उत्तराखंड वनाग्नि | 14 May 2019

चर्चा में क्यों?

उत्तराखंड के अल्मोड़ा एवं नैनीताल ज़िलों में बड़े पैमाने पर वनाग्नि ने एक बार फिर से आपदा प्रबंधन, पर्यावरणीय सुरक्षा, बहुमूल्य वनस्पति एवं वन्यजीवों के संरक्षण जैसे बहुत से प्रश्नों पर विचार करने को विवश कर दिया है। प्रत्येक वर्ष गर्मी का मौसम आते ही देश के पहाड़ी राज्यों, विशेषकर उत्तराखंड के वनों में आग लगने का सिलसिला शुरू हो जाता है। वार्षिक आयोजन जैसी बन चुकी उत्तराखंड के वनों की यह आग प्रत्येक वर्ष विकराल होती जा रही है, जो न केवल जंगल, वन्यजीवन और वनस्पति के लिये नए खतरे उत्पन्न कर रही है, बल्कि समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर अब इसका प्रभाव नज़र आने लगा है।

क्या है कारण?

वनाग्नि के कारण केवल वनों को ही नुकसान नहीं पहुँचता है बल्कि उपजाऊ मिट्टी के कटाव में भी तेज़ी आती है, इतना ही नहीं जल संभरण के कार्य में भी बाधा उत्पन्न होती है। वनाग्नि का बढ़ता संकट वन्यजीवों के अस्तित्व के लिये समस्या उत्पन्न करता है। यूँ तो वनों में आग लगने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन कुछ ऐसे वास्तविक कारण हैं, जिनकी वज़ह से विशेषकर गर्मियों के मौसम में आग लगने का खतरा हमेशा बना रहता है। उदाहरण के तौर पर-

  • मज़दूरों द्वारा शहद, साल के बीज जैसे कुछ उत्पादों को इकट्ठा करने के लिये जान-बूझकर आग लगाना।
  • कुछ मामलों में जंगल में काम कर रहे मज़दूरों, वहाँ से गुज़रने वाले लोगों या चरवाहों द्वारा गलती से जलती हुई किसी वस्तु/सामग्री आदि को वहाँ छोड़ देना।
  • आस-पास के गाँव के लोगों द्वारा दुर्भावना से आग लगाना।
  • मवेशियों के लिये चारा उपलब्ध कराने हेतु आग लगाना।
  • बिजली के तारों का वनों से होकर गुज़रना।
  • प्राकृतिक कारण यथा- बिजली का गिरना, पेड़ की सूखी पत्तियों के मध्य घर्षण उत्पन्न होना, तापमान में वृद्धि होना आदि की वज़ह से वनों में आग लगने की घटनाएँ सामने आती हैं।
  • परंतु, यदि हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो वनों में अतिशय मानवीय अतिक्रमण/हस्तक्षेप के कारण इस प्रकार की घटनाओं में बारंबरता देखने को मिली है।

नकारात्मक प्रभाव

  • जैव-विविधता को हानि।
  • प्रदूषण की समस्या में वृद्धि।
  • मृदा की उर्वरता में कमी।
  • वैश्विक तापन में सहायक गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि।
  • खाद्य श्रृंखला में असुंतलन।
  • आर्थिक क्षति।

