अनुसूचित जाति की मान्यता हेतु मानदंड | 06 Oct 2022

प्रिलिम्स के लिये:

SC दर्ज़ा के लिये मानदंड, 1950 का संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, भारत का महापंजीयक।

मेन्स के लिये:

SC दर्ज़ा पाने के लिये मानदंड और दलित ईसाइयों और मुसलमानों के समावेश के पक्ष और विपक्ष में तर्क।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में,सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1950 के संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सरकार की स्थिति की जानकारी मांगी है, जो केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्मों के सदस्यों को SC के रूप में मान्यता देने की अनुमति देता है।

याचिका में क्या है?

  • दलित ईसाइयों और मुसलमानों को शामिल करने के लिये तर्क देने वाली याचिकाओं में कई स्वतंत्र आयोग की रिपोर्टों का हवाला दिया गया है, जिसमें भारतीय ईसाइयों और भारतीय मुसलमानों के बीच जाति एवं जाति असमानताओं के अस्तित्त्व का दस्तावेज़ीकरण किया गया है।
  • याचिकाओं से पता चलता है कि SC के सदस्य धर्मांतरण के बाद भी उन्हीं सामाजिक बाधाओं का अनुभव करते हैं।
  • याचिकाओं में इस प्रस्ताव के खिलाफ तर्क दिया गया है कि धर्मांतरण जाति की पहचान खो देती है, यह देखते हुए कि सिख धर्म और बौद्ध धर्म में भी जातिवाद मौजूद नहीं है और फिर भी उन्हें SC के रूप में शामिल किया गया है।
  • विभिन्न रिपोर्टों और आयोग का हवाला देते हुए याचिकाओं में तर्क दिया गया है कि धर्मांतरण के बाद भी जाति-आधारित भेदभाव जारी है, इसलिये इन समुदायों को SC का दर्जा दिया गया है।

1950 के संविधान आदेश में किसे शामिल किया गया है?

  • अधिनियमित होने पर, वर्ष 1950 के संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश ने शुरू में अस्पृश्यता की प्रथा से उत्पन्न सामाजिक विकलांगता को संबोधित करने के लिये केवल हिंदुओं को अनुसूचित जाति के रूप में मान्यता देने का प्रावधान किया था।
  • वर्ष 1956 में इस आदेश में संशोधन किया गया था ताकि सिख धर्म अपनाने वाले दलितों को शामिल किया जा सके और वर्ष 1990 में एक बार फिर बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलितों को शामिल किया जा सके। दोनों संशोधनों को वर्ष 1955 में काका कालेलकर आयोग और वर्ष 1983 में अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर उच्चाधिकार प्राप्त पैनल (हप्प) की रिपोर्टों द्वारा सहायता प्रदान की गई थी।
  • केंद्र सरकार ने वर्ष 1936 की तत्कालीन औपनिवेशिक सरकार के 1936 के इंपीरियल ऑर्डर द्वारा बहिष्कार का हवाला देते हुए वर्ष 2019 में दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों के सदस्यों के रूप में शामिल करने की संभावना को खारिज कर दिया था जिसने पहले दलित वर्गों की एक सूची को वर्गीकृत किया था और विशेष रूप से "भारतीय ईसाइयों" को इससे बाहर रखा था।

दलित ईसाइयों को बाहर रखने का कारण:

