लिंग परीक्षण पर आधारित विज्ञापनों को विनियमित करने का सरकार का प्रयास | 15 Dec 2017

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में स्थानीय कानूनों के तहत प्रतिबंधित सेक्स-निर्धारण परीक्षणों से संबंधित विज्ञापन और सामग्री को विनियमित करने के कार्य के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि इस तरह के मुद्दों के संदर्भ में सरकार द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिये। 

मुद्दा क्या है?

  • वर्ष 2008 में एक कार्यकर्त्ता द्वारा स्थानीय कानूनों का पालन करने हेतु सर्च इंजन (search engines) के संबंध में एक सार्वजनिक हित याचिका (public interest litigation - PIL) दायर की गई ।
  • इस याचिका के प्रत्युत्तर में देश भर में लिंग-अनुपात के गिरते स्तर को मद्देनजर रखते हुए लिंग-जाँच को प्रतिबंधित किया गया। 
  • सरकार द्वारा ऐसी शिकायतों के संबंध में सर्च इंजन के साथ अंतरफलक के रूप में कार्य करने के लिये एक नोडल बॉडी की स्थापना की गई।
  • इसके अतिरिक्त न्यायालय द्वारा इस संबंध में कई अन्य आदेश भी पारित किये गए, जिसमें सर्च इंजनों को यह चेतावनी देते हुए स्पष्ट किया गया कि या तो ये लिंग-परीक्षण के संबंध में स्थानीय कानूनों का पालन करें या फिर कार्य को बंद कर दें।

पी.सी.पी.एन.डी.टी. अधिनियम क्या है?

  • भारत में लिंग-अनुपात में गिरावट के प्रत्युत्तर में पी.सी. एंड पी.एन.डी.टी. अधिनियम (Pre-conception & Pre-natal Diagnostics Techniques - PC & PNDT Act), 1994 लागू किया गया। 

उद्देश्य

  • इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य है गर्भधारण से पहले या बाद में लिंग चयन तकनीकों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना और सेक्स चयनात्मक गर्भपात के लिये जन्म के पूर्व निदान तकनीक के दुरुपयोग को रोकना।

कौन-कौन से कृत्य अपराध की श्रेणी में आते हैं?

  • इस अधिनियम के तहत अपराधों में –
    ⇒ अपंजीकृत इकाइयों में जन्म के पूर्व निदान तकनीक के संचालन में मदद करना।
    ⇒ किसी पुरुष या महिला पर यौन चयन हेतु दबाव बनाना।
    ⇒ भ्रूण के लिंग का पता लगाने में सक्षम किसी भी अल्ट्रा-ध्वनियुक्त मशीन या किसी अन्य उपकरण के कार्य, बिक्री, वितरण, आपूर्ति आदि के संबंध में वर्णित उद्देश्य के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिये पी.एन.डी. परीक्षण करने जैसे कृत्यों को अपराध की श्रेणी में शामिल किया गया है। 

अधिनियम का संशोधित रूप 

  • लिंग चयन में प्रयुक्त तकनीक के विनियमन में सुधार के लिये इस अधिनियम में वर्ष 2003 में संशोधन किया गया। इस संशोधित अधिनियम के दायरे में पूर्व-अवधारणा सेक्स चयन और अल्ट्रासाउंड तकनीक को शमिल किया गया।
  • इस संशोधन के तहत केंद्रीय पर्यवेक्षी बोर्ड को और अधिक सशक्त बनाया गया तथा राज्य स्तर पर पर्यवेक्षी बोर्ड का गठन किया गया। 
  • वर्ष 1988 में, महाराष्ट्र पूर्व प्रसव नैदानिक ​​तकनीक अधिनियम (Maharashtra Regulation of Pre-natal Diagnostic Techniques Act) के नियमन के माध्यम से प्रसवोत्तर लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध लगाने वाला देश का पहला राज्य बन गया।

मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट 1971

  • सरकार गर्भपात कानून यथा मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट 1971(MTP-1971) में बदलाव कर गर्भपात की विधिक सीमा को 24 हफ्तों तक के लिये बढ़ा सकती है। अर्थात् गर्भवती महिला को 24 हफ्तों तक गर्भपात करने का अधिकार मिल जाएगा।
  • इस संदर्भ में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव किया गया है।इसके अंतर्गत गर्भपात के लिये तय विधिक समय सीमा जो अभी 20 हफ्ते की है उसे आगे बढ़ाने का प्रस्ताव है तथा ये कानून वैकल्पिक विधियों जैसे आयुष (AYUSH) के अंतर्गत कार्यरत चिकित्सकों को भी नॉन-सर्जिकल विधि से  गर्भपात करवाने के अधिकार देने का प्रस्ताव करता है। 
  • आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में प्रत्येक दो घंटे में एक महिला की मृत्यु सिर्फ असुरक्षित गर्भपात के कारणों से हो जाती है। भारत में प्रत्येक वर्ष किये जाने वाले कुल गर्भपात में से केवल 10% ही कानूनी रूप से दर्ज़ किये जाते हैं। 
  • उदाहरणस्वरूप 2015 में केवल 7 लाख गर्भपात ही सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज़ किये गए, जबकि शेष आकलित गर्भपात गैर कानूनी ढंग से चल रहे क्लिनिक तथा झोला- छाप डॉक्टरों के द्वारा चोरी छुपे किये गए। 
  • इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार के आकलन के अनुसार देश में होने वाली मातृ म्रत्यु की कुल संख्या में   गर्भपात संबंधी होने वाली मौतों की संख्या लगभग 8% है।
  • गर्भपात की विधिक सीमा को  20 हफ्ते से बढ़ाने का प्रश्न  सर्वप्रथम 2008 में बॉम्बे उच्च न्यायालय के एक मामले में आया, जब एक दम्पति ने अपने 26 हफ्ते के गर्भ की गर्भपात कराने की स्वीकृति के लिये याचिका दायर की।
  • वस्तुतः डॉक्टरों को जब ये पता चला कि गर्भ में पल रहा शिशु हृदय रोग से ग्रसित है, तब उन्होंने दंपत्ति को गर्भपात करने की सलाह दी। हालाँकि न्यायालय ने उक्त मामले में  याचिका खारिज़ करते हुए स्वीकृति नहीं दी, परन्तु न्यायालय के समक्ष स्वास्थ्य कारणों से गर्भपात की स्वीकृति के लिये   याचिकाएँ आज भी आ रहीं है। 
  • चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि 18 हफ्तों से पूर्व गर्भ की समस्याओं का आकलन नहीं किया जा सकता है। इसीलिये इस तय समय-सीमा के दो हफ्ते के भीतर ही गर्भपात का फैसला ले पाना अधिकतर मामलों में मुश्किल हो जाता है। 
  • मूलतः दंपत्तियों को स्वास्थ्य  कारणों व भावनात्मक कारणों से गर्भपात के लिये तैयार होने में समय लगता है| अतः इनका मानना है कि देश में होने वाले अधिकतर गर्भपातों का कारण यह भी है। 
  • इसके अतरिक्त  MTP-1971 कानून में एक और महत्त्वपूर्ण बदलाव किये जाने का प्रस्ताव में ये भी है कि ये कानून विवाहित एवं गैर-विवाहित दोनों  दशाओं में महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करेगा। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस पर कहा है कि पूर्व के कानून में वर्णित “विवाहित” शब्द को हटा दिया जाए।