राज्यसभा में बहुमत का महत्त्व | 13 May 2020

प्रीलिम्स के लिये:

संयुक्त बैठक का आयोजन

मेन्स के लिये:

राज्यसभा की भूमिका, राज्यसभा में बहुमत का महत्त्व

चर्चा मे क्यों?

वर्तमान सरकार के पास लोकसभा में बहुमत होने के बावजूद राज्यसभा में बहुमत नहीं है। ऐसी स्थिति ने राज्यसभा की कानून निर्माण में भूमिका को पुन: चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, संघ के लिये एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी।
  • भारतीय संविधान, लोकसभा और राज्यसभा को कुछ अपवादों को छोड़कर कानून निर्माण की शक्तियों में समान अधिकार देता है।  

राज्यसभा का संगठन:

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-80, राज्यसभा के गठन का प्रावधान करता है। राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है, परंतु वर्तमान में यह संख्या 245 है। इनमें से 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा से संबंधित क्षेत्र के 12 सदस्यों को मनोनीत किया जाता है। 
  • यह एक स्थायी सदन है अर्थात् राज्यसभा का विघटन कभीं नहीं होता है। राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है। जबकि राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्यों का चुनाव दूसरे वर्ष में किया जाता है। जो इसकी स्थायी प्रकृति को दर्शाता है।

राज्यसभा में बहुमत का महत्त्व:

  • संसद के दोनों सदनों के संगठन तथा संरचना में व्यापक अंतर होने के बावजूद राज्यसभा में सरकार के बहुमत की उपस्थिति से कानून निर्माण प्रक्रिया, प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं हुई है। इसे निम्नलिखित उदाहरणों से समझ सकते हैं। 

बहुमत के अभाव के बावजूद विधेयकों का पास होना:

  • वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनावों से पिछले 68 वर्षों के दौरान सरकार राज्यसभा में केवल 29 वर्षों के लिये बहुमत में रही जबकि शेष 39 वर्षों के लिये अल्पमत में रही है।
  • इसके बावजूद वर्ष 1952 से राज्यसभा ने 5,472 बैठकों में 3,857 विधेयकों को पारित किया है। राज्यसभा ने अपनी 68 वर्षों की इस लंबी यात्रा में विधान निर्माण बहुत कम मामलों में एक 'अवरोधनकारी सदन' की भूमिका निभाई है।

संयुक्त बैठक का आयोजन:

  • संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाने का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-108 में है। इस प्रावधान के तहत लोकसभा से पारित किसी सामान्य विधेयक को राज्यसभा की मंज़ूरी न मिलने की स्थिति में संयुक्त बैठक के जरिये उसे पारित किया जा सकता है।
  • अब तक संसद ने दोनों सदनों के बीच मतभेदों को हल करने के लिये केवल तीन संयुक्त बैठकों का आयोजन किया गया है।
  • प्रथम, संयुक्त बैठक का आयोजन वर्ष 1961 में किया गया था, जब तत्कालीन सरकार को राज्यसभा में बहुमत होने के बावजूद 'दहेज निषेध विधेयक (Dowry Prohibition Bill)- 1959 के मामले में हार का सामना करना पड़ा था।
  • द्वितीय, संयुक्त बैठक वर्ष 1978 में आयोजित की गई जब राज्यसभा द्वारा ‘बैंकिंग सेवा आयोग (निरसन) विधेयक’ (Banking Services Commission (Repeal) Bill)- 1977 को अस्वीकार कर दिया गया।
  • तृतीय, संयुक्त बैठक का आयोजन वर्ष 2002 में ‘आतंकवाद निरोधक विधेयक’  (Prevention of Terrorism Bill)- 2002 के राज्यसभा में पारित नहीं होने पर किया गया।

सरकार को बहुमत होने के बावजूद हार का सामना करना पड़ा:

  • राज्यसभा को कुछ मामलों में प्रतिगामी सदन (Regressive House) के रूप में देखा जा सकता है जब सरकार को राज्यसभा में बहुमत होने के बावजूद हार का सामना करना पड़ा। 
  • जब पूर्ववर्ती शासकों की प्रिवी पर्स को समाप्त करने वाले 24वें संविधान संशोधन विधेयक (Constitution (Twenty-fourth Amendment) Bill)-1970 को  लोकसभा द्वारा पारित करने के बावजूद, राज्यसभा द्वारा अस्वीकार कर दिया।
  • वर्ष 1989 में संविधान (64वाँ और 65वाँ संशोधन) विधेयक (Constitution (Sixty-fourth and Sixty-fifth Amendment) Bills); जिसमें स्थानीय सरकारों को सशक्त करने संबंधी प्रावधान शामिल थे, के संबंध में सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद हार का सामना करना पड़ा।

संसद के दोनों सदनों के मध्य मतभेद:

