भारत का डीप ओशन मिशन | 06 Aug 2019

चर्चा में क्यों?

भारत इस साल अक्तूबर में अपना महत्त्वाकांक्षी 'डीप ओशन मिशन' (Deep Ocean Mission) लॉन्च करने के लिये तैयार है।

डीप ओशन मिशन

(Deep Ocean Mission)

  • उपग्रहों का डिज़ाइन तैयार करने और उन्हें लॉन्च करने में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के सफल कार्यों का अनुकरण करते हुए भारत सरकार ने महासागर के गहरे कोनों का पता लगाने के लिये ₹ 8,000 करोड़ की लागत से पाँच वर्षों हेतु यह योजना तैयार की है।
  • इसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये प्रमुख परिदेयों में से एक अपतटीय विलवणीकरण संयंत्र है जो ज्वारीय ऊर्जा के साथ काम करेगा, और साथ ही एक पनडुब्बी वाहन विकसित करना है जो बोर्ड पर तीन लोगों के साथ कम-से-कम 6,000 मीटर की गहराई तक जा सकता है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, यह मिशन 35 साल पहले इसरो द्वारा शुरू किये गए अंतरिक्ष अन्वेषण के समान गहरे महासागर का पता लगाने का प्रस्ताव करता है।
  • केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय इसका नोडल मंत्रालय है।
  • इन तकनीकी विकासों को सरकार की एक अम्ब्रेला (यानी समग्र); योजना महासागर सेवा, प्रौद्योगिकी, अवलोकन, संसाधन मॉडलिंग और विज्ञान (Ocean Services, Technology, Observations, Resources Modelling and Science-O-SMART) के तहत वित्तपोषित किया जाएगा।

समुद्र में खनन के निहितार्थ:

  • मिशन का एक मुख्य उद्देश्य समुद्र के नितल पर पॉलीमेटॉलिक नोड्यूल्स को खोजना और उनको बाहर निकालना है।
  • इनका आकार छोटे गोल आलू की तरह होता है जो मैंगनीज़, निकेल, कोबाल्ट, तांबा और लोहे के हाइड्रॉक्साइड जैसे खनिजों से बने हैं।
  • ये लगभग 6,000 मीटर की गहराई पर हिंद महासागर की सतह पर बिखरे हुए हैं, जिनका आकार कुछ मिलीमीटर से सेंटीमीटर तक के बीच हो सकता है।
  • इन धातुओं का इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, स्मार्टफोन, बैटरी और सौर पैनलों में भी किया जा सकता है।

समुद्री खनन के नियामक और विनियमन:

  • अंतर्राष्ट्रीय समुद्री प्राधिकरण (International Seabed Authority-ISA) एक स्वायत्त अंतर्राष्ट्रीय संगठन है, जो गहरे समुद्र में खनन के लिये क्षेत्र आवंटित करता है। इसकी स्थापना वर्ष 1982 में संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून पर अभिसमय (United Nations Convention on the Law of the Sea) के तहत हुई थी।
  • भारत वर्ष 1987 में पायनियर इन्वेस्टर (Pioneer Investor) का दर्जा प्राप्त करने वाला पहला देश था। भारत को मध्य हिंद महासागर बेसिन में नोड्यूल अन्वेषण के लिये लगभग 1.5 लाख वर्ग किमी. का क्षेत्र दिया गया था।
  • भारत ने वर्ष 2002 में ISA के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किये, जिसमें समुद्री सतह के पूर्ण संसाधन में से 50% भाग को छोड़ दिया और शेष 75,000 वर्ग किमी के क्षेत्र को बरकरार रखा गया।
  • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक विज्ञप्ति के अनुसार, इस क्षेत्र में अनुमानित पॉलिमेटॉलिक नोड्यूल संसाधन क्षमता 380 मिलियन टन (MT) है, जिसमें 4.7 मीट्रिक टन निकेल, 4.29 मीट्रिक टन तांबा, 0.55 मीट्रिक टन कोबाल्ट और 92.99 मीट्रिक टन मैंगनीज़ है।
  • आगे के अध्ययनों ने खनन क्षेत्र को 18,000 वर्ग किमी. तक सीमित करने में मदद की है जो प्रथम पीढ़ी का खनन स्थल होगा।

