भारत में जाति जनगणना: आवश्यकता और चुनौतियाँ | 07 May 2025
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग, जाति गणना, जनगणना, अनुसूचित जातियाँ, अनुच्छेद 340 मेन्स के लिये:भारत में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को आकार देने में जातिगत आँकड़ों की भूमिका, जाति आधारित जनगणना |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों?
भारत सरकार ने विलंबित जनगणना 2021 में जाति गणना को शामिल करने की मंजूरी दे दी है, जिससे स्वतंत्रता के बाद बंद हो चुकी एक प्रथा को पुनर्जीवित किया जा रहा है। बढ़ती राजनीतिक और सामाजिक मांगों के कारण उठाया गया यह कदम शासन, सकारात्मक कार्रवाई और सामाजिक न्याय के प्रयासों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने की संभावना है।
जाति जनगणना क्या है?
- परिभाषा: जाति जनगणना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें देशव्यापी जनसंख्या गणना के दौरान व्यक्तियों की जातिगत पहचान से संबंधित डेटा व्यवस्थित रूप से एकत्र किया जाता है।
- "जाति" शब्द स्पेनिश शब्द 'कास्टा' से आया है जिसका अर्थ है 'नस्ल' या 'आनुवंशिक समूह'। पुर्तगालियों ने इसका उपयोग भारत में 'जाति' को दर्शाने के लिये किया।
- एम. एन. श्रीनिवास (भारतीय समाजशास्त्री) जाति को एक आनुवंशिक, अंतर्विवाही और सामान्यतः स्थानीयकृत समूह के रूप में परिभाषित करते हैं, जो एक विशिष्ट व्यवसाय से जुड़ा होता है और सामाजिक पदानुक्रम में एक निश्चित स्थान रखता है।
- उद्देश्य: इसका उद्देश्य विभिन्न जाति समूहों के सामाजिक-आर्थिक वितरण को समझना है, ताकि सामाजिक न्याय, आरक्षण और कल्याण से संबंधित नीतियों को प्रभावी रूप से तैयार किया जा सके।
- जाति गणना का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: वर्ष 1881 से 1931 तक ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना अभ्यास में जाति गणना एक नियमित प्रक्रिया थी, जबकि वर्ष 1941 की जनगणना में भी जातिगत जानकारी एकत्र की गई थी, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ होने के कारण इसे प्रकाशित नहीं किया गया।
- वर्ष 1951 की जनगणना से लेकर अब तक जाति गणना केवल अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिये की जाती रही है, जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) तथा अन्य जाति समूहों पर कोई विश्वसनीय राष्ट्रीय डेटा उपलब्ध नहीं है।
- वर्ष 1961 में, केंद्र सरकार ने राज्यों को सर्वेक्षण करने और राज्य-विशिष्ट अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की सूची तैयार करने की अनुमति दी।
- अंतिम राष्ट्रीय जाति डेटा संग्रह वर्ष 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) के माध्यम से किया गया था, जिसका उद्देश्य जाति जानकारी के साथ-साथ परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का आकलन करना था।
- राज्य-स्तरीय सर्वेक्षण: बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने हाल ही में अपनी स्वयं की जाति सर्वेक्षण किये।
जाति जनगणना और जाति सर्वेक्षण में क्या अंतर है?
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जाति जनगणना की क्या आवश्यकता है?
