न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 | 24 Aug 2020

प्रीलिम्स के लिये

न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971

मेन्स के लिये

न्यायालय की अवमानना से संबंधित विभिन्न संवैधानिक पक्ष

चर्चा में क्यों

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने नागरिक अधिकारों के अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायालय की आपराधिक अवमानना का दोषी पाया।

प्रमुख बिंदु

  • अधिवक्ता ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मानहानि संबंधी ट्वीट किया था।
  • SC की मानहानि: निर्णय में कहा गया कि ट्वीट ने एक संस्था के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की निंदा की है।
    • यह माना जाता है कि भारतीय न्यायपालिका का प्रतीक होने के नाते, सर्वोच्च न्यायालय पर एक हमले से देश भर में उच्च न्यायालय के साधारण वादी और न्यायाधीशों का सर्वोच्च न्यायालय से विश्वास उठ सकता है।
  • न्यायाधीशों का समर्थन नहीं करना: हालांकि न्यायालय ने स्वीकार किया कि उसकी अवमानना शक्तियों का उपयोग केवल कानून की महिमा को बनाए रखने के लिये किया जा सकता है, इसका उपयोग एक व्यक्तिगत न्यायाधीश के खिलाफ नहीं
  • किया जाना चाहिये जिसके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की जाती है।
  • शीर्ष न्यायालय को स्वतः संज्ञान (Suo Motu) की अवमानना शक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 129 द्वारा प्रदान की गई हैं।
  • न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971) न्यायालय की इस शक्ति को सीमित नहीं कर सकता है।

न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act of 1971):

  • न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 के अनुसार, न्यायालय की अवमानना दो प्रकार की होती है:
    • नागरिक अवमानना: न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट अथवा अन्य किसी प्रक्रिया या किसी न्यायालय को दिये गए उपकरण के उल्लंघन के प्रति अवज्ञा को नागरिक अवमानना कहते हैं।
    • आपराधिक अवमानना: यह किसी भी मामले का प्रकाशन है या किसी अन्य कार्य को करना है जो किसी भी न्यायालय के अधिकार का हनन या उसका न्यूनीकरण करता है, या किसी भी न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है, या किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रशासन में बाधा डालता है।
  • सजा: न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में दोषी को दंडित किया जा सकता है यह दंड छह महीने का साधारण कारावास या 2,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों एक साथ हो सकता है।
  • संशोधन: इस कानून में वर्ष 2006 में एक रक्षा के रूप में ‘सच्चाई और सद्भावना’ (Truth And Good Faith) को शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था।

आलोचना:

  • इसकी आलोचना भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की याद दिलाने के रूप में की जाती है क्योंकि यूनाइटेड किंगडम से अवमानना कानूनों को समाप्त कर दिया गया है।
  • यह भी कहा जाता है कि इससे न्यायिक पहुँच में कमी आ सकती है।
  • विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में अवमानना के मामले उच्च संख्या में लंबित हैं, जो पहले से ही अतिरिक्त भारयुक्त न्यायपालिका द्वारा न्याय प्रशासन में देरी करते हैं।

विधि आयोग द्वारा समीक्षा:

  • विधि आयोग ने वर्ष 2018 में न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 की समीक्षा की और कहा:
    • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की अवमानना की शक्तियाँ अधिनियम, 1971 से स्वतंत्र हैं और उच्च न्यायालयों की अवमानना शक्तियाँ भारत के संविधान के 129 और 215 से ली गई हैं।
      • अनुच्छेद 129: सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होगा और इस तरह की न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी जिसमें स्वयं की अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति भी होगी।
      • अनुच्छेद 215: प्रत्येक उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होगा और इस तरह के न्यायालय को सभी शक्तियाँ होंगी जिसमें वह स्वयं की अवमानना के लिये दंडित करने में सक्षम है।
    • भारत में आपराधिक अवमानना के मामलों की संख्या बहुत अधिक है, जबकि ब्रिटेन में न्यायालय की अवमानना संबंधी अंतिम अपराध वर्ष 1931 में आया था जो ब्रिटेन में इसके उन्मूलन का एक कारण हो सकता है।
    • आयोग ने कहा कि भारत में इस अपराध को समाप्त करने से विधायी अंतर समाप्त हो जाएगा।
    • यह उच्च न्यायालय को अधिकार देता है कि यदि कोई अधीनस्थ न्यायालयों की अवमानना करता है तो वह कार्रवाई करेगा। 1971 अधिनियम में ऐसे उदाहरणों को बाहर करने के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं जो अधिनियम 1971 की धारा 2 (c) के अंतर्गत परिभाषित आपराधिक अवमानना के अंतर्गत नहीं आते हैं।
    • इस कानून ने लगभग पाँच दशकों तक न्यायिक जाँच का परीक्षण किया है।


स्वतः संज्ञान के मामले (Suo Moto Cognizance):

  • सुओ मोटो (स्वतः संज्ञान) एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है किसी सरकारी एजेंसी, न्यायालय या अन्य केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा अपने स्वयं के द्वारा की गई कार्रवाई।
  • न्यायालय कानूनी मामले में स्वतः संज्ञान तब लेता है जब वह मीडिया के माध्यम से अधिकारों के उल्लंघन या ड्यूटी के उल्लंघन या किसी तीसरे पक्ष की अधिसूचना के बारे में जानकारी प्राप्त करता है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में क्रमशः लोक हित याचिका (Public Interest Litigation- PIL) दायर करने के प्रावधान है। इसने न्यायालय को किसी मामले के स्वतः संज्ञान पर कानूनी कार्रवाई शुरू करने की शक्ति दी है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
    • भारतीय न्यायालयों द्वारा स्वतः संज्ञान लेने की कार्रवाई न्यायिक सक्रियता का प्रतिबिंब है।

स्रोत- द हिंदू