वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण | 15 Jan 2022

प्रिलिम्स के लिये:

IPC की धारा 375, IPC की धारा 498A, न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति।

मेन्स के लिये:

वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण, आईपीसी की धारा 375, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) डेटा, न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण की मांग वाली याचिका दर्ज की गई है।

  • इसके जवाब में केंद्र सरकार ने कहा कि वह इसे अपराधी बनाने की दिशा में "रचनात्मक दृष्टिकोण" पर विचार कर रही है और विभिन्न हितधारकों से सुझाव भी मांगे है।
  • याचिका में आपराधिक कानून में संशोधन की मांग की गई है, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 375 (बलात्कार) शामिल है।

Criminalising-Marital-Rape

प्रमुख बिंदु

  • भूमिका:
    • बलात्कार के अभियोजन के लिये "वैवाहिक प्रतिरक्षा" का आधार समाज की पितृसत्तात्मक सोच से उभरा हैं।
      • जिसके अनुसार, विवाह के बाद एक पत्नी की व्यक्तिगत एवं यौन स्वायत्तता, शारीरिक अखंडता और मानवीय गरिमा का अधिकार आत्मसमर्पित हो जाता है।
    • सत्तर के दशक में नारीवाद की दूसरी लहर के प्रभाव से ऑस्ट्रेलिया वर्ष 1976 में सुधारों को पारित करने वाला पहला देश बन गया और इसके बाद कई स्कैंडिनेवियाई व यूरोपीय देशों ने वैवाहिक बलात्कार को एक आपराधिक अपराध बना दिया।
  • वैवाहिक बलात्कार के संबंध में कानूनी प्रावधान:
    • वैवाहिक बलात्कार के अपवाद: भारतीय दंड संहिता की धारा 375, जो एक पुरुष को उसकी  पत्नी के साथ जबरदस्ती अनैच्छिक यौन संबंधों की छूट देती है, बशर्ते पत्नी की उम्र 15 वर्ष से अधिक हो। इसे वैवाहिक बलात्कार के अपवाद" (Marital Rape Exception) के रूप में भी जाना जाता है।
    • अर्थात् IPC की धारा 375 के अपवाद 2 के तहत पंद्रह वर्ष से अधिक की आयु के पति और पत्नी के बीच अनैच्छिक यौन संबंधों को धारा 375 के तहत निर्धारित "बलात्कार" की परिभाषा से बाहर रखा गया है तथा इस प्रकार यह ऐसे कृत्यों के अभियोजन को रोक देता है।
  • वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानने से संबंधित मुद्दे:
    • महिलाओं के मूल अधिकारों के खिलाफ: वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानना अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार) जैसे मौलिक अधिकारों में निहित व्यक्तिगत स्वायत्तता, गरिमा और लैंगिक समानता के संवैधानिक लक्ष्यों का तिरस्कार है। 
    • न्यायिक प्रणाली की निराशाजनक स्थिति: भारत में वैवाहिक बलात्कार के मामलों में अभियोजन की कम दर के कुछ कारणों में शामिल हैं:
      • सोशल कंडीशनिंग और कानूनी जागरूकता के अभाव के कारण अपराधों की कम रिपोर्टिंग।
      • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) के आंँकड़ों के संग्रह का गलत तरीका।
      • न्याय की लंबी प्रक्रिया/स्वीकार्य प्रमाण की कमी के कारण अदालत के बाहर समझौता।
    • न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट: 16 दिसंबर, 2012 के गैंग रेप मामले में राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन के बाद गठित जे. एस. वर्मा समिति ने भी वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण की अनुशंसा की थी। 
      • इस कानून की समाप्ति से महिलाएँ उत्पीड़क पतियों से सुरक्षित होंगी, वैवाहिक बलात्कार से उबरने के लिये आवश्यक सहायता प्राप्त कर सकेंगी और घरेलू हिंसा एवं यौन शोषण से स्वयं की रक्षा में सक्षम होंगी।
  • सरकार का पक्ष:
    • विवाह संस्था पर विघटनकारी प्रभाव: अब तक सरकार ने कई मौकों पर कहा है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने से विवाह संस्था को खतरा होगा और निजता के अधिकार का भी उल्लंघन होगा।
    • कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग: आईपीसी की धारा 498ए (एक विवाहित महिला का उसके पति और ससुराल वालों द्वारा उत्पीड़न) और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 का दुरुपयोग बढ़ रहा है।
      • वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाना पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकता है।

आगे की राह

  • बहु-हितधारक दृष्टिकोण: वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण निश्चित रूप से एक प्रतीकात्मक शुरुआत होगी। 
    • दंपत्ति के यौन इतिहास, पीड़ित को शारीरिक और मनोवैज्ञानिक नुकसान जैसे विभिन्न पहलुओं के आधार पर चिकित्सा कर्मियों, परिवार परामर्शदाताओं, न्यायाधीशों और पुलिस की एक विशेषज्ञ समिति द्वारा सजा का फैसला किया जा सकता है।
  • व्यवहार में बदलाव लाना: पीड़ितों की आर्थिक स्वतंत्रता की सुविधा के लिये सहमति, समय पर चिकित्सा देखभाल और पुनर्वास, कौशल विकास और रोज़गार के महत्व पर जनता (नागरिकों, पुलिस, न्यायाधीशों, चिकित्सा कर्मियों) को जागरूक करने वाले जागरूकता अभियानों के माध्यम से वैधानिक सुधार किया जाना चाहिये।

स्रोत- द हिंदू