नेचुरल फार्मिंग | 11 Jul 2022

प्रिलिम्स के लिये:

नेचुरल फार्मिंग, शून्य-बजट नेचुरल फार्मिंग (ZBNF), भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम (BPKP), परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY), कार्बन ज़ब्ती, सतत् कृषि पर राष्ट्रीय मिशन।

मेन्स के लिये:

नेचुरल फार्मिंग- महत्त्व और संबद्ध मुद्दे, नेचुरल फार्मिंग को बढ़ावा देने के तरीके।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक नेचुरल फार्मिंग सम्मेलन को संबोधित किया जहाँ उन्होंने किसानों से प्राकृतिक खेती को अपनाने का आग्रह किया।

नेचुरल फार्मिंग:

  • इसे "रसायन मुक्त कृषि (Chemical-Free Farming) और पशुधन आधारित (livestock based)" के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
  • कृषि-पारिस्थितिकी के मानकों पर आधारित यह एक विविध कृषि प्रणाली है जो फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे कार्यात्मक जैवविविधता के इष्टतम उपयोग की अनुमति मिलती है।
  • यह मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य को बढ़ाने तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने या न्यून करने जैसे कई अन्य लाभ प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने में सहायक है।
    • कृषि के इस दृष्टिकोण को एक जापानी किसान और दार्शनिक मासानोबू फुकुओका (Masanobu Fukuoka) ने 1975 में अपनी पुस्तक द वन-स्ट्रॉ रेवोल्यूशन में पेश किया था।
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृतिक खेती को पुनर्योजी कृषि का एक रूप माना जाता है, जो ग्रह को बचाने के लिये एक प्रमुख रणनीति है।
  • भारत में परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) के तहत प्राकृतिक खेती को भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम (BPKP) के रूप में बढ़ावा दिया जाता है।
    • BPKP योजना का उद्देश्य बाहर से खरीदे जाने वाले आदानों के आयात को कम कर पारंपरिक स्वदेशी प्रथाओं को बढ़ावा देना है।

Natural-farming

नेचुरल फार्मिंग का महत्त्व:

  • उत्पादन की न्यूनतम लागत:
    • इसे रोज़गार बढ़ाने और ग्रामीण विकास के साथ एक लागत-प्रभावी कृषि पद्धति/प्रथा माना जाता है।
  • बेहतर स्वास्थ्य सुनिश्चित करना:
    • चूँकि प्राकृतिक खेती में किसी भी सिंथेटिक रसायन का उपयोग नहीं किया जाता है, इसलिये स्वास्थ्य जोखिम और खतरे का भय नहीं रहता। साथ ही भोजन में उच्च पोषक तत्त्व होने से यह बेहतर स्वास्थ्य लाभ प्रदान करती है।
  • रोज़गार सृजन:
    • प्राकृतिक खेती आगत उद्यमों, मूल्यवर्द्धन, स्थानीय क्षेत्रों में विपणन आदि के कारण रोज़गार सृजन करती है। प्राकृतिक खेती में अधिशेष का गांँव में ही निवेश किया जाता है।
    • चूंँकि इसमें रोज़गार सृजन की क्षमता है, जिससे ग्रामीण युवाओं का पलायन रुकेगा।
  • पर्यावरण संरक्षण:
    • यह बेहतर मृदा जीव विज्ञान, बेहतर कृषि जैव विविधता और बहुत छोटे कार्बन एवं नाइट्रोजन पदचिह्नों के साथ जल का अधिक न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करती है।
  • पशुधन संधारणीयता:
    • कृषि प्रणाली में पशुधन का एकीकरण प्राकृतिक खेती में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने में मदद करता हैजीवामृत और बीजामृत जैसे पर्यावरण के अनुकूल जैव आदान गाय के गोबर एवं मूत्र तथा अन्य प्राकृतिक उत्पादों से तैयार किये जाते हैं।
  • लचीलापन (Resilience):
    • यह बेहतर मृदा जीव विज्ञान, बेहतर कृषि जैव विविधता और बहुत छोटे कार्बन एवं नाइट्रोजन पदचिह्नों के साथ जल का अधिक न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करती है।
    • NF मौसम की चरम सीमाओं के खिलाफ फसलों को लचीलापन प्रदान करके किसानों पर इसका सकारात्मक प्रभाव प्रदर्शित करता है।

प्राकृतिक खेती से संबंधित चुनौतियाँ:

  • पैदावार में गिरावट:
    • सिक्किम (भारत का पहला जैविक राज्य) में जैविक खेती में परिवर्तन के बाद पैदावार में कुछ गिरावट देखी गई है।
    • कुछ वर्षों के बाद भी शून्य-बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) के उत्पादन में गिरावट के चलते कई किसान पारंपरिक खेती में लौट आए हैं।
  • उत्पादकता और आय बढ़ाने में असमर्थ:
    • ZBNF ने निश्चित रूप से मृदा की उर्वरता को बनाए रखने में मदद की है, जबकि उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ाने में इसकी भूमिका अभी तक निर्णायक नहीं है।
  • प्राकृतिक आदानों की उपलब्धता का अभाव:
    • किसान अक्सर आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक आदानों की कमी का हवाला देते हैं जो रसायन मुक्त कृषि में संक्रमण के लिये एक बाधा के रूप में हैं। प्रत्येक किसान के पास अपना आदान बढ़ाने हेतु समय, धैर्य या श्रम नहीं होता है।
  • पोषक तत्त्वों की कमी:
    • नेचर सस्टेनेबिलिटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि प्राकृतिक आदानों का पोषक मूल्य कम आदान वाले खेतों (कम मात्रा में उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग करने वाले खेतों) में उपयोग किये जाने वाले रसायनिक उर्वरकों के मूल्य के समान है, लेकिन उच्च आदान वाले खेतों में यह कम है।
    • जब इस तरह से पोषक तत्त्वों की कमी बड़े पैमाने पर होती है, तो यह वर्षों में उपज में बाधा उत्पन्न कर सकता है, संभावित रूप से खाद्य सुरक्षा चिंताओं का कारण बन सकता है।

संबंधित पहल:

आगे की राह

  • गंगा बेसिन से परे वर्षा सिंचित क्षेत्रों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।.
    • वर्षा सिंचित क्षेत्र, सिंचाई के प्रचलित क्षेत्रों की तुलना में प्रति हेक्टेयर उर्वरकों का केवल एक-तिहाई उपयोग करते हैं।
  • रसायन मुक्त कृषि के लिये आदानों का उत्पादन करने वाले सूक्ष्म उद्यमों को आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक आदानों की अनुपलब्धता की चुनौती को दूर करने के हेतु सरकार की ओर से सहायता प्रदान की जाएगी, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिये इन्हें ग्राम-स्तरीय इनपुट और बिक्री की दुकानों की स्थापना के साथ जोड़ा जाना चाहिये।
  • सरकार को एक ऐसे पारिस्थितिकी तंत्र की सुविधा प्रदान करनी चाहिये जिसमें किसान संक्रमण काल के समय एक-दूसरे से सीखें और एक-दूसरे का समर्थन करें।
  • कृषि विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम विकसित करने के अलावा कृषि विस्तार कार्यकर्त्ताओं को स्थायी कृषि प्रथाओं पर कौशल बढ़ाने की आवश्यकता है।

स्रोत: द हिंदू