Deep Ocean Mission

अन्य देशों की स्थिति:

  • मध्य हिंद महासागर बेसिन के अतिरिक्त केंद्रीय प्रशांत महासागर में भी पॉलीमेटॉलिक नोड्यूल क्षेत्र की पहचान की गई है। इसे क्लेरियन-क्लिपर्टन ज़ोन (Clarion-Clipperton Zone) के रूप में जाना जाता है।
  • 29 ठेकेदारों (Contractors) के साथ गहरे समुद्र में पॉलीमेटॉलिक नोड्यूल, पॉलीमेटॉलिक सल्फाइड और कोबाल्ट-समृद्ध फेरोमैंगनी क्रस्ट्स की खोज के लिये 15 साल का एक अनुबंध किया। बाद में इस अनुबंध को वर्ष 2022 तक पाँच वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया था।
  • चीन, फ्राँस, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस और कुछ छोटे द्वीप जैसे कुक आइलैंड्स, किरिबाती भी गहरे समुद्र में खनन की दौड़ में शामिल हो गए हैं। अभी तक अधिकांश देशों ने उथले पानी में अपनी प्रौद्योगिकियों का परीक्षण किया है और वे गहरे समुद्र में निकासी शुरू नहीं कर पा रहे हैं।

भारत में खनन की स्थिति:

  • भारत की खनन साइट लगभग 5,500 मीटर की गहराई पर है, जहाँ पर उच्च दबाव और बेहद कम तापमान है।
  • भारत द्वारा रिमोट से संचालित वाहन और इन-सीटू सॉइल टेस्टर को 6,000 मीटर की गहराई में तैनात कर मध्य हिंद महासागर बेसिन में खनन क्षेत्र की पूरी समझ विकसित की जा रही है।
  • भारत द्वारा 6000 मीटर की गहराई के लिये विकसित की गई खनन मशीन अभी तक लगभग 900 मीटर तक चलने में सक्षम है, जल्द ही इस खनन मशीन की क्षमता को 5,500 मीटर तक विकसित करना है।
  • खनन में मौसम की स्थिति और जहाजों की उपलब्धता भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • नोड्यूल्स को सतह पर कैसे लाया जाए, यह समझने के लिये और भी परीक्षण किये जा रहे हैं।

खनन का पर्यावरणीय प्रभाव?

  • प्रकृति के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) के अनुसार, ये गहरे दूरस्थ स्थान अद्वितीय प्रजातियों के आवास हो सकते हैं, जिन्होंने स्वयं को कम ऑक्सीजन, कम प्रकाश, उच्च दबाव और बेहद कम तापमान जैसी स्थितियों के लिये अनुकूलित किया है।
  • इस तरह के खनन अभियान उनकी खोज के पहले ही उन्हें विलुप्त कर सकते हैं।
  • गहरे समुद्र की जैव-विविधता और पारिस्थितिकी की अभी तक काफी कम समझ है, इसलिये इनके पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना और पर्याप्त दिशा-निर्देशों को तैयार करना मुश्किल हो जाता है।
  • समुद्री सतह के अवसादी प्लम (Sediment Plumes) को लेकर भी पर्यावरणविद् चिंतित हैं क्योंकि खनन के दौरान उत्पन्न निलंबित कण ऊपरी महासागर की परतों में फिल्टर फीडर को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
  • खनन वाहनों से ध्वनि प्रदूषण, प्रकाश प्रदूषण और तेल के फैलाव जैसी अतिरिक्त चिंताएँ भी व्यक्त की जा रही हैं।

समुद्र में खनन की आर्थिक व्यवहार्यता:

  • ISA के नवीनतम अनुमान में कहा गया है कि यह वाणिज्यिक रूप से तब व्यावहारिक होगा जब प्रतिवर्ष लगभग तीन मिलियन टन खनन किया जाएगा।
  • प्रौद्योगिकी दक्षता और कुशलता को बढ़ाने के लिये अभी और भी अध्ययन किये जा रहे हैं।

स्रोत- द हिंदू