भारत में अभिरक्षा में यातना | 04 Jul 2025

प्रिलिम्स के लिये:

अनुसूचित जाति (SC), अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 20(1), अनुच्छेद 20(3), मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR), नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय वाचा, UNCAT, NHRC।                      

मेन्स के लिये:

भारत में अभिरक्षा में यातना की स्थिति, अभिरक्षा में यातना को रोकने हेतु आवश्यक उपाय।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

तमिलनाडु में हुई अभिरक्षा में मृत्यु ने एक बार फिर अभिरक्षा में यातना के मुद्दे को प्रमुखता से उजागर कर दिया है।

अभिरक्षा में यातना क्या है?

  • परिचय: अभिरक्षा/हिरासत में यातना (Custodial Torture) का तात्पर्य उन व्यक्तियों को शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुँचाने से है, जो पुलिस या किसी अन्य प्राधिकरण की अभिरक्षा में होते हैं।
    • यह मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा का गंभीर उल्लंघन है तथा प्रायः अभिरक्षा में मृत्यु का कारण बनता है — यानी जब कोई व्यक्ति अभिरक्षा में रहते हुए मर जाता है।
  • अभिरक्षा में यातना के प्रकार:
    • शारीरिक यातना (Physical Torture): मारपीट, बिजली के झटके देना, दम घोंटना, यौन हिंसा, जबरन तनावपूर्ण स्थिति में रखना और चिकित्सकीय देखभाल से वंचित करना।
    • मानसिक प्रताड़ना (Psychological Torture): धमकियाँ, अपमान, नींद से वंचित करना, एकांत कारावास और मृत्युदंड की धमकी (Mock executions)।
    • अत्यधिक दबाव डालकर निरुद्धों से अपराध स्वीकार करवाना।
  • भारत में अभिरक्षा में यातना:
    • अभिरक्षा में मृत्यु: वर्ष 2016 से 2022 के बीच, तमिलनाडु (दक्षिणी राज्यों में सबसे अधिक) ने 490 अभिरक्षा में मृत्यु की रिपोर्ट की, जबकि पूरे देश में यह आँकड़ा 11,656 रहा। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 2,630 मृत्यु दर्ज की गईं।
    • निवारक निरोध कानून (Preventive Detention Law) का दुरुपयोग: वर्ष 2022 में, तमिलनाडु ने निवारक कानूनों के तहत 2,129 लोगों को अभिरक्षा में लिया, जो पूरे भारत की कुल संख्या का लगभग आधा है।
      • अनुसूचित जातियों (SC) पर अत्यधिक यातना: तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या केवल 20% होने के बावजूद अभिरक्षा में लिये गए लोगों में उनका अनुपात 38.5% रहा, जो उनके खिलाफ अभिरक्षा में अत्यधिक हिंसा को दर्शाता है।

अभिरक्षा में यातना के विरुद्ध संवैधानिक और विधिक सुरक्षा उपाय क्या हैं?

संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद 14: अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता सुनिश्चित करता है तथा यह पुष्टि करता है कि विधि प्रवर्तन एजेंसियों या अधिकारियों सहित कोई भी विधि से ऊपर नहीं है।
  • अनुच्छेद 21: अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें यातना तथा अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दंड से स्वतंत्रता भी शामिल है।
  • अनुच्छेद 20(1): अनुच्छेद 20(1) यह प्रावधान करता है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे कार्य के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जो उस समय विधि के तहत अपराध नहीं था जब वह किया गया था। यह अत्यधिक या भूतलक्षी दंड को प्रतिबंधित करता है।
  • अनुच्छेद 20(3): अनुच्छेद 20(3) किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिये विवश किये जाने से सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि किसी आरोपी से यातना या दबाव द्वारा स्वीकारोक्ति नहीं करवाई जा सके।

विधिक प्रावधान

  • भारतीय न्याय संहिता (2023) की धारा 120: यह उन व्यक्तियों को दंडित करती है जो किसी संस्वीकृति या जानकारी प्राप्त करने के लिये जानबूझकर हिंसा या प्रपीड़न के माध्यम से चोट या गंभीर चोट पहुँचाते हैं।
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS, 2023) की धारा 35: यह प्रावधान करता है कि गिरफ्तारी और अभिरक्षा केवल वैध कारणों तथा प्रलेखित प्रक्रिया के अनुसार ही की जानी चाहिये।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023) की धारा 22: यह ऐसे सभी स्वीकारोक्तियों को अमान्य घोषित करता है जो उत्प्रेरणा, धमकी, प्रपीड़न या किसी वादे के तहत की गई हों।

