भारतीय सेना का आधुनिकीकरण | 17 Jan 2017

आधुनिकीरण आवश्यक क्यों?

  • वर्तमान समय में भारतीय सेना बदलाव के दौर से गुज़र रही है, सामरिक नीतियों में रक्षा क्षेत्र का महत्त्व बढ़ता ही जा रहा है। भारत क्षेत्रीय शक्ति से वैश्विक शक्ति बनने की राह पर अग्रसर है और इन सबके बीच भारतीय सेना का आधुनिकीरण किया जाना अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है।
  • परंपरागत और अप्रचलित हथियारों को आधुनिक हथियारों से बदलने की आवश्यकता तो है ही, साथ में यह भी आवश्यक है कि सेना को बदलते वक्त की चुनौतियों के अनुरूप बनाया जाए। इसी क्रम में रक्षा मंत्रालय अब स्वदेश निर्मित अस्त्र-शस्त्रों पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है और इस कार्य में स्वदेशी निर्माण को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • देश की सीमाओं पर संवेदनशीलता बढ़ती जा रही है और ऐसे में हमें अपनी सेना का आधुनिकीकरण करना होगा और इसके लिये सेना को नए उपकरणों एवं तकनीकों से लैस करना होगा, पुरानी तकनीकों एवं उपकरणों को नवीनतम और आधुनिक तकनीकों तथा उपकरणों से बदलना होगा। इसके लिये सरकार उपकरणों के स्वदेशीकरण के प्रयास भी कर रही है।
  • हाल ही में सरकार ने सेना के 1.3 लाख जवानों को आधुनिक उपकरणों तथा अस्त्र-शस्त्रों से लैस करने का निर्णय लिया है और इस क्रम में 1,85,000 ‘असाल्ट’ राइफल, हज़ारों हेलमेट और बुलेट प्रूफ जैकेट्स की खरीद को मंज़ूरी दी गई है। ज्ञात हो कि यह प्रयास वर्तमान सरकार द्वारा सेना के आधुनिकीकरण हेतु आवंटित 250 बिलियन डॉलर के एक उपक्रम के तहत किया जा रहा है। दरअसल, वर्ष 2011 के बाद असाल्ट राइफल खरीदने का सरकार का यह दूसरा प्रयास है।

शस्त्रों के आयात से संबंधित समस्या

  • अत्याधुनिक आयातित शस्त्रों से सेना का आधुनिकीकरण निश्चित ही एक स्वागत योग्य कदम है। हालाँकि, विशेषज्ञों का मानना है कि आयातित उपकरण नवीनतम तकनीक के बढ़ते मूल्यों के कारण प्रायः अधिक खर्चीले होते हैं। साथ ही, उपकरणों को प्राप्त करने में अधिक समय भी लगता है। अतः स्वदेश निर्मित उपकरणों, अस्त्र-शस्त्रों एवं स्वदेश में विकसित तकनीकों के माध्यम से सेना का आधुनिकीकरण ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। 


