत्‍साहित करने के उपाय करने होंगे। अंतर्राष्‍ट्रीय संस्‍थानों के साथ भी सहयोग का विस्‍तार करना होगा।
  • इस समय सरकारी सहायता प्राप्‍त अनुसंधान और विकास कार्य मुख्‍य रूप से बुनियादी अनुसंधान के लियेकिये जा रहे हैं, न कि प्रायोगिक अनुसंधान के लिये। 
  • वस्तुतः प्रायोगिक अनुसंधान के क्षेत्र में उद्योगों से निवेश को आकर्षित करना आसान है और इसके लिये हमें अनुकूल नियम बनाने होंगे और अनुसंधान एवं विकास में सार्वजनिक–निजी भागीदारी को बढ़ावा देना होगा। 
  • अनुसंधान से नया ज्ञान प्राप्‍त होता है, लेकिन इस नए ज्ञान का उपयोग सामाजिक लाभ हेतु करने के ‍लिये हमें नई विधियों की आवश्यकता है।
  • खाद्य, ऊर्जा और जल सुरक्षा की समस्‍याओं के सर्वसाधारण तथा सर्वमान्य हल ढूँढ़ना अनुसंधान का उद्देश्‍य होना चाहिये।
  • विज्ञान से हमें यह समझने में मदद मिलनी चाहिये कि हम सतत् विकास और हरित विकास की धारणा को मूर्त रूप कैसे दें। 
  • विज्ञान को हमारी सोच को बदलने में मददगार होना चाहिये, ताकि हम अपने संसाधनों को अधिक उपयोगी कार्य में लगा सकें। 
  • प्रौद्योगिकी और प्रोसेस इंजीनियरिंग को विकास का माध्यम बनाया जाना चाहिये ताकि विकास के लाभ उन लोगों तक पहुँच सके, जिन्‍हें इनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
  • विश्‍वविद्यालयों में अनुसंधान और वैज्ञानिक उत्‍कृष्‍टता को प्रोत्‍साहन देने के लिये कई परियोजनाओं के लिये धन दिया गया है। बड़ी संख्‍या में छात्रवृत्तियाँ शुरू की गई हैं।
  • इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं कि इन प्रयासों के अच्‍छे परिणाम मिलने शुरू हो गए हैं। हालाँकि, वैज्ञानिक समुदाय इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है। 
  • जलवायु परिवर्तन की राष्‍ट्रीय कार्य योजना के अंतर्गत सरकार ने सतत् कृषि विकास, जल, ऊर्जा कुशलता, सौर ऊर्जा और वन विकास जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में राष्‍ट्रीय मिशन शुरू किये हैं। इन सभी मिशनों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की उल्लेखनीय भूमिका है। 
  • वैज्ञानिक समुदाय के अतिरिक्त राजनेताओं और उद्यमियों को भी अपने सम्मिलित ज्ञान और विवेक से इन महत्त्वपूर्ण मिशनों की सफलता में योगदान देना चाहिये। 
  • इस सन्दर्भ में हमें  अंतर्राष्‍ट्रीय संस्‍थानों के साथ भी सहयोग का विस्‍तार करना होगा।

निष्कर्ष

इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि एक तरफ जहाँ देश में इस तरह की कई आकर्षक परियोजनाओं को स्वीकृत अथवा अनुमोदित किया गया है, वहीं वित्तपोषण के स्तर पर तथा कानूनी रूप से ये परियोजनाएँ कई चुनौतियों से घिरी हुई हैं | ये बाधाएँ मुख्यतः पर्यावरणीय चिंताओं से सम्बंधित होने की बजाय राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी के फलस्वरूप उत्पन्न होती प्रतीत होती हैं| भारत में विद्यमान इस प्रवृत्ति को ग्रॉस ने ‘अक्षम्य’ राजनीतिक और कानूनी देरी (inexcusable’ political and legal delay) कहा है जिसके चलते कई अद्भुत अवसर गँवाए जा रहे हैं | अतः भारत को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की प्रगति को संभव बनाने के लिये इन नकारात्मक तत्त्वों को जड़ से मिटाना होगा|