- वर्तमान अंतर: जबकि SC और ST के लिये डेटा उपलब्ध है, OBC तथा अन्य जाति समूहों पर कोई विश्वसनीय एवं अद्यतन राष्ट्रीय डेटा नहीं है, जो प्रभावी नीति निर्माण में बाधा डालता है।
- पूर्व सर्वेक्षणों से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान: वर्ष 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) में कई कमियाँ थीं, विशेष रूप से एक समग्र जाति सूची की अनुपस्थिति।
- राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) ने यह उल्लेख किया कि वर्ष 2011 की SECC प्रोफार्मा में नागरिकों को किसी भी जाति का उल्लेख करने की अनुमति दी गई थी, जिससे अत्यधिक और असत्यापित जाति प्रविष्टियों की संख्या सामने आई।
- इससे डेटा अविश्वसनीय और अव्यवहारिक हो गया। आगामी जाति जनगणना का उद्देश्य इन समस्याओं का समाधान करना है, ताकि एक अधिक सटीक और समावेशी प्रक्रिया सुनिश्चित की जा सके।
- सकारात्मक कार्रवाई की पुनर्रचना: जाति जनगणना अद्यतन डेटा प्रदान कर सकती है, जिससे आरक्षण कोटे और सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रमों का पुनर्मूल्यांकन किया जा सके।
- जाति आँकड़ों के अभाव के कारण OBC जनसंख्या का अनुमान स्पष्ट नहीं है; मंडल आयोग (1980) ने OBC की जनसंख्या का अनुमान 52% लगाया था।
- बिहार के वर्ष 2023 की जाति सर्वेक्षण ने पाया कि OBC और EBC राज्य की जनसंख्या का 63% से अधिक हिस्सा बनाते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर जाति डेटा की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जा रहा है, ताकि आरक्षण और सामाजिक कल्याण पर नीति निर्णयों को मार्गदर्शन मिल सके।
- व्यापक समूहों के भीतर उप-श्रेणीकरण: विस्तृत डेटा OBC के उप-श्रेणीकरण को सक्षम बनाता है, जैसा कि रोहिणी आयोग (2017) ने सिफारिश की थी, ताकि आरक्षण लाभों का समान वितरण सुनिश्चित किया जा सके।
- राजनीतिक और चुनावी प्रभाव: सटीक जाति डेटा से विशेष रूप से राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में हाशिये पर रहने वाले समूहों का बेहतर राजनीतिक प्रतिनिधित्व हो सकता है।
- समानता और समावेशन की दिशा में प्रयास: जाति आधारित असमानताएँ गरीबी, क्षेत्र और लिंग से संबंधित होती हैं।
- जाति जनगणना इन असमानताओं को उजागर कर सकती है, जिससे लक्षित नीतियों को सहायता मिल सके। इसे स्थायी असमानताओं को संबोधित करने और विविध समुदायों के लिये अधिक समावेशी और समान नीतियाँ बनाने की दिशा में एक कदम माना जाता है।
भारत में जाति जनगणना से संबंधित क्या चिंताएँ हैं?
- जातिगत पहचान को सुदृढ़ करने का जोखिम: आलोचकों का कहना है कि जाति जनगणना जातिगत चेतना को गहरा कर सकती है, जातिविहीन समाज की दिशा में काम करने के बजाय विभाजन को वैध बना सकती है।
- यह सामाजिक विभाजन और पदानुक्रम को और गहरा कर सकता है, जो संविधान द्वारा प्रतिष्ठित बंधुता और समानता के उद्देश्य के विपरीत है।
- समानता बनाम समता: जहाँ बड़े समूहों को प्रतिनिधित्व से लाभ हो सकता है, वहीं सूक्ष्म-कोटा विभाजन सामाजिक एकता को नुकसान पहुँचा सकता है।
- पैमाने के पक्षपात के कारण पिछड़े वर्गों के भीतर अल्पसंख्यकों को अनुपातहीन रूप से बाहर कर दिया जाता है।
- अतिविखंडन से ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित समूहों के लिये आरक्षण (सकारात्मक कार्रवाई) का उद्देश्य कमज़ोर होने का जोखिम है।
- राजनीतिक शोषण और प्रतिस्पर्द्धी पिछड़ापन: सटीक जाति डेटा वोट-बैंक राजनीति को बढ़ावा दे सकता है, जिसमें राजनीतिक दल चुनावी लाभ के लिए नीतियाँ बनाते हैं।
- यह राजनीतिक रूप से प्रभावशाली या उच्च जाति समूहों द्वारा OBC/SC/ST दर्जे की मांग को प्रोत्साहित कर सकता है, जिससे आरक्षण कोटे पर दबाव बढ़ सकता है।
- यह "प्रतिस्पर्द्धी पिछड़ापन" की स्थिति उत्पन्न कर सकता है, जिसमें विभिन्न समूह लाभों के लिये स्वयं को निम्न दर्जा प्राप्त वर्ग के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं।
- संवैधानिक और विधिक अस्पष्टताएँ: यद्यपि अनुच्छेद 340 पिछड़े वर्गों की पहचान की अनुमति देता है, लेकिन सामान्य जनगणना में जाति गणना के लिये कोई संवैधानिक अनिवार्यता नहीं है।
- अनुपातिक प्रतिनिधित्व से संबंधित समस्याएँ: नवीन जाति डेटा वर्ष 1931 के अनुमानों पर आधारित नीतियों को चुनौती दे सकता है, जिससे अनुपातिक आरक्षण की मांग और इंद्रा साहनी निर्णय, 1992 द्वारा निर्धारित 51% सीमा की पुनः समीक्षा की मांग उठ सकती है।
- यह परिवर्तन बड़े समुदायों को अधिक लाभ प्राप्त करने के लिये प्रेरित कर सकता है, जिससे जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता प्रभावित हो सकती है।
सटीक जाति जनगणना कराने में क्या चुनौतियाँ हैं?
