प्ली बारगेनिंग | 24 Jul 2020

प्रीलिम्स के लिये:

प्ली बारगेनिंग, तब्लीगी जमात 

मेन्स के लिये:

भारत में प्ली बारगेनिंग का उपयोग एवं इसका महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में विभिन्न देशों से संबंधित तब्लीगी जमात के कई सदस्यों को ‘प्ली बारगेनिंग’/दलील सौदेबाज़ी (Plea Bargaining) प्रक्रिया के माध्यम से अदालती मामलों से रिहा/मुक्त कर दिया गया है।

प्रमुख बिंदु:

  • इन विदेशी नागरिकों पर कोविड-19 महामारी के दौरान जारी दिशा-निर्देशों और वीज़ा शर्तों का उल्लंघन करने का आरोप था।
  • इन आरोपों के निपटान में ‘प्ली बारगेनिंग’ इस्तेमाल किया गया ताकि ट्रायल में लगने वाले समय को बचाया जा सके। हालाँकि भारत में एक दशक से अधिक समय से आपराधिक मामलों में फंसे आरोपियों के पास ‘प्ली बारगेनिंग’ का विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद इसका प्रयोग अभी भी सामान्य/आम नहीं है।

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प्ली बारगेनिंग क्या है?

  • एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें किसी दंडनीय अपराध के लिये आरोपित व्यक्ति अपना अपराध स्वीकार कर ‘प्ली बारगेनिंग’ की प्रक्रिया के माध्यम से कानून के तहत निर्धारित सज़ा से कम सज़ा प्राप्त करने के लिये अभियोजन से सहायता लेता है।
  • इसमें मुख्य रूप से अभियुक्त (Accused) और अभियोजक (Prosecutor) के बीच ट्रायल के पूर्व वार्ता (Pre-trial Negotiations) को शामिल किया जाता है।

भारत में क्या प्रावधान है? 

  • वर्ष 2006 तक भारत में ‘प्ली बारगेनिंग’ की अवधारणा कानून का हिस्सा नहीं थी। 
  • भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure) में एक अभियुक्त के पास एक पूर्ण मुकदमे की पैरवी करने के बजाय ‘दोषी’ की पैरवी करने का प्रावधान है, हालाँकि यह ‘प्ली बारगेनिंग’ के समान नहीं है।
  • भारत विधि आयोग ने अपनी 142वीं रिपोर्ट में, उन लोगों के लिये ‘रियायती उपचार’ (Concessional Treatment) प्रक्रिया पर विचार विमर्श प्रस्तुत किया है जो स्वयं को अपनी इच्छा से ‘दोषी’ मानते हैं लेकिन विधि आयोग द्वारा इस बात के प्रति भी सावधानी बरती गई है कि इसमें अभियोजन के साथ कोई सौदेबाजी/बारगेनिंग शामिल नहीं होनी चाहिये।
  • वर्ष 2006 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code- CrPC) के अध्याय XXI-A में संशोधन कर ‘प्ली बारगेनिंग’ को एक भाग के रूप में शामिल किया गया।
    •  इसमें धारा 265A से 265L को शामिल किया गया है।

किन परिस्थितियों में इसकी अनुमति है? 

  • अमेरिकी और अन्य देशों के विपरीत, जहाँ अभियोजक संदिग्ध अपराधी के साथ बारगेनिंग/सौदेबाजी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, भारतीय सहिता में एक ऐसी प्रक्रिया की दलील प्रस्तुत की गई है जिसे केवल आरोपी द्वारा ही शुरू किया जा सकता है। 
  • अभियुक्त को ‘प्ली बारगेनिंग’ के लिये अदालत में आवेदन प्रस्तुत करना होगा।
  • भारत में बहुत ही सीमित मामलों के लिये ‘प्ली बारगेनिंग’ के अभ्यास की अनुमति है, केवल एक ऐसा अपराधी जिसे मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक की सज़ा दी गई है, वह अध्याय XXI-A के तहत ‘प्ली बारगेनिंग’ का उपयोग नहीं कर सकता है।
  • यह उन निजी शिकायतों पर भी लागू होता है जिन्हें एक आपराधिक अदालत द्वारा संज्ञान में लिया गया है।
  • कुछ ऐसे मामलें भी हैं जिनका दलीलों के माध्यम से निपटारा नहीं किया जा सकता है जिनमें शामिल है-
    • देश की ‘सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों’ को प्रभावित करने वाले अपराध।
    • 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे या किसी महिला के विरुद्ध किया गया कोई अपराध।

यह कैसे कार्य करता है?