अंतर्राष्ट्रीय प्रावधान

  • संयुक्त राष्ट्र चार्टर, 1945: यह प्रावधान करता है कि कैदियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाए तथा यह सुनिश्चित करता है कि उनके मूलभूत अधिकार और स्वतंत्रताएँ नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (ICCPR) के तहत सुरक्षित रहें (भारत इसका हस्ताक्षरकर्त्ता है)।
  • मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (1948): यह व्यक्तियों को यातना, क्रूर व्यवहार और जबरन गायब किये जाने (Enforced disappearances) से संरक्षण प्रदान करती है तथा सम्मान व सुरक्षा के अधिकार की गारंटी देती है।

अभिरक्षा में यातना पर अंकुश लगाने में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • विशिष्ट यातना-विरोधी कानून का अभाव: भारत ने वर्ष 1997 में UNCAT पर हस्ताक्षर तो किये हैं, लेकिन अब तक उसे अनुमोदित नहीं किया है।
    • हालाँकि मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 जैसे कुछ कानूनों में यातना को अप्रत्यक्ष रूप से संबोधित किया गया है, लेकिन यातना को अपराध घोषित करने वाला कोई स्वतंत्र, विशिष्ट कानून नहीं है। इससे वर्तमान प्रावधान अस्पष्ट, अपर्याप्त और कड़ी सज़ा से रहित रहते हैं।
  • कमज़ोर प्रवर्तन और दंड से मुक्ति: वर्ष 2017 से 2022 के बीच अभिरक्षा में मृत्यु के 345 न्यायिक जाँच मामलों में केवल 123 गिरफ्तारियाँ और 79 चार्जशीट दाखिल हुईं, लेकिन एक भी दोषसिद्धि (Conviction) नहीं हुई।
    • अवैध अभिरक्षा, यातना या मृत्यु से जुड़े 74 मानवाधिकार उल्लंघन मामलों में पुलिस के विरुद्ध केवल 3 दोषसिद्धि दर्ज की गई।
  • अधिभारित संस्थाएँ: मानवाधिकार आयोग (NHRC/SHRC) के पास बाध्यकारी शक्तियों का अभाव है और वे सरकारी वित्त पोषण पर निर्भर हैं, जिससे उनकी प्रभावशीलता सीमित हो जाती है। 
    • जेलों में अत्यधिक भीड़भाड़ (130% क्षमता पर) और स्वतंत्र निगरानी की कमी अनेक राज्यों में प्रभावी पुलिस शिकायत प्राधिकरण का अभाव, ऐसे हालात उत्पन्न करते हैं जो उत्पीड़न और अमानवीय व्यवहार को बढ़ावा देते हैं।
  • पीड़ितों में प्रतिहिंसा का भय: पीड़ित प्रायः प्रताड़ना की शिकायत दर्ज कराने से बचते हैं क्योंकि उन्हें प्रतिहिंसा का भय, कानूनी सहायता का अभाव और शिकायत दर्ज करते समय धमकियों का सामना करना पड़ता है।
    • हाशिये पर मौजूद समूह (दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी) विशेष रूप से असुरक्षित हैं क्योंकि पीड़ित संरक्षण और मुआवज़ा तंत्र अपर्याप्त हैं।
  • न्यायिक और प्रणालीगत विफलताएँ: लंबी न्यायिक प्रक्रियाएँ, अत्यधिक भारग्रस्त न्यायालयों, साक्षियों को डराए जाने और त्वरित न्यायालयों की अपर्याप्तता के कारण अभिरक्षा में मृत्यु के मामलों में न्याय में देरी होती है।
    • इसके अतिरिक्त, डी.के. बसु दिशानिर्देशों (1996) जिनमें गिरफ्तारी मेमो, चिकित्सकीय परीक्षण और कानूनी सहायता की अनिवार्यता शामिल है - का कमज़ोर अनुपालन, साथ ही मजिस्ट्रेटी जाँचों की अक्षमता, प्रणालीगत विफलता और जवाबदेही लागू करने या पुलिस व्यवस्था में सुधार लाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को दर्शाता है।

