भारत में आम आदमी की पहुँच से दूर होता स्वास्थ्य सेवाओं का खर्च | 21 Apr 2017

संदर्भ
हाल ही में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी द्वारा किये गये एक अध्ययन में यह बात उभर कर सामने आई है कि भारत में 2/3 स्वास्थ्य संबंधी खर्च ऐसा है जो कि आम आदमी की जेब से बाहर है| गौरतलब है कि स्वास्थ्य पर खर्च करने में असमर्थ लोगों के संबंध में किये गए इस अध्ययन में कुल 25 देशों की सूची में भारत को छठे स्थान (65.6%) पर रखा गया है| इस अध्ययन में सूडान को 76.6% के स्थान शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ है| सूडान के बाद इस सूची में यमन, अज़ेरबेजान, नाइजीरिया तथा कैमरून (Cameroon) को रखा गया है| इसके पश्चात् भारत का स्थान है|

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • गौरतलब है कि आगामी दो दशकों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाले खर्च में बढ़ोतरी होने की संभावना है, तथापि स्वास्थ्य संबंधी उपक्रमों में बढ़ने वाली कीमतों एवं संसाधनों के संबंध में होने वाली वृद्धि में व्यापक अंतर रहने की भी संभावना व्यक्त की गई है|
  • इस अध्ययन में निहित तीन सूचियों में से, एक सूची स्वास्थ्य पर 50% या उससे अधिक जेब खर्च करने वाले देशों की है| दूसरी सूची में स्वास्थ्य पर 10% अथवा इससे कम व्यय करने वाले देशों की तुलना की गई है, जिसमें प्रथम स्थान सेशेल्स (2.4%) को प्राप्त हुआ है|
  • तीसरी सूची में उन 15 देशों को शामिल किया गया हैं जिनकी सरकारों ने वर्ष 2014 में स्वास्थ्य पर 80% या उससे अधिक व्यय किया| इसमें शीर्ष स्थान क्यूबा को प्राप्त हुआ है जबकि इसके बाद क्रमशः ब्रूनेई, सेशेल्स, ओमान, नीदरलैंड्स और सामोआ का स्थान आता है|
  • विदित हो कि इस सूची के प्रथम 15 देशों में जापान, ब्रिटेन तथा न्यूज़ीलैण्ड भी शामिल हैं| 
  • गौरतलब है कि इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में वर्ष 1995 और वर्ष 2014 में वैश्विक रूप से स्वास्थ्य पर होने वाले उच्च व्यय का विश्लेषण किया गया| इस अध्ययन का संचालन एक स्वास्थ्य वित्तपोषण सहयोगी नेटवर्क (health financing collaborative network) द्वारा किया गया था| यह नेटवर्क 60 से अधिक देशों में फैला 250 अर्थशास्त्रियों और शोधकर्ताओं का एक समूह है|

भारतीय परिदृश्य

  • उल्लेखनीय है कि भारत को वैश्विक रूप से स्वास्थ्य पर सबसे अधिक जेब खर्च करने वाले राष्ट्रों में से एक माना जाता है|
  • हालाँकि वर्तमान में भारत में निजी स्वास्थ्य देखभाल केन्द्रों की संख्या में दिनोंदिन वृद्धि देखने को मिल रही है| इसका एक संभावित कारण यह भी है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार के द्वारा उच्च मृत्यु दर एवं निम्न जन्म दर को ध्यान में रखते हुए निजी चिकित्सकों को उस समय तक इस दिशा में सहायता के लिये शामिल करने की पहल आरंभ की गई थी, जब तक की सरकार स्वयं इस दिशा में आत्मनिर्भर न हो जाए| क्योंकि इतनी बड़ी आबादी के लिये स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच सुनिश्चित करना आसान काम नहीं है।
  • परंतु, इस समस्त व्यवस्था में सबसे बड़ी परेशानी यह है कि जहाँ एक ओर अस्पतालों की संख्या के मामले में निजी क्षेत्र का विस्तार हुआ है वहीं दूसरी ओर इसका असर यह हुआ है कि इससे पूरे देश में स्वास्थ्य संबंधी लागतों में व्यापक असमानता भी आई हैं| 
  • भारत में 1.3 बिलियन आबादी के लिये स्वास्थ्य हेतु दी जाने वाली कुल सहायता राशि मात्र 650 मिलियन डॉलर है, जिसमें से सर्वाधिक राशि बाल और नवजात देखभाल (230 मिलियन डॉलर) और मातृत्व स्वास्थ्य (110 मिलियन डॉलर) के लिये मुहैया कराई जाती है|
  • शोधकर्ताओं के अनुसार, यदि वर्तमान प्रवृत्ति आगे भी जारी रहती है तो स्वास्थ्य पर होने वाले संपूर्ण व्यय में वर्ष 2014 (9.2 ट्रिलियन डॉलर) की तुलना में वर्ष 2040 में 24.5 ट्रिलियन डॉलर तक की वृद्धि होगी|
  • ध्यातव्य है कि उच्च आय वाले देशों में स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में तीव्र वृद्धि दर्ज़ की गई है जबकि निम्न आय वाले देशों (जहाँ इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है) में स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में कमी आई है|
  • वर्ष 2000 से 2010 तक स्वास्थ्य विकास पर होने वाले व्यय में वार्षिक रूप से 11.4% की वृद्धि हुई, परन्तु वर्ष 2010 से अभी तक इसमें प्रतिवर्ष मात्र 1.8% की ही वृद्धि दर्ज़ की गई है|