  • दोनों सदनों के बीच सौहार्द की भावना में निम्नलिखित कुछ अवसरों पर मतभेद देखने को मिला:
  • वर्ष 1952 में राज्यसभा के सदस्यों को 'लोक लेखा समिति' (Public Accounts Committee) में शामिल नहीं करने के मामले; 
  • आयकर (संशोधन) विधेयक (Income Tax (Amendment) Bill)- 1953 को धन विधेयक के रूप में पेश करने के मामले;
  • ‘प्रमुख बंदरगाह न्यास विधेयक’ (Major Port Trust Bill)-1963 को राज्यसभा सदस्यों को शामिल किये बिना लोकसभा की चयन समिति को पेश करने के मामले पर;
  • वर्ष 1954, 1971, 1972 और 1975 में राज्यसभा के विघटित करने के लिये लोकसभा द्वारा प्रस्ताव पारित किये गए। हालाँकि इस प्रकार के प्रयास विफल रहे।

धन विधेयक के संबंध में भूमिका:

  • संविधान के अनुच्छेद 110(3) के अनुसार कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इसका निर्धारण लोकसभा अध्यक्ष करता है। राज्यसभा धन विधेयक को अधिकतम 14 दिनों के लिये अपने पास रख सकती है। 
  • इस अवधि में राज्यसभा धन विधेयक को संशोधन अथवा बिना संशोधन के साथ लोक सभा को लौटाने को बाध्य है। यद्यपि लोक सभा इन संशोधन प्रस्तावों को ठुकरा सकती है।
  • 'त्रावणकोर कोचीन विनियोग विधेयक'- 1956, आयकर विधेयक- 1961 जैसे कुछ अवसरों के समय राज्यसभा द्वारा धन में किये गए संशोधनों को लोक सभा द्वारा स्वीकार किया गया था। परंतु यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि उस समय तात्कालिक सरकार को राज्यसभा में भी बहुमत प्राप्त था। 

महत्त्वपूर्ण विधेयकों पर व्यापक चर्चा: 

  • कुछ विधेयकों जैसे भ्रष्टाचार निरोधक विधेयक (Prevention of Corruption Bill)-1987 को पास करने में राज्यसभा द्वारा बहुत लंबा समय लिया गया क्योंकि वह इन विधेयकों पर व्यापक आम सहमति बनाना चाहती थी। 
  • हालाँकि कुछ मामलों में जैसे- 25 अगस्त, 1994 को सरकार का राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के बावजूद एक दिन में पाँच संविधान संशोधन विधेयक पारित किये गए। राज्यसभा ने लोकसभा द्वारा पारित कई विधेयकों में संशोधन भी किये हैं तथा इन संशोधनों को लोकसभा द्वारा भी स्वीकार किया गया है।

वर्तमान सरकार में राज्यसभा की भूमिका:

  • वर्तमान सरकार को राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के बावजूद जीएसटी, दिवाला और दिवालियापन संहिता, तीन तलाक, गैरकानूनी गतिविधियों, जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन, नागरिकता संशोधन आदि से संबंधित ऐतिहासिक कानून पारित किये गए हैं। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राज्यसभा में सदस्य संख्या कानून बनाने के संबंध में बड़ा मुद्दा नहीं है।

राज्यसभा की उत्पादकता:

  • सचिवालय विश्लेषण के अनुसार, वर्ष 1997 तक राज्यसभा की उत्पादकता 100% या उससे भी अधिक रही है। हालाँकि पिछले 23 वर्षों ने राज्यसभा में बढ़ती रुकावटों के कारण राज्यसभा की उत्पादकता में लगातार कमी देखी गई है। 
  • वर्ष 1998-2004 के दौरान राज्यसभा की उत्पादकता में 87% तक की कमी देखी गई है। वर्ष 2005-14 के दौरान राज्यसभा की उत्पादकता 76% रही जबकि वर्ष 2015-19 के दौरान उत्पादकता 61% देखी गई।
  • वर्ष 1978-2004 के दौरान सदन के कुल कार्यात्मक समय में राज्यसभा का हिस्सा 39.50% था। जिसमें लगातार कमी देखी गई है तथा यह वर्ष 2005-14 के दौरान घटकर 21.99% तथा वर्ष 2015 के बाद से घटकर 12.34% रह गया है।
  • राज्यसभा की उत्पादकता में गिरावट मुख्य रूप से प्रश्नकाल में व्यवधान, विधेयकों को बिना चर्चा के पारित करने के रूप में देखी गई है। 
  • हालाँकि राज्यसभा लघु अवधि की चर्चा, शून्य काल, बजट पर चर्चा, धन्यवाद प्रस्ताव आदि के तहत विचार-विमर्श के समय में लगातार वृद्धि देखी गई है। यह वर्ष 1978-2004 के दौरान 33.54% से बढ़कर वर्ष 2005-2014 के दौरान 41.42% तथा वर्ष 2015-19 के दौरान 46.59% हो गया है। इन प्रस्तावों पर चर्चा के समय में वृद्धि के बावजूद राज्यसभा की उत्पादकता में कमी देखी गई है। 

निष्कर्ष:

  • राज्यसभा एवं लोकसभा दोनों सदनों ने वर्ष 1952 के बाद से देश के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाने में रचनात्मक भागीदार की भूमिका निभाई है। दोनों सदनों की संरचना में व्यापक अंतर होने के बावजूद दोनों सदनों ने सहयोग और सहकारिता की भावना के आधार पर कार्य किया है। अत: राज्यसभा एक  'व्यवधानकारी' सदन न होकर एक ‘रचनात्मक’ सदन है।

स्रोत: द हिंदू