अभिरक्षा में यातना रोकने के लिये मुख्य सिफारिशें

  • भारत का विधि आयोग: अपनी 273वीं रिपोर्ट (2017) में भारत के विधि आयोग ने UNCAT 1984, की पुष्टि करने तथा उसके प्रावधानों को लागू करने हेतु एक विशिष्ट कानून बनाने की सिफारिश की, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यातना को दंडनीय अपराध घोषित करना अत्यंत आवश्यक है।
    • आयोग ने सरकार के विचारार्थ एक मसौदा यातना निवारण विधेयक, 2017 भी प्रस्तुत किया।
  • न्यायिक निर्णय:
    • डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामला, 1997: इस निर्णय में अभिरक्षा में यातना की रोकथाम और गिरफ्तारी तथा अभिरक्षण में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये दिशानिर्देश निर्धारित किये गए।
      • इसने यह पुष्टि की कि यद्यपि पुलिस को जाँच करने का अधिकार है, लेकिन उन्हें थर्ड डिग्री तरीकों के प्रयोग की अनुमति नहीं है, और यदि किसी लोक सेवक द्वारा अभिरक्षा में हिंसा की जाती है, तो राज्य को भी उत्तरदायी ठहराया जाता है।
    • उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राम सागर यादव मामला, 1985: अभिरक्षा में यातना की घटनाओं में दोषमुक्ति सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी संबंधित पुलिस अधिकारी पर होती है।
    • नंबी नारायणन मामला, 2018: इस निर्णय में झूठे अभियोजन और अभिरक्षा में हुए दुरुपयोग से उत्पन्न गंभीर मानसिक प्रभावों पर बल दिया गया।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC): NHRC ने सिफारिश की कि ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को अभिरक्षा में यातना की किसी भी घटना की सूचना 24 घंटे के भीतर महासचिव को देनी चाहिये।
    • अनुपालन में विफलता को घटना को छिपाने या दबाने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।

भारत में अभिरक्षा में यातना की समस्या के समाधान हेतु क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • कानूनी ढाँचे को सुदृढ़ बनाना: यातना निवारण हेतु एक व्यापक कानून बनाया जाए, जिसमें स्पष्ट दंडात्मक प्रावधान तथा पीड़ितों के लिये मुआवज़े की व्यवस्था हो, और जो UNCAT मानकों के अनुरूप हो।
    • भारत को UNCAT की पुष्टि भी करनी चाहिये, जिससे यातना के अंत के प्रति उसकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता मज़बूत हो।
  • संस्थागत जवाबदेही सुनिश्चित करना: अभिरक्षा में यातना में शामिल पुलिसकर्मियों के विरुद्ध त्वरित और पारदर्शी कार्रवाई की जाए। पुलिस अभिरक्षा और संवेदनशील पूछताछ से संबंधित मामलों के निपटान के लिये ज़िला स्तर पर विशेष इकाइयों की स्थापना की जाए।
  • पुलिस संरचना में सुधार: पुलिस विभाग में कानून प्रवर्तन और पूछताछ के कार्यों को अलग किया जाए, ताकि हितों का टकराव कम हो और अभिरक्षा में दुरुपयोग की घटनाएँ कम हों। 
    • पुलिस कर्मियों को वैध पूछताछ विधियों तथा यातना के दुष्परिणामों के बारे में मानवाधिकार प्रशिक्षण दिया जाए। न्यायिक मजिस्ट्रेटों को निष्पक्ष रिमांड प्रक्रिया और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर प्रशिक्षण दिया जाए।
  • स्वतंत्र निगरानी व्यवस्था: न्यायिक मजिस्ट्रेटों को अभिरक्षा से संबंधित प्रक्रियाओं और पूछताछों की निगरानी अनिवार्य रूप से सौंपी जाए। अभिरक्षा में यातना और मृत्यु की शिकायतों के निपटारे हेतु स्वतंत्र जाँच एजेंसियों की स्थापना की जाए, ताकि निष्पक्ष और प्रभावी जवाबदेही सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष

अभिरक्षा में यातना भारत में एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन बनी हुई है, जिसे कानूनी खामियों, संस्थागत दंडमुक्ति और प्रणालीगत विफलताओं ने और भी गंभीर बना दिया है। इस समस्या को समाप्त करने के लिये कानूनों को सशक्त बनाना (जैसे कि BNS/BNSS सुधार, UNCAT की पुष्टि), स्वतंत्र निगरानी सुनिश्चित करना, तथा पुलिस की जवाबदेही तय करना अत्यंत आवश्यक है। तत्काल कार्रवाई के बिना अभिरक्षा में मृत्यु और यातनाएँ अनियंत्रित रूप से जारी रहेंगी।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: "संवैधानिक सुरक्षा उपायों के बावजूद, भारत में अभिरक्षा में यातना संस्थागत दंडमुक्ति के कारण बनी हुई है।" इस कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये एवं सुधारों का सुझाव दीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स

प्रश्न. यद्यपि मानवाधिकार आयोगों ने भारत में मानव अधिकारों के संरक्षण में काफी हद तक योगदान दिया है, फिर भी वे ताकतवर और प्रभावशालियों के विरुद्ध अधिकार जताने में असफल रहे हैं। इनकी संरचनात्मक और व्यावहारिक सीमाओं का विश्लेषण करते हुए सुधारात्मक उपायों के सुझाव दीजिए। (2021) 

प्रश्न. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) सर्वाधिक प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने वाले अन्य यांत्रिकत्वों (मकैनिज़्म) का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो। उपरोक्त टिप्पणी के प्रकाश में, मानव अधिकार मानकों की प्रोन्नति करने और उनकी रक्षा करने में, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं के प्रभावी पूरक के तौर पर, एन.एच.आर.सी. की भूमिका का आकलन कीजिये। (2014)