  • आवेदक अदालत में एक याचिका एवं हलफनामा प्रस्तुत करता है। इस याचिका एवं हलफनामे में आवेदक द्वारा इस बात की जानकारी दी जाती है कि याचिकाकर्त्ता स्वेच्छा से इसे प्राथमिकता दे रहा है और वह अपराध के लिये कानून में प्रदान की गई सज़ा की प्रकृति और प्रभाव को समझता है।
  • इसके बाद अदालत अभियोजक और शिकायतकर्त्ता या पीड़ित को सुनवाई के लिये नोटिस जारी करती है।
  • आवेदन की स्वैच्छिक प्रकृति का निर्धारण न्यायाधीश द्वारा कैमरे के समक्ष किया जाता है जहाँ दूसरा पक्ष मौजूद नहीं होता है।
  • इसके बाद अदालत अभियोजक, जाँच अधिकारी और पीड़ित को ‘मामले के संतोषजनक निपटान’ के लिये बैठक आयोजित करने की अनुमति देती है जिसमें आरोपी द्वारा पीड़ित को मुआवज़े का भुगतान और अन्य खर्च देना होता है।
  • एक बार आपसी संतुष्टि हो जाने के बाद, अदालत सभी पक्षों और पीठासीन अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित एक रिपोर्ट के माध्यम से व्यवस्था को औपचारिक बना देती है। 
    • आरोपी को एक निश्चित अवधि के कारावास की सज़ा हो सकती है जो अपराध के लिये निर्धारित मूल सज़ा की अवधि की आधी होती है। 
    • यदि किस अपराध के संदर्भ में सज़ा की कोई न्यूनतम अवधि निर्धारित नहीं है, तो कानून में निर्धारित अधिकतम सज़ा की एक-चौथाई अवधि तक की सज़ा दी जाती है।
  • प्ली बारगेनिंग के पक्ष और विपक्ष में तर्क
  • पक्ष
    • अपराधिक न्याय प्रणाली के सुधारों पर वर्ष 2000 में गठित जस्टिस मलिमथ कमेटी ने प्ली बारगेनिंग के संबंध में विधि आयोग की विभिन्न सिफारिशों का समर्थन किया।
      • आपराधिक मामलों के परिणाम पर बनी रहने वाली अनिश्चितता की स्थिति को खत्म करना संभव होगा।
      • मामलों की सुनवाई में तेज़ी आएगी। 
      • मुकदमेबाज़ी पर होने वाले व्यय को कम किया जा सकेगा।
      • इससे सज़ा/दंड की दरों पर नाटकीय प्रभाव पड़ेगा। यह संयुक्त राज्य अमेरिका में यह बेहद आम है, लंबे और जटिल ट्रायल से बचने का यह एक सफल तरीका है। नतीजतन, वहाँ सज़ा की दर काफी अधिक है।
      • लंबे समय से विचाराधीन मुकदमों के चलते कैदी वर्षों तक जेल में बंद रहते हैं, जिससे जेलों में भीड़ बढ़ती जा रही हैं, इस प्रकार के विकल्पों से लंबित मामलों के निपटान में भी मदद मिलेगी।
      • यह अपराधियों को जीवन में एक नई शुरुआत करने में भी मददगार साबित हो सकता है।
  • विपक्ष
    • जिन लोगों को प्ली बारगेनिंग के लिये मजबूर किया जाता है उन लोगों के पास ज़मानत कराने का विकल्प भी मौजूद नहीं होता हैं।
    • यहाँ तक कि ऐसे मामलों में अदालत भी अपनी स्वैच्छिक प्रकृति का परिचय देती है क्योंकि गरीबी, अज्ञानता और अभियोजन पक्ष के दबाव के कारण किसी को उस अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिये जो उसने किया ही नहीं है।
    • न्यायपालिका ने अपने पूर्व के फैसलों में (विशेषकर इस प्रक्रिया के लागू होने से पहले) अपराधियों के साथ प्ली बारगेनिंग को यह कहकर अस्वीकार किया है कि एक नियमित ट्रायल के बाद मामले को परिस्थितियों के हिस्से के रूप में उदार वाक्य माना जा सकता है।
    • इसके अलावा, यह निष्पक्ष जाँच के पीड़ित के अधिकार को भी प्रभावित कर सकता है, इस प्रकिया में जाँच एजेंसियों द्वारा ज़बरदस्ती किये जाने और भ्रष्टाचार जैसे उपकरण बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
    • कुछ लोगों का तर्क है कि यह संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के विरुद्ध है जो आत्म-उत्पीड़न के खिलाफ एक अभियुक्त को सुरक्षा प्रदान करता है।
  • आगे की राह 
  • यहाँ इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है कि प्ली बारगेनिंग आरोपी और पीड़ित के लिये भले ही फायदेमंद हो, लेकिन इस प्रक्रिया के संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपायों को सुनिश्चित किया जाना बेहद आवश्यक है।
  • प्ली बारगेनिंग आपराधिक अदालतों में बढ़ते मामलों की संख्या को नियंत्रित करने और न्यायिक संसाधनों, बुनियादी ढाँचे और खर्चों को युक्तिसंगत बनाने की दिशा में एक संभावित उपाय है।

स्रोत: द हिंदू