यदि राष्ट्रपति ने खारिज की दया याचिका तो मृत्युदंड के दोषियों के लिये अगला विकल्प क्या है? | 01 Jun 2018

चर्चा में क्यों?

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जगत राय की दया याचिका खारिज कर दी है उसे सहयोगियों के साथ बिहार के रामपुर श्यामचंद गाँव में 2006 में सोते समय एक महिला और पाँच नाबालिग बच्चों की आग लगाकर हत्या करने का दोषी ठहराया गया था। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने उसकी मृत्यु की सज़ा को बरकरार रखा था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार करने के बाद भी मृत्युदंड के दोषी के लिये न्यायिक विकल्प मौजूद रहते हैं।

दया याचिका कब राष्ट्रपति के पास पहुँचती है?

  • एक विचारण न्यायालय (trial court) द्वारा पारित मृत्युदंड की सज़ा की उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की जाती है। तत्पश्चात् दोषी सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटा सकता है।
  • सितंबर 2014 में उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने अवधारित किया कि मृत्युदंड की पुष्टि करने वाले उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की सुनवाई तीन न्यायाधीशों की एक खंडपीठ द्वारा की जाएगी।
  • यदि उच्चतम न्यायालय इस तरह की अपील को खारिज कर देता है, तो दोषी एक पुनरीक्षण याचिका दाखिल कर सकता है और इसके पश्चात् एक उपचारात्मक याचिका (curative petition) दायर कर सकता है।
  • यदि इन सभी को खारिज कर दिया जाता है, तो दोषी के पास दया याचिका (mercy petition) का विकल्प होता है।
  • दया याचिका पर निर्णय देने के लिये कोई निर्धारित समय सीमा नहीं है।

क्षमादान की राष्ट्रपति की शक्ति

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार, राष्ट्रपति को क्षमादान की शक्ति और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति प्राप्त है|
  • अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है लेकिन यह शक्ति मृत्युदंड के लिये नहीं है।
  • राष्ट्रपति सरकार से स्वतंत्र होकर क्षमा की अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
  • राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह लेने के लिये इस दया याचिका को गृह मंत्रालय के पास भेजता है।
  • मंत्रालय इसे संबंधित राज्य सरकार को भेजता है, जवाब के आधार पर यह मंत्रिपरिषद की ओर से अपनी सलाह तैयार करता है।
  • कई मामलों में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया है कि दया याचिका पर निर्णय लेते समय राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होगा। इस संबंध में 1980 में मारु राम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और 1994 में धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले महत्त्वपूर्ण हैं।
  • यद्यपि राष्ट्रपति कैबिनेट की सलाह मानने के लिये बाध्य हैं लेकिन अनुच्छेद 74(1) उन्हें एक बार पुनर्विचार के लिये इसे वापस भेजने की शक्ति देता है।
  • यदि मंत्रिपरिषद किसी भी बदलाव के खिलाफ फैसला करती है तो राष्ट्रपति के पास इसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

राष्ट्रपति के निर्णय के बाद की स्थिति

  • अक्तूबर 2006 में ईपुरु सुधाकर तथा अन्य बनाम आंध्र प्रदेश और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिधारित किया कि अनुच्छेद 72 या 161 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल की शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
  • उनके निर्णय को निम्नलिखित आधार पर चुनौती दी जा सकती है-
    (a) इसे बुद्धिमत्तापूर्ण पारित न किया गया हो|
    (b) इसे बदनीयती से पारित किया गया हो|
    (c) यह अपरिपक्व या पूरी तरह से अप्रासंगिक विचारों पर आधारित होकर पारित किया गया हो|
    (d) प्रासंगिक तथ्यों को ध्यान में न रखा गया हो|
    (e) यह स्वेच्छाचारिता से प्रभावित हो।

क्या राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार करने की स्थिति में उच्च न्यायालय इनका पुनरीक्षण कर सकता है?

  • यह प्रश्न उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित है।
  • छत्तीसगढ़ के सोनू सरदार को 2004 में दो नाबालिगों सहित एक स्क्रैप डीलर के परिवार के पाँच सदस्यों की हत्या के लिये 2008 में मौत की सज़ा सुनाई गई थी।
  • राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका अस्वीकार करने के बाद सोनू सरदार ने 2015 में दिल्ली उच्च न्यायालय में "देरी, शक्ति का अनुचित प्रयोग और अवैध एकांत कारावास" का हवाला देते हुए याचिका को अस्वीकार किये जाने को चुनौती दी।
  • 28 जून,  2017 को उच्च न्यायालय ने मौत की सज़ा को उम्रकैद में बदल दिया।
  • केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय को चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2017 को एक नोटिस जारी किया।
  • सरकार ने तर्क दिया कि केवल सर्वोच्च न्यायालय को दया याचिका के खारिज करने के राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं का विचारण करना चाहिये न कि उच्च न्यायालय को।