मेक इन इंडिया के ज़रिये आधुनिकीकरण

  • जैसा कि हम जानते हैं, ‘मेक इन इंडिया” का उद्देश्य आत्म-निर्भरता हासिल करना है। रक्षा क्षेत्र में आत्‍मनिर्भरता प्राप्‍त करना, सामरिक और आर्थिक दोनों कारणों से आज के समय की एक आवश्‍यकता है। अतीत में सरकार ने हमारे सशस्‍त्र बलों की आवश्‍यकताओं को पूरा करने के लिये आयुध निर्माण और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के रूप में उत्‍पादन क्षमताओं का निर्माण किया। हालाँकि, विभिन्‍न रक्षा उपक्रमों में उत्‍पादन क्षमताओं को विकसित करने के लिये भारत में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाने की आवश्‍यकता है। देश में विभिन्‍न वस्‍तुओं के निर्माण को बढ़ावा देने के लिये 'मेक इन इंडिया' एक महत्त्वपूर्ण पहल है। इस समय हमें अन्‍य वस्‍तुओं की अपेक्षा रक्षा उपकरणों के घरेलू उत्‍पादन की अधिक ज़रूरत है, क्‍योंकि इनसे न केवल बहुमूल्‍य विदेशी मुद्रा की बचत होगी, बल्‍कि राष्‍ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को भी दूर किया जा सकेगा।  
  • रक्षा क्षेत्र में सरकार ही एक मात्र उपभोक्‍ता है। अत: 'मेक इन इंडिया' हमारी खरीद नीति द्वारा संचालित होगा। सरकार की, घरेलू रक्षा उद्योग को बढ़ावा देने की नीति, रक्षा खरीद नीति में अच्‍छी तरह परिलक्षित होती है। आने वाले समय में आयात दुर्लभ से दुर्लभतम होता जाएगा और ज़रूरी व्‍यवस्‍था के निर्माण और विकास के लिये सर्वप्रथम अवसर भारतीय उद्योग को प्राप्‍त होगा। वर्तमान में भले ही प्रौद्योगिकी के मामले में भारतीय कंपनियों की क्षमता पर्याप्‍त न हो, उन्‍हें विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्‍त उद्यम, प्रौद्योगिकी हस्‍तांतरण की व्‍यवस्था और गठबंधन के लिये प्रोत्‍साहित किया जाता है। 
  • अब तक रक्षा क्षेत्र में घरेलू उद्योग के प्रवेश के लिये लाइसेंस और प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश प्रतिबंध आदि को लेकर कई बाधाएँ थीं। अब, सरकार ने रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में निवेश की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिये कई नीतियों को उदार बनाया है। सबसे महत्त्वपूर्ण, रक्षा क्षेत्र में प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिये एफडीआई नीति को उदार बनाया गया है। जहाँ पहले सरकारी माध्‍यम से 49 प्रतिशत प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी थी, अब उसे बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया गया है। जहाँ कहीं भी आधुनिक और नवीनतम प्रौद्योगिकी मिलती है वहाँ सुरक्षा संबंधी कैबिनेट समिति की मंजूरी के उपरांत प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश को भी मंजूरी दी गई है। 
  • हालाँकि, आईडीआर कानून के तहत औद्योगिक लाइसेंस प्राप्‍त करने के बाद वर्ष 2001 से निजी क्षेत्र के उद्योगों को रक्षा उत्‍पादन के क्षेत्र में अनुमति दी गई थी, लेकिन औद्योगिक लाइसेंस प्राप्‍त करना एक बहुत जटिल प्रक्रिया थी जो कि उपकरणों एवं कल-पुर्जों के निर्माण खासकर लघु और मध्‍यम उद्योगों के लिये, एक प्रमुख अड़चन थी। सरकार ने लाइसेंस नीति को उदार बनाया है और अब कल-पुर्जों, कच्चे माल, परीक्षण उपकरण, उत्‍पादन मशीनरी, कॉस्टिंग तथा फोर्जिंग आदि को लाइसेंस के दायरे से बाहर रखा गया है। जो कंपनियाँ इस तरह की वस्‍तुओं का उत्‍पादन करना चाहती हैं, उन्‍हें अब लाइसेंस की ज़रूरत नहीं होगी। विभिन्‍न श्रेणियों के उद्योगों के पालन के लिये एक व्‍यापक सुरक्षा मैन्‍युअल तैयार किया गया है ताकि कंपनियों की इस तक आसान पहुँच हो और तदनुसार इसका पालन किया जा सके। औद्योगिक लाइसेंस की प्रारंभिक वैधता 2 वर्ष से बढ़ाकर 3 वर्ष कर दी गई है। 

भारतीय सेना के लिये ’ब्रह्मोस’ का महत्त्व

  • भारतीय सेना को ’ब्रह्मोस’ के तौर पर एक ऐसा सहयोगी मिला है जिसने इसकी मारक क्षमता कई गुना बढ़ा दी है। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो ’मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम के तहत भारत में शुरू की गई सबसे पहली परियोजना ’ब्रह्मोस’ ही है। वस्तुतः ब्रह्मोस एक सुपरसॉनिक क्रूज़ प्रक्षेपास्त्र है। क्रूज़ प्रक्षेपास्त्र उसे कहते हैं जो कम ऊँचाई पर तेज़ी से उड़ान भरता है और इस तरह से रडार की आँख से बच जाता है। ब्रह्मोस की विशेषता यह है कि इसे ज़मीन से, हवा से, पनडुब्बी से, युद्धपोत से यानी कि लगभग कहीं से भी दागा जा सकता है। यही नहीं, इस प्रक्षेपास्त्र को पारंपरिक प्रक्षेपक के अलावा ऊर्ध्वगामी यानी कि वर्टिकल प्रक्षेपक से भी दागा जा सकता है। ब्रह्मोस के ‘मेनुवरेबल संस्करण’ के  सफल परीक्षण के बाद इस मिसाइल की मारक क्षमता में और भी बढ़ोत्तरी हुई है।
  • ब्रह्मोस का विकास ब्रह्मोस कॉर्पोरेशन द्वारा किया गया है। यह कम्पनी भारत के डीआरडीओ और रूस के एनपीओ मशीनोस्त्रोयेनिशिया का सयुंक्त उपक्रम है। ब्रह्मोस नाम भारत की ब्रह्मपुत्र और रूस की मस्कवा नदी पर रखा गया है। रूस इस परियोजना में प्रक्षेपास्त्र तकनीक उपलब्ध करवा रहा है और उड़ान के दौरान मार्गदर्शन करने की क्षमता भारत के द्वारा विकसित की गई है। इस समय प्रक्षेपास्त्र तकनीक में दुनिया का कोई भी प्रक्षेपास्त्र तेज़ गति से आक्रमण करने के मामले में ब्रह्मोस की बराबरी नहीं कर सकता। इसकी खूबियाँ इसे दुनिया की सबसे तेज़ मारक मिसाइल बनाती हैं। यहाँ तक कि अमरीका की टॉम हॉक मिसाइल भी इसके आगे फिसड्डी साबित होती है।
  • मेनुवरेबल तकनीक यानी कि दागे जाने के बाद अपने लक्ष्य तक पहुँचने से पहले मार्ग को बदलने की क्षमता से युक्त मिसाइल। उदाहरण के लिये, टैंक से छोड़े जाने वाले गोलों तथा अन्य मिसाइलों का लक्ष्य पहले से निश्चित होता है और वे वहीं जाकर गिरते हैं। या फिर लेज़र गाइडेड बम या मिसाइल होते हैं जो लेज़र किरणों के आधार पर लक्ष्य को साधते हैं। परंतु, यदि कोई लक्ष्य इतना दूर और लगातार गतिशील हो कि उसे निशाना बनाना कठिन हो, तो यहीं यह तकनीक काम आती है। दागे जाने के बाद लक्ष्य तक पहुँचते-पहुँचते यदि उसका लक्ष्य मार्ग बदल ले तो यह मिसाइल भी अपना मार्ग बदल लेती है और उसे निशाना बना लेती है।
  • गौरतलब है कि ब्रह्मोस को कोई भी एंटी मिसाइल सिस्टम भेद नहीं सकता है क्योंकि नीची उड़ान को भी यह सुपरसोनिक रफ्तार से तय करता है, हमला करने से ठीक पहले यह अंग्रेज़ी के ‘एस’ अक्षर (S) की तरह ये तेज़ी से मुड़कर निशाने से टकराता है।

