महाराष्ट्र द्वारा हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में समाप्त करने का निर्णय | 14 Jul 2025
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय शिक्षा नीति, अनुच्छेद 29, भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची मेन्स के लिये:भाषा पर संवैधानिक प्रावधान, भारत में बहुभाषी शिक्षा के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ |
स्रोत:द हिंदू
चर्चा में क्यों?
महाराष्ट्र सरकार ने मराठी और अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने वाले अपने सरकारी संकल्प (GR) को रद्द कर दिया।
- यद्यपि यह कदम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020 के अनुरूप था, जो त्रि-भाषा फार्मूले के माध्यम से बहुभाषावाद को बढ़ावा देता है, लेकिन भाषायी पहचान, सांस्कृतिक आधिपत्य और कार्यान्वयन की व्यवहार्यता पर चिंताओं के कारण इसे वापस ले लिया गया।
- सरकार ने त्रिभाषा नीति का अध्ययन करने के लिये प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की है।
त्रिभाषा नीति के कार्यान्वयन में क्या मुद्दे हैं?
- शैक्षणिक चुनौतियाँ: तंत्रिका विज्ञान संबंधी शोध, प्रारंभिक अवस्था में ही बहुभाषाओं से परिचय (2-8 वर्ष की आयु) का समर्थन करता है, लेकिन यह औपचारिक कक्षा निर्देश के समान नहीं है।
- प्रभावी अधिगम के लिये बच्चों को अतिरिक्त भाषाएँ सीखने से पहले अपनी मातृभाषा में मूलभूत साक्षरता विकसित करना आवश्यक होता है।
- कक्षा 1 से तीन भाषाओं को शामिल करने से प्राथमिक भाषा में मूल साक्षरता कमज़ोर हो सकती है।
- संघीय चिंताएँ: शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। राज्य से उचित परामर्श के बिना हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाना शैक्षिक मामलों में संघीय भावना को कमज़ोर करता है।
- त्रिभाषा नीति की आलोचना इस आधार पर की गई है कि इसमें क्षेत्रीय भाषाओं की कीमत पर हिंदी को बढ़ावा दिया जा रहा है। तमिलनाडु जैसे राज्यों में इसे भाषायी केंद्रीकरण के कार्य के रूप में देखा गया।
- द्रविड़ आंदोलन से प्रेरित होकर तमिलनाडु ने वर्ष 1968 में त्रिभाषा फार्मूले को खारिज करते हुए दो भाषाओं (तमिल और अंग्रेज़ी) की नीति अपनाई। यह रुख आज भी जारी है। वर्ष 2019 में, तमिलनाडु के कड़े विरोध के कारण NEP, 2020 के मसौदे से हिंदी की अनिवार्यता हटा दी गई थी।
- नई शिक्षा नीति 2020 के उद्देश्य से विचलन: नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 मुख्य रूप से प्रारंभिक वर्षों में मातृभाषा (‘R1’) में शिक्षण पर ज़ोर देती है, साथ ही एक दूसरी भाषा (‘R2’ – जो R1 के अलावा कोई अन्य भाषा हो) को शामिल करने की बात करती है, न कि प्रारंभिक स्तर पर तीन भाषाओं के अध्ययन की।
- सांस्कृतिक और सामाजिक चिंताएँ: सिविल सोसाइटी समूहों का तर्क है कि हिंदी को अनिवार्य बनाए जाने से स्थानीय जनजातीय या अल्पसंख्यक भाषाओं के उपयोग को हतोत्साहित किया जा सकता है।
- आलोचकों ने इसे "पारदर्शिता रहित निर्णय प्रक्रिया" बताते हुए "हिंदी को परोक्ष रूप से अनिवार्य करना" करार दिया है। उन्होंने यह भी इंगित किया कि कुछ राज्य-स्तरीय नीतियाँ, जो हिंदी को अनिवार्य बनाती हैं, विशेषज्ञ भाषा समितियों या जन-संलग्न हितधारकों से उचित परामर्श के बिना लागू की गई हैं।
- प्रशासनिक और बुनियादी ढाँचे संबंधी समस्याएँ: कई स्कूलों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, तीनों भाषाओं के लिये योग्य शिक्षकों की कमी है, जिससे शिक्षण की गुणवत्ता असमान हो जाती है।
- तीन भाषाओं के लिये आयु-उपयुक्त और समन्वित पाठ्यक्रम तैयार करना भी एक चुनौती है, विशेषकर प्रारंभिक स्तर पर। इससे छात्रों और शिक्षकों दोनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ सकता है, जो अंततः रटकर सीखने (Rote learning) तथा कम समझ जैसी समस्याएँ उत्पन्न करता है।
नोट: कोठारी आयोग (1964–66) ने एक सामान्य शैक्षिक ढाँचे के माध्यम से राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिये त्रिभाषा सूत्र (Three-Language Formula) का प्रस्ताव दिया था। बाद में इसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में अपनाया गया।
नई शिक्षा नीति 2020 में भाषा को लेकर क्या प्रावधान किये गए हैं?