सकारात्मक प्रभाव

  • वनाग्नि में कुछ पेड़-पौधे जलकर नष्ट हो जाते हैं, जबकि कुछ ऐसे भी वृक्ष होते हैं जो जलकर पूरी तरह नष्ट नहीं होते है, साथ ही कुछ सुप्त बीज आग में जलकर पुनर्जीवित हो जाते हैं। वास्तव में कई स्थानिक पेड़-पौधे आग के साथ विकसित होते हैं, इस प्रकार आग कई प्रजातियों के निष्क्रिय बीजों को पुनर्जीवित करने में मदद करती है।
  • कुछ वैज्ञानिक वनाग्नि को पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिये पूरी तरह से हानिकारक मानते हैं जबकि इस संबंध में हुए बहुत से अध्ययनों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वनाग्नि से अधिकांशतः आक्रामक प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं। इसे एक उदाहरण से समझते हैं, कुछ समय पहले कर्नाटक के बिलीगिरी रंगास्वामी मंदिर टाइगर रिज़र्व में आदिवासी समुदायों में प्रचलित ‘कूड़े में लगाई जाने वाली आग’ की परंपरा का बहिष्कार करने पर लैंटाना प्रजाति की वनस्पति इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि उसने वहाँ के स्थानिक पौधों का अतिक्रमण कर लिया।
  • एक अन्य अध्ययन के अनुसार, एक परजीवी झाड़ी/हेयरी मिस्टलेट (Hairy Mistletoe) परिपक्व वृक्षों को प्रभावित करती है। इसके फलस्वरूप जंगली आँवले के वृक्षों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई। हालाँकि यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि ये सभी आँकड़े छोटे स्तर पर वनों में लगने वाली आग से संबंधित है; न कि वृहद स्तर पर।

समाधान

  • हालाँकि इस संबंध में प्रभावी कार्यवाही करने के लिये वन अधिकारियों और स्थानीय जनजातियों द्वारा आपसी बातचीत से इस मुद्दे को सुलझाया जाना चाहिये ताकि भविष्य में ऐसी किसी भी दुर्घटना को होने से रोका जा सके।
  • वनों में रहने वाले अधिकतर जनजातीय समुदायों को वन्यजीवों की भाँति वनों में रहने तथा वन उत्पादों का इस्तेमाल करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इन्हें कृषि कार्यों के लिये वनों की भूमि को जोतने का भी पूर्ण अधिकार प्राप्त है।
  • जंगली हाथियों द्वारा इन अधिवासी लोगों की फसलों को नुकसान पहुँचाने तथा जंगली जानवरों द्वारा बाड़े में बँधे मवेशियों को हानि पहुँचाए जाने के कारण अक्सर आदिवासी लोग जंगलों को आग लगा देते हैं ताकि इससे वन्यजीवों को हानि पहुँचाई जा सके।
  • वनाग्नि को फैलने से रोक पाना संभव नहीं है। अत: इसके लिये अग्नि रेखाएँ (Fire lines) निर्धारित किये जाने की आवश्यकता हैं। वस्तुतः अग्नि ज़मीन पर खिंची वैसी रेखाएँ होती हैं जो कि वनस्पतियों तथा घास के मध्य विभाजन करते हुए वनाग्नि को फैलने से रोकती हैं। चूँकि ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में वनों में सूखी पत्तियों की भरमार होती हैं अत: इस समय वनों की किसी भी भावी दुर्घटना से सुरक्षा किये जाने की अत्यधिक आवश्यकता होती है।

एन.जी.टी. का आरोप

  • राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (National Green Tribunal - NGT) द्वारा भी पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पर देश के सभी राज्यों में वनाग्नि के प्रबंधन के विषय में कोई ठोस योजना बनाने में कोताही बरतने का आरोप लगाया जाता रहा है।

एकीकृत वन संरक्षण योजना

  • एकीकृत वन संरक्षण योजना (Integrated Forest Protection Scheme-IFPS) के अंतर्गत प्रत्येक राज्य को वनाग्नि प्रबंधन योजना का प्रारूप तैयार करना होता है। इस प्रारूप के अंतर्गत वनाग्नि को नियंत्रित एवं प्रबंधित करने संबंधी सभी घटकों को शामिल करना अनिवार्य है।
  • इन घटकों के अंतर्गत फायर लाइन्स का निर्माण किया जाने का भी प्रावधान है। इन फायर लाइन्स में वैसी वनस्पतियों (सूखी पत्तियों एवं घास युक्त वनस्पति) को उगाया जाएगा जो आग को फैलने से रोकने में कारगर साबित हों।
  • इसके अतिरिक्त, कुछ अन्य उपायों जैसे - वॉच टावर का निर्माण करने तथा ठेका श्रमिकों द्वारा रोपिंग (roping) की स्थापना करने पर अधिक बल दिया जाता है ताकि ज़मीनी स्तर पर आग के संबंध में सटीक निगरानी एवं प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित किया जा सके।