- मानकीकृत जाति सूची का अभाव: जाति जनगणना के संचालन में एक प्रमुख चुनौती मानकीकृत जाति कोड सूची का अभाव है। कोई एकीकृत OBC सूची मौजूद नहीं है; केंद्र सरकार की OBC सूची (जो केंद्रीय योजनाओं में प्रयुक्त होती है) राज्य-विशिष्ट विस्तृत सूचियों से भिन्न होती है।
- SECC 2011 की खुले तौर पर रिपोर्टिंग से 46.7 लाख जाति प्रविष्टियाँ और 8 करोड़ से अधिक त्रुटियाँ उत्पन्न हुईं, जो यह दर्शाती हैं कि भारत की हज़ारों जातियों और उपजातियों को एक सुसंगत और विश्वसनीय तरीके से वर्गीकृत करना कठिन है।
- जातिगत स्व-रिपोर्टिंग और गतिशीलता दावे: व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा के कारण उच्च जाति से संबद्धता का दावा कर सकते हैं, जैसा कि औपनिवेशिक जनगणनाओं में देखा गया था, जहाँ समुदाय क्षत्रिय, राजपूत, ब्राह्मण या वैश्य के रूप में पहचाने जाते थे।
- स्वतंत्रता के बाद के काल में, कुछ व्यक्ति आरक्षण से लाभ प्राप्त करने के लिये गलत तरीके से निचली जातियों से अपनी पहचान जोड़ सकते हैं (उदाहरण के लिये, कुछ उच्च जातियों द्वारा OBC का दर्जा प्राप्त करने की मांग)।
- जातिगत पहचान अक्सर परिवर्तनशील होती है तथा स्व-रिपोर्टिंग विभिन्न क्षेत्रों या पीढ़ियों में भिन्न हो सकती है।
- जातियों का गलत वर्गीकरण: 'धनक', 'धनकिया', 'धनुक' और 'धनका' जैसे समान उपनामों के कारण भ्रम की स्थिति अलग-अलग जाति श्रेणियों (SC, ST, आदि) से संबंधित है, जिससे त्रुटियाँ होती हैं।
- इसके अतिरिक्त, राज्यों में अलग-अलग वर्गीकरण से जनगणना और भी जटिल हो जाती है, उदाहरण के लिये, राजस्थान में मीणा समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, लेकिन मध्य प्रदेश में इसे अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
- भारत में जाति की संवेदनशीलता को देखते हुए, गणनाकर्ता प्रत्यक्ष प्रश्नों से बचते हैं और उपनामों पर आधारित धारणाओं पर विश्वास करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रायः गलत प्रविष्टियाँ हो जाती हैं।
- संस्थागत और प्रशासनिक क्षमता संबंधी बाधाएँ: जनगणना में एक समर्पित सत्यापन और कोडिंग इकाई का अभाव है, जिसके कारण नई जाति जनगणना के आँकड़े SECC 2011 के आँकड़ों की तरह ही अविश्वसनीय हो सकते हैं।
भारत में जाति जनगणना की विश्वसनीयता और सटीकता सुनिश्चित करने के लिये कौन-से उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- जातियों की सूची बनाना: पहला कदम विभिन्न राज्यों में अलग-अलग वर्गीकरणों को ध्यान में रखते हुए, गणना की जाने वाली जातियों और समुदायों की सूची बनाना है। भारत के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त को इस सूची को अंतिम रूप देने के लिये शिक्षाविदों, जाति समूहों, राजनीतिक दलों एवं जनता से परामर्श करना चाहिये।
- इसके बिना, वर्ष 2011 की जनगणना में देखी गई विसंगतियों के दोहराए जाने का खतरा है।
- डेटा सत्यापन और शिकायत निवारण: जाति जनगणना की विश्वसनीयता में सुधार के लिये, आधार को एकीकृत करने से दोहराव को कम करने व सटीक पहचान सत्यापन सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है।
- वर्गीकरण त्रुटियों को कम करने के लिये एक बहु-स्तरीय सत्यापन तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये, विवादों और गलत वर्गीकरणों को हल करने के लिये एक पारदर्शी शिकायत निवारण प्रणाली द्वारा पूरक होना चाहिये। इसके अतिरिक्त, समुदाय-स्तरीय निरीक्षण को शामिल करने से स्थानीय सत्यापन सुदृढ़ होगा और गणना प्रक्रिया में जनता का विश्वास बढ़ेगा।
