आर्कटिक के 'लास्ट आइस एरिया' का पिघलना | 05 Jul 2021

प्रिलिम्स के लिये:

ध्रुवीय भंवर, ग्रीष्म लहर, लास्ट आइस एरिया की विश्व के मानचित्र में स्थिति 

मेन्स के लिये:

आर्कटिक बर्फ के पिघलने का कारण और प्रभाव

चर्चा में क्यों?

ग्रीनलैंड के उत्तर में आर्कटिक क्षेत्र में स्थित 'लास्ट आइस एरिया' (Last Ice Area- LIA) वैज्ञानिकों की अपेक्षा से पहले ही पिघलने लगा है।

Last-Ice-Area

प्रमुख बिंदु:

लास्ट आइस एरिया:

  • यह क्षेत्र कनाडा के नुनावुत क्षेत्र में ग्रीनलैंड और एलेस्मेरे द्वीप (Ellesmere Island) के उत्तर में स्थित है।
  • इस क्षेत्र को  ग्लोबल वार्मिंग को सहन करने के लिये मज़बूत माना जाता था।
    • आर्कटिक में ग्रीष्मकालीन बर्फ के वर्ष 2040 तक पूरी तरह से गायब होने का अनुमान लगाया गया था, हालाँकि 'लास्ट आइस एरिया' इसका अपवाद है।
  • विश्व वन्यजीव कोष (WWF)-कनाडा ने इस क्षेत्र को पहली बार 'लास्ट आइस एरिया' कहा।

महत्त्व:

  • यह क्षेत्र बर्फ पर निर्भर प्रजातियों की मदद करने में सक्षम माना जाता था क्योंकि इसके आसपास के क्षेत्रों में बर्फ पिघल गई थी जिसके कारण वहाँ जीवन निर्वाह असंभव था।
  • इसका उपयोग ध्रुवीय भालुओं द्वारा उन सीलों (Seals) का शिकार करने के लिये किया जाता है जो अपनी संतानों के लिये मांद बनाने हेतु बर्फ का उपयोग करते हैं। वालरस भी बर्फ की सतह का उपयोग भोजन की खोज के लिये करते हैं।
  • समुद्री बर्फ इनुइतों (Inuit) के लिये एक राजमार्ग का कार्य करती है, जो इसका उपयोग यात्रा और शिकार करने के लिये करते हैं।
    • इनुइत शब्द मोटे तौर पर अलास्का, कनाडा और ग्रीनलैंड की आर्कटिक स्वदेशी आबादी को संदर्भित करता है।

बर्फ पिघलने का कारण:

  • लगभग 80% विरलन (Thinning) के लिये मौसम संबंधित कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है जैसे कि हवाएँ बर्फ को तोड़कर उसे चारों ओर फैलाती हैं।
  • शेष 20% हेतु ग्लोबल वार्मिंग को लंबे समय तक बर्फ के विरलन के लिये  ज़िम्मेदार ठहराया गया है।

आर्कटिक के बारे में:

  • आर्कटिक पृथ्वी के सबसे उत्तरी भाग में स्थित एक ध्रुवीय क्षेत्र है।
  • आर्कटिक के अंतर्गत आर्कटिक महासागर, निकटवर्ती समुद्र और अलास्का (संयुक्त राज्य अमेरिका), कनाडा, फिनलैंड, ग्रीनलैंड (डेनमार्क), आइसलैंड, नॉर्वे, रूस और स्वीडन को शामिल किया जाता है।
  • आर्कटिक क्षेत्र के भीतर की भूमि में मौसमी रूप से अलग-अलग बर्फ का आवरण है।
  • वर्ष 2013 से भारत को आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है जो आर्कटिक के पर्यावरण और विकास पहलुओं पर सहयोग के लिये प्रमुख अंतर-सरकारी मंच है।

आर्कटिक बर्फ के पिघलने का प्रभाव:

  • वैश्विक जलवायु: वैश्विक स्तर पर आर्कटिक और अंटार्कटिक क्षेत्र एक प्रशीतक की तरह कार्य करते हैं, चूँकि ये क्षेत्र बर्फ और हिमपात की सफेद चादर से ढके हैं जो ऊष्मा की मात्रा को वापस अंतरिक्ष में भेज देते हैं (अल्बेडो प्रभाव)। ये विश्व  के उन अन्य हिस्सों को संतुलित करते हैं जो गर्मी को अवशोषित करने का कार्य करते हैं।
  • तटीय समुदाय: वर्ष1900 के बाद वैश्विक रूप से समुद्र के औसत स्तर में लगभग 7-8 इंच की वृद्धि हुई है तथा दिनोंदिन यह स्थिति और भी खतरनाक होती जा रही है। समुद्र जल का बढ़ता स्तर तटीय शहरों और छोटे द्वीपीय राष्ट्रों में तटीय बाढ़ और तूफानों की बारंबारता में वृद्धि कर सकता है।
  • खाद्य सुरक्षा: ध्रुवीय भँवर/पोलर वोर्टेक्स (Polar vortexes), ग्रीष्म लहर (Heat Waves) तथा बर्फ के पिघलने के कारण मौसम की अप्रत्याशितता पहले से ही फसलों को नुकसान पहुंँचा रही है, जिन पर वैश्विक खाद्य प्रणालियांँ निर्भर हैं।
  • पर्माफ्रॉस्ट और ग्लोबल वार्मिंग: आर्कटिक क्षेत्र में पर्माफ्रॉस्ट (ज़मीन जो स्थायी रूप से जमी हुई है) बड़ी मात्रा में मीथेन का भंडारण करती है, जो ग्रीनहाउस गैस तथा जलवायु परिवर्तन में योगदान करती है।
  • जैव विविधता का खतरा: आर्कटिक की बर्फ का पिघलना आर्कटिक क्षेत्र की जीवंत जैव विविधता को गंभीर खतरे में डालता है।

आर्कटिक में भारत के हित:

  • हाल ही में भारत ने तीसरे आर्कटिक विज्ञान मंत्रिस्तरीय (Arctic Science Ministerial- ASM) में भाग लिया और आर्कटिक क्षेत्र में अनुसंधान एवं दीर्घकालिक सहयोग के लिये योजनाओं को साझा किया।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस