‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना: समग्र विश्लेषण | 11 Jun 2020

प्रीलिम्स के लिये

‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना से संबंधित विभिन्न तथ्य

मेन्स के लिये 

आम लोगों के जनजीवन और पर्यावरण पर इस परियोजना का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

भारी जन विरोध के बीच केरल सरकार ने त्रिशूर ज़िले में चालक्कुडी नदी (Chalakudy River) पर प्रस्तावित विवादास्पद ‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ (Athirappally Hydel Power) परियोजना पर फिर से आगे बढ़ने का निर्णय लिया है। 

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि ‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना के लिये पहले से प्राप्त पर्यावरणीय मंज़ूरी और तकनीकी-आर्थिक मंज़ूरी समेत सभी वैधानिक मंज़ूरियों की अवधि समाप्त हो चुकी थीं।
  • ऐसे में केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) ने राज्य सरकार को पत्र लिखते हुए परियोजना पर आगे बढ़ने और केंद्र सरकार से नए सिरे से पर्यावरणीय मंज़ूरी प्राप्त करने की बात कही थी।
  • केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) द्वारा किये गए आग्रह पर विचार करते हुए केरल सरकार ने केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को आगामी 7 वर्षों की अवधि के लिये अनापत्ति प्रमाण पत्र (No-Objection Certificate-NOC) जारी किया है।

‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना

  • 163 मेगावाट की स्थापित क्षमता वाली इस परियोजना को केरल के त्रिशूर ज़िले में पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील चलक्कुडी नदी पर स्थापित करने की योजना सर्वप्रथम वर्ष 1979 में बनाई गई थी। 
  • इस परियोजना के तहत 23 मीटर ऊँचाई और 311 मीटर लंबाई का एक गुरुत्वाकर्षण बांध (Gravity Dam) प्रस्तावित किया गया था। 
  • उल्लेखनीय है कि चलक्कुडी नदी पर पहले से ही जल विद्युत से संबंधित छह बाँध और सिंचाई से संबंधित एक बाँध निर्मित किया गया है।

चालक्कुडी नदी (Chalakudy River) 

  • चालक्कुडी नदी केरल की चौथी सबसे लंबी नदी है। 
  • इस नदी का कुल बेसिन क्षेत्र तकरीबन 1704 किलोमीटर लंबा है, जिसमें से 1404 किलोमीटर का हिस्सा केरल में पड़ता है और शेष 300 किलोमीटर का हिस्सा तमिलनाडु में पड़ता है।
  • यह नदी केरल के पलक्कड़, त्रिशूर और एर्नाकुलम ज़िलों से होकर निकलती है।

काफी समय से रुकी हुई है ‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना

  • इस परियोजना का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1979 में सामने आया था, जिसके बाद वर्ष 1982 में केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) ने इस संबंध में एक औपचारिक प्रस्ताव पेश किया।
  • उस समय इस परियोजना को विभिन्न एजेंसियों से मंज़ूरी प्राप्त करने में सात वर्ष से अधिक समय लगा, किंतु सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के मद्देनज़र इस परियोजना को रोक दिया गया।
  • वर्ष 1998 में केरल सरकार ने इस परियोजना को नई लीज़ (Lease) प्रदान कर दी। साथ ही कुछ समय पश्चात् इस परियोजना को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (Ministry of Environment and Forests- MoEF) से भी मंज़ूरी मिल गई।
  • हालाँकि, कुछ ही समय में पर्यावरण कार्यकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर दी और न्यायालय ने वर्ष 2001 में केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) को सभी आवश्यक मंज़ूरी प्राप्त करने से संबंधित अनिवार्य प्रक्रिया का पालन करने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2005 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) ने एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा तैयार की गई पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट के आधार पर एक बार पुनः इस परियोजना को अपनी मंज़ूरी दे दी। हालाँकि पर्यावरण कार्यकर्त्ताओं ने फिर से उच्च न्यायालय का रुख किया और न्यायालय ने मंत्रालय की मंज़ूरी को रद्द कर दिया।
  • वर्ष 2007 में केरल सरकार ने इस परियोजना से संबंधित एक नया प्रस्ताव पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) के समक्ष प्रस्तुत किया, किंतु परियोजना के कारण क्षेत्र की परिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को मंज़ूरी नहीं दी।
  • इस बीच, माधव गाडगिल के नेतृत्त्व में गठित वेस्टर्न घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल (Western Ghats Ecology Experts Panel) ने अथिरापल्ली समेत संपूर्ण पश्चिमी घाट क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया और इस क्षेत्र में खनन, उत्खनन, थर्मल पावर प्लांट समेत सभी बड़ी परियोजनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • हालाँकि, पश्चिमी घाट पर कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट ने इस बिजली परियोजना को शुरू करने के लिये केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को सशर्त मंज़ूरी प्रदान कर दी।
  • कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट के साथ केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) के समक्ष एक नया प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
  • इस बार मंत्रालय ने केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को वर्ष 2017 तक के लिये ‘ग्रीन क्लीयरेंस’ (Green Clearance) प्रदान कर दिया।

परियोजना का प्रभाव

  • एक अनुमान के अनुसार, 19 पंचायतों और दो नगर पालिकाओं के कम-से-कम पाँच लाख लोग आजीविका, सिंचाई और पीने के पानी के लिये नदी पर निर्भर हैं। इस परियोजना के आलोचकों का मानना है कि इस परियोजना के परिणामस्वरूप नदी का प्रवाह अवरुद्ध होगा और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से इन लाखों लोगों का  दैनिक जीवन प्रभावित होगा।
  • स्थानिक जनजाति ‘कादर’ (Kadar) से संबंधित तमाम आदिवासी लोगों ने इस नदी के बेसिन में अपना घर बनाया है, जो कि सैकड़ों वर्षों से यहाँ रह रहे हैं। इस परियोजना के कारण इन आदिवासियों का जीवन काफी अधिक प्रभावित होगा और इन्हें विस्थापित होना पड़ेगा।
  • इस परियोजना में क्षेत्र विशिष्ट के दो प्रमुख झरने (अथिरापल्ली झरना और वझाचल झरना) शामिल हैं, जहाँ प्रतिवर्ष 6 लाख से अधिक लोग घूमने आते हैं, ऐसे में यह क्षेत्र विशिष्ट की अर्थव्यवस्था के लिये आय का प्रमुख स्रोत हैं, किंतु इस परियोजना के कारण यह क्षेत्र एक पर्यटक स्थल के रूप में बचा नहीं रह पाएगा। यह स्थानीय अर्थव्यवस्था और केरल के पर्यटन उद्योग के लिये काफी नुकसानदायक होगा।
  • इस परियोजना के लिये प्रयोग किया जा रहा कुछ क्षेत्र वझाचल वन प्रभाग (Vazhachal Forest Division) का हिस्सा है और यहाँ विलुप्ति की कगार पर खड़े कई जानवर पाए जाते हैं, ऐसे में इस परियोजना के कार्यान्वयन से इस क्षेत्र के जानवरों पर काफी प्रभाव पड़ेगा।
  • परियोजना के तहत बाँध निर्माण के लिये लगभग 138.60 हेक्टेयर वन भूमि केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को हस्तांतरित की जाएगी , जो कि इस क्षेत्र की जैव विविधता के लिये काफी बड़ा नुकसान होगा।

आगे की राह

  • इस परियोजना की शुरुआत वर्ष 1979 में हुई थी और अब तक इसके कार्यान्वयन पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है, यह स्थिति भारतीय प्रशासनिक तंत्र में होने वाली देरी को इंगित करती है।
  • यह मुद्दा पर्यावरण और विकास के मध्य हो रहे संघर्ष का है, ऐसे में आवश्यक है कि इस परियोजना से संबंधित सभी हितधारक एक मंच पर आकर संतुलित उपाय खोजने का प्रयास करें, ताकि राज्य की बिजली संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए क्षेत्र विशिष्ट की जैव विविधता को सुरक्षित रखा जा सके।

स्रोत: डाउन टू अर्थ