- सटीक डेटा सॉर्टिंग और विश्लेषण के लिये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग का लाभ उठाना।
- समानता के लिये उप-वर्गीकरण: OBC के उप-वर्गीकरण के लिये न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए।
- पंजाब राज्य बनाम दविंदर सिंह (2024) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप , अनुभवजन्य डेटा और ऐतिहासिक साक्ष्य का उपयोग करके पिछड़ेपन के विभिन्न स्तरों के आधार पर आरक्षण कोटे के भीतर अनुसूचित जातियों और जनजातियों को उप-वर्गीकृत करना।
- विभिन्न उप-समूहों के बीच आरक्षण लाभ और प्रतिनिधित्व का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना।
- सामाजिक-आर्थिक एकीकरण: बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) जैसे संकेतकों के साथ जाति संबंधी आँकड़ों को पूरक बनाना ।
- तेंदुलकर समिति (वर्ष 2009) ने पाया कि गरीबी रेखा से नीचे (BPL) 29% कार्डधारक गरीब हैं, जबकि गरीबी रेखा से ऊपर (APL) 13% कार्डधारक गरीब हैं।
- इसके लिये पुराने गरीबी मानकों को संशोधित करने तथा समावेशन एवं बहिष्करण संबंधी त्रुटियों को दूर करने के लिये प्रभावी सामाजिक-आर्थिक जनगणना आयोजित करने की आवश्यकता है।
- तेंदुलकर समिति (वर्ष 2009) ने पाया कि गरीबी रेखा से नीचे (BPL) 29% कार्डधारक गरीब हैं, जबकि गरीबी रेखा से ऊपर (APL) 13% कार्डधारक गरीब हैं।
- क्षेत्रीय असमानताओं पर ध्यान केन्द्रित करना: राज्यों को 'सबके लिये एक ही योजना' के दृष्टिकोण से परे कल्याणकारी योजनाएँ बनाना।
- निष्पक्ष उपयोग सुनिश्चित करना और राजनीतिक दुरुपयोग से बचना: जाति जनगणना को समावेशी विकास के साधन के रूप में देखना, न कि वोट बैंक की राजनीति के रूप में। मौजूदा नीतियों को तर्कसंगत बनाने और सबसे वंचितों को लक्षित करने के लिये डेटा का उपयोग करना।
- इच्छित परिणाम सुनिश्चित करने के लिये जनगणना डेटा का उपयोग करके कार्यान्वित की गई नीतियों की निगरानी और मूल्यांकन करना।
निष्कर्ष
जाति जनगणना भारत के डेटा-संचालित शासन में प्रमुख बदलाव का प्रतीक है, जिसका उद्देश्य प्रतिनिधित्व व्यवस्था एवं लोगों के कल्याण संबंधी ऐतिहासिक अंतराल को कम करना है। हालाँकि यह समावेशिता एवं बेहतर नीति निर्माण पर केंद्रित है लेकिन सटीकता, राजनीतिकरण एवं सामाजिक सद्भाव से संबंधित चिंताओं का समाधान किया जाना चाहिये। सतत् विकास लक्ष्य संख्या 16 (डेटा-संचालित शासन को सक्षम करना) के अनुरूप मज़बूत सुरक्षा उपाय और पारदर्शी निष्पादन, इसकी सफलता की कुंजी है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: जाति जनगणना, सामाजिक न्याय के एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में कार्य कर सकती है लेकिन इससे सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिलने का भी जोखिम है। चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। मेन्सप्रश्न. भारत में जातीय अस्मिता गतिशील और स्थिर दोनों ही क्यों हैं? (2023) प्रश्न. बहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज को समझने में क्या जाति की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है? उदाहरणों सहित विस्तृत उत्तर दीजिये। (2020) प्रश्न. “जाति व्यवस्था नई-नई पहचानों और सहचारी रूपों को धारण कर रही है। अतः भारत में जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं किया जा सकता है। टिप्पणी कीजिये। (2018) |