- शिक्षण का माध्यम: NEP 2020 यह सिफारिश करती है कि कम से कम कक्षा 5 तक और यदि संभव हो तो कक्षा 8 और उससे आगे तक, मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाया जाए।
- NEP 2020 द्वैभाषिक शिक्षण (Bilingual teaching) को बढ़ावा देती है, विशेष रूप से प्रारंभिक कक्षाओं में शिक्षण के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी के साथ-साथ घरेलू भाषा या मातृभाषा के उपयोग को प्रोत्साहित करता है।
- बहुभाषावाद: NEP 2020 द्वारा प्रस्तावित वर्तमान त्रिभाषा सूत्र NEP, 1968 से काफी अलग है, जिसमें हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी, अंग्रेज़ी और एक आधुनिक भारतीय भाषा (अधिमानतः दक्षिणी भाषाओं में से एक) तथा गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी, अंग्रेज़ी एवं एक क्षेत्रीय भाषा के अध्ययन पर ज़ोर दिया गया था।
- इसके विपरीत, NEP 2020 में कहा गया है कि यह त्रिभाषा सूत्र में अधिक अनुकूलन प्रदान करता है और किसी भी राज्य पर कोई भाषा नहीं थोपी जाएगी।
- इसके साथ ही, यह नीति शास्त्रीय भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और अन्य को त्रिभाषा सूत्र का हिस्सा बनाने के लिये भी प्रोत्साहित करती है।
- विदेशी भाषाएँ: NEP 2020 माध्यमिक स्तर पर छात्रों को कोरियाई, जापानी, फ्रेंच, जर्मन और स्पेनिश जैसी विदेशी भाषाएँ सीखने का विकल्प प्रदान करती है।
- केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने यह निर्देश दिया है कि कक्षा 10 तक छात्र दो भारतीय भाषाएँ सीखेंगे, जबकि कक्षा 11 और 12 में वे एक भारतीय भाषा तथा एक विदेशी भाषा का चयन कर सकते हैं।
स्कूलों में मातृभाषा
- राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा किये गए आठवें अखिल भारतीय स्कूली शिक्षा सर्वेक्षण (AISES) से पता चलता है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के प्रयोग में गिरावट आई है। प्राथमिक स्तर पर वर्ष 2009 में 86.62% स्कूलों में मातृभाषा का प्रयोग किया गया, जो वर्ष 2002 में 92.07% से कम है।
- यह गिरावट ग्रामीण (92.39% से 87.56%) और शहरी (90.39% से 80.99%) दोनों क्षेत्रों में देखी गई है।
भाषा के संबंध में संवैधानिक प्रावधान क्या हैं?
- अनुच्छेद 29: नागरिकों को अपनी विशिष्ट भाषा और संस्कृति के संरक्षण के अधिकार की रक्षा करता है।
- अनुच्छेद 343: देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की आधिकारिक भाषा घोषित करता है, 1950 से 15 वर्षों (बाद में कानून द्वारा बढ़ाया गया) तक आधिकारिक उद्देश्यों के लिये अंग्रेजी के निरंतर उपयोग की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 346: राज्यों के बीच और संघ के साथ पत्र-व्यवहार हेतु राजभाषा का निर्धारण करता है। यदि संबंधित राज्य सहमत हों तो हिंदी का प्रयोग किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 347: राष्ट्रपति को किसी भाषा को किसी राज्य या उसके भाग की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देने की अनुमति देता है, यदि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इसकी मांग करता है।
- अनुच्छेद 350A : राज्यों को भाषायी अल्पसंख्यक बच्चों के लिये मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का निर्देश देता है।
- अनुच्छेद 350B: भाषायी अल्पसंख्यकों के लिये सुरक्षा उपायों के कार्यान्वयन पर रिपोर्ट करने के लिये राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त भाषायी अल्पसंख्यकों हेतु एक विशेष अधिकारी का प्रावधान करता है।
- अनुच्छेद 351: संघ को हिंदी को बढ़ावा देने तथा अन्य भारतीय भाषाओं के तत्त्वों से समृद्ध करने का दायित्व देता है।
- आठवीं अनुसूची: इसमें हिंदी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, उर्दू और अन्य सहित 22 आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है, जिन्हें "अनुसूचित भाषाएँ" कहा जाता है।
त्रिभाषा नीति के पक्ष और विपक्ष में तर्क क्या हैं?