  • भारत के महापंजीयक कार्यालय (RGI) ने सरकार को आगाह किया था कि अनुसूचित जाति का दर्जा अस्पृश्यता की प्रथा से उत्पन्न होने वाली सामाजिक अक्षमताओं से पीड़ित समुदायों के लिये है, जो कि हिंदू और सिख समुदायों में प्रचलित थी।
  • इसने यह भी नोट किया कि इस तरह के कदम से देश भर में अनुसूचित जाति की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि होगी।
  • वर्ष 2001 में RGI ने वर्ष 1978 के नोट का जिक्र किया और कहा कि दलित बौद्धों की तरह जो दलित इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित हुए वे विभिन्न जाति समूहों के थे, न कि केवल एक जाति के, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें "एकल जातीय समूह" के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। जिसे शामिल करने के लिये अनुच्छेद 341 के खंड (2) का पालन करना आवश्यक है।
  • इसके अलावा RGI ने कहा कि चूँकि "अस्पृश्यता" की प्रथा हिंदू धर्म और उसकी शाखाओं की एक विशेषता थी, इसलिये दलित मुसलमानों एवं दलित ईसाइयों को SC के रूप में शामिल करने की अनुमति देने से "अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गलत समझा जा सकता है कि भारत ईसाइयों व मुसलमानों पर अपनी जाति व्यवस्था थोपने" की कोशिश कर रहा है।
  • वर्ष 2001 के नोट में यह भी कहा गया है कि दलित मूल के ईसाई और मुस्लिम धर्मांतरण के कारण अपनी जातिगत पहचान खो चुके हैं एवं उनके नए धार्मिक समुदाय में अस्पृश्यता की प्रथा प्रचलित नहीं है।

धर्म-तटस्थ आरक्षण के पक्ष में तर्क:

  • धर्म परिवर्तन से सामाजिक पहचान नहीं बदलती है।
  • सामाजिक पदानुक्रम और विशेष रूप से जाति पदानुक्रम ईसाई धर्म व मुसलमानों के भीतर बना हुआ है, भले ही धर्म इसे मना करता है।
  • उपरोक्त परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए आरक्षण को धर्म से अलग करने की आवश्यकता है।

सरकार का इस मुद्दे पर विचार:

  • वर्ष 1996 में सरकार सबसे पहले संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश में संशोधन के लिये एक विधेयक लाई जिसे पारित नहीं किया जा सका।
  • सरकार ने कुछ ही दिनों में दलित ईसाइयों को अध्यादेश के माध्यम से अनुसूचित जाति के रूप में शामिल करने का प्रयास किया, जिसे भारत के राष्ट्रपति को भेजा गया था, लेकिन तब इसे प्रख्यापित नहीं किया जा सका।
  • वर्ष 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने RGI एवं तत्कालीन राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग की राय मांगी थी कि क्या दलित ईसाइयों को शामिल किया जा सकता है। दोनों ने प्रस्ताव के खिलाफ सिफारिश की थी।
  • इसके अलावा समय-समय पर कई प्रयास किये गए लेकिन सभी विफल रहे।

अनुसूचित जाति के उत्थान हेतु अन्य संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 15 (4) अनुसूचित जाति की उन्नति हेतु विशेष प्रावधानों को संदर्भित करता है।
  • अनुच्छेद 16 (4A) के अनुसार, यदि राज्य के तहत प्रदत्त सेवाओं में अनुसूचित जाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो पदोन्नति के मामले में यह किसी भी वर्ग या पदों हेतु आरक्षण का प्रावधान करता है।
  • अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है।
  • अनुच्छेद 46 अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा समाज के कमज़ोर वर्गों के शैक्षणिक व आर्थिक हितों को प्रोत्साहन तथा सामाजिक अन्याय एवं शोषण से सुरक्षा प्रदान करता है।
  • अनुच्छेद 335 यह प्रावधान करता है कि संघ और राज्यों के मामलों में सेवाओं एवं पदों पर नियुक्तियों हेतु अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावे को लगातार प्रशासनिक दक्षता के साथ ध्यान में रखा जाएगा।
  • संविधान के अनुच्छेद 330 और अनुच्छेद 332 क्रमशः लोकसभा एवं राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में सीटों को आरक्षित करते हैं।
  • पंचायतों से संबंधित संविधान के भाग IX और नगर पालिकाओं से संबंधित भाग IXA में SC तथा ST के सदस्यों हेतु आरक्षण की परिकल्पना की गई है जो कि SC और ST को प्राप्त है।

स्रोत: द हिंदू