FRDI विधेयक की विफलता : नीति-निर्माण में अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता | 20 Jul 2018

संदर्भ

वित्तीय समाधान और जमा राशि बीमा विधेयक (FRDI), 2017 पर केंद्र द्वारा अचानक लिया गया यू-टर्न नीति निर्माण में सावधानी बरतने की आवश्यकता को दर्शाता है। विधेयक, जिसे स्पष्ट रूप से वित्तीय प्रणाली में सुधार और बैंकों की स्थिति को मज़बूत करने के उद्देश्य से लक्षित किया गया था, को सार्वजनिक प्रतिक्रिया के कारण बीच में ही छोड़ना पड़ा।

नोट : सरकार द्वारा FRDI विधेयक को वापिस लेने के फैसले से संबंधित न्यूज़ 19 जुलाई, 2018 को अपलोड की गई थी। यहाँ हम इस विषय का विश्लेषण करेंगे।

जमा राशि की सुरक्षा को लेकर भयभीत हुआ आम आदमी

  • शायद स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब आम आदमी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जमा राशि की सुरक्षा को लेकर भयभीत था। पेंशनभोगी या एक वृद्ध माँ जिसने अपने जीवन भर की जमा पूंजी बैंक में रखी थी आदि जैसे बहुत से लोग इस बारे में सवाल पूछते हुए नज़र आए कि बैंक उनकी जमापूंजी को हड़प लेंगे ।

विधेयक के कारण बैंकों को भी हुआ नुकसान

  • पिछले वर्ष कई जमाकर्त्ताओं ने इस विधेयक के कारण बैंकों से अपनी जमा राशि वापिस ले ली थी।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के आँकड़ों के अनुसार, सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की कुल जमा पूंजी अप्रैल 2018 में 116.84 लाख करोड़ रुपए से घटकर मई 2018 के अंत तक 116.52 लाख करोड़ हो गई थी।
  • मांग जमा (Demand Deposit) और सावधि जमा (Fixed Deposit) 1,53,000 करोड़ रुपए से गिरकर 1,52,100 करोड़ रुपए हो गई थी।

देश में नकदी की कमी का कारण भी FRDI

  • हालाँकि इन सभी के लिये FRDI विधेयक को पूरी तरह से ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है फिर भी यह एक प्रवृत्ति को इंगित कर सकता है।
  • कुछ ही समय पहले पूरे देश में नकदी के संकट की स्थिति दिखाई दी और इस स्थिति को वरिष्ठ बैंकरों ने इस विधेयक के प्रभाव से जोड़ा था।

बैंकों की छवि हुई खराब

  • एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो 2016 में बिना किसी पूर्व तयारी के विमुद्रीकरण जैसी विशाल योजना को लागू करना,  ज़रूरतों के अनुसार बैंकों द्वारा ग्राहकों को पर्याप्त नकदी प्रदान करने में असमर्थता और FRDI विधेयक ने निश्चित रूप से बैंकों की छवि को ख़राब किया है तथा इससे बैंकों पर लोगों का विश्वास कम हुआ है।

नीति-निर्माताओं और जनता के बीच संबंधों की विफलता

  • उपरोक्त घटनाएँ नीति-निर्माताओं और आम जनता के बीच संबंधों की पूर्ण विफलता को दर्शाती हैं।
  • यदि सरकार का इरादा सिस्टम को साफ करना था, तो पहले पूर्ण पारदर्शिता के साथ बड़े पैमाने पर संदेश अभियान चलाना चाहिये था लेकिन सरकार इस पूरी प्रक्रिया में चूक गई।
  • प्रस्तावित विधेयक के 'बेल-इन'  प्रावधान की स्पष्टता में कमी और जमा बीमा क्रेडिट गारंटी अधिनियम के मौजूदा प्रावधानों पर उत्पन्न भ्रम के कारण भी नुकसान हुआ।
  • इस पूरे घटनाक्रम में आम आदमी सबसे अधिक परेशान था जिसने कई ऐसे प्रश्नों के जवाब तलाशने की कोशिश की जिनके बारे में उसने यह नहीं सोचा था कि कभी ऐसे प्रश्न भी सामने आएंगे।

निष्कर्ष

  • सरकार को जनता के बीच आत्मविश्वास पैदा करने और बिना किसी शोर-शराबे के बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों को शुरू करने के लिये और अधिक व्यावहारिक एवं पारदर्शी नीतियाँ लागू करने की आवश्यकता है।