पक्ष के तर्क
- बहुभाषावाद और संज्ञानात्मक विकास को बढ़ावा: कई भाषाएँ सीखने से स्मृति, समस्या-समाधान तथा समग्र शैक्षणिक प्रदर्शन में सुधार होता है।
- बच्चों की लचीले ढंग से सोचने और विविध दृष्टिकोणों को समझने की क्षमता को बढ़ाता है।
- राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा: त्रि-भाषा नीति विभिन्न भाषायी समूहों के बीच संचार को प्रोत्साहित करती है। यह विभिन्न क्षेत्रों के छात्रों को भारत की सांस्कृतिक और भाषायी विविधता को समझने तथा उसका सम्मान करने में मदद करती है।
- बेहतर नौकरी की संभावनाएँ: कई भाषाओं को जानने से पर्यटन, प्रौद्योगिकी, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और मीडिया जैसे क्षेत्रों में अवसर बढ़ जाते हैं।
विपक्ष में तर्क
- राजनीतिक संवेदनशीलता: कुछ राज्यों में इस नीति को हिंदी थोपने के रूप में देखा जाता है, जिससे क्षेत्रीय पहचान की राजनीति और "भूमिपुत्रों" की भावना को बढ़ावा मिलता है, जो स्थानीय अधिकारों, भाषा और संस्कृति को प्राथमिकता देता है।
- छात्रों और स्कूलों पर बोझ: छात्र पहले से ही बुनियादी साक्षरता के साथ संघर्ष करते हैं, तीसरी अनिवार्य भाषा उन पर बोझ बढ़ा सकती है। एकभाषी परिवारों के बच्चों को यह तनावपूर्ण या भ्रमित करने वाला लग सकता है।
- क्रियान्वयन संबंधी चुनौतियाँ: असंबंधित भाषाओं (जैसे, हरियाणा में तमिल) को लागू करने के प्रयास कमज़ोर योजना एवं मांग के अभाव के कारण विफल रहे हैं।
शिक्षा में समावेशी और प्रभावी भाषा नीति के लिये मार्गदर्शक सिद्धांत क्या होने चाहिये?
- संस्थागत तैयारी: केवल नई भाषाएँ जोड़ने के बजाय आधारभूत साक्षरता, शिक्षण की गुणवत्ता और सीखने के परिणामों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- संतुलित बहुभाषावाद: त्रिभाषा नीति का कार्यान्वयन सभी गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को अनिवार्य रूप से लागू करने तक सीमित नहीं होना चाहिये।
- इसके स्थान पर, पारस्परिक भाषा अधिग्रहण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये — जैसे कि उत्तर भारतीय छात्र केंद्रीय विद्यालयों में द्रविड़ या आदिवासी भाषाएँ सीखें। इससे आपसी सम्मान का भाव प्रकट होगा, न कि बहुसंख्यक विशेषाधिकार।
- भाषा अधिग्रहण को कौशल एवं रोज़गार क्षमता से जोड़ें: भाषा शिक्षण को व्यावसायिक तथा डिजिटल कौशल के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये, विशेषकर अंग्रेज़ी और हिंदी जैसी भाषाओं के लिये, जो राष्ट्रीय स्तर पर गतिशीलता उपलब्ध कराती हैं।
- इसी प्रकार, राज्य स्तरीय रोज़गार और सार्वजनिक सेवाओं में क्षेत्रीय भाषाओं में दक्षता को भी मान्यता और प्रोत्साहन मिलना चाहिये।
- भाषा को सामाजिक न्याय के साधन के रूप में बढ़ावा देना: भाषा अधिग्रहण का उद्देश्य शिक्षार्थी को सशक्त बनाना होना चाहिये, न कि उसे राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा का माध्यम बनाना।
- भाषाई पदानुक्रम के स्थान पर भाषाई समानता को प्राथमिकता दी जानी चाहिये और प्रत्येक भारतीय भाषा को एक संसाधन के रूप में मान्यता दी जानी चाहिये, न कि एक बाधा के रूप में।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: शिक्षा में भाषा का उद्देश्य सशक्तीकरण होना चाहिये, न कि थोपना। इस कथन का मूल्यांकन कीजिये। |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. भारतीय संविधान के निम्नलिखित में से कौन-से प्रावधान शिक्षा पर प्रभाव डालते हैं? (2012)
नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर चुनें: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न. जनसंख्या शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना करते हुए भारत में इन्हें प्राप्त करने के उपायों को विस्तृत प्रकाश डालिये। (2021) प्रश्न. भारत में डिजिटल पहल ने किस प्रकार से देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन में योगदान किया है? विस्तृत उत्तर दीजिये। (2020) |