ब्रह्मोस की विशेषताएँ

  • यह प्रक्षेपास्त्र हवा में ही अपना मार्ग बदल सकता है और चलते-फिरते लक्ष्य को भी भेद सकता है।
  • इसको ऊर्ध्वाधर या क्षैतिज, कैसे भी प्रक्षेपक से दागा जा सकता है।
  • यह मिसाइल तकनीक थलसेना, जलसेना और वायुसेना तीनों में काम आ सकती है।
  • यह 10 मीटर की ऊँचाई पर उड़ान भर सकती है और रडार की पकड़ में भी नहीं आती है।
  • रडार ही नहीं, यह किसी भी अन्य मिसाइल पहचान प्रणाली को धोखा देने में सक्षम है। इसको मार गिराना लगभग असंभव है।
  • ब्रह्मोस मिसाइल अमेरिका की टॉम हॉक से लगभग दुगनी तेज़ी से वार कर सकती है, इसकी प्रहार क्षमता भी टॉम हॉक से अधिक है।
  • आम मिसाइलों के विपरीत, यह मिसाइल हवा को खींचकर रेमजेट तकनीक से ऊर्जा प्राप्त करती है।
  • यह मिसाइल 1200 यूनिट ऊर्जा पैदा कर अपने लक्ष्य को तहस-नहस कर सकती है।

निष्कर्ष

  • इस समय भारत प्रतिकूल परिस्थितियों से गुज़र रहा है| हमारे पास अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप ही अत्याधुनिक हथियार भी होने चाहियें। भारत इस समय दुनिया का सबसे ज़्यादा हथियार आयात  करने वाला देश है। रक्षा मामलों में सर्वदा ही आयात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। अतः दुनिया के सबसे बड़े रक्षा खरीदार बन चुके भारत को रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करनी चाहिये, यानी हमें खरीदार की जगह निर्माता बनना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ का एक लक्ष्य रक्षा उत्पादन के लिये देशी-विदेशी निजी निर्माताओं को प्रोत्साहित करना भी है। इसके लिये रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति पहले ही मिल चुकी है। जो रक्षा सौदे हो रहे हैं, उनमें भी एक शर्त यही है कि एक निश्चित राशि भारत में निवेश की जाए। जो रक्षा सौदे हो रहे हैं, उनसे तकनीक लेने की भी शर्तें रखी जा रही हैं ताकि भारत उनके कल-पुर्जे स्वयं उत्पादित कर सके और संबंधित कंपनियों पर से निर्भरता घटे।
  • हालाँकि, निरंतर प्रयास के बाद भी अभी तक कोई बड़ी उपलब्धि हमारे हाथ नहीं आई है। ऐसे में, एक बार अगर नीति बन गई और प्रयास आरंभ हो गया तो इसको फलीभूत होना ही है। वस्तुत: यह आत्मविश्वास का भी प्रश्न है। आखिर जो देश स्वदेशी रॉकेट बनाकर दुनिया की प्रथम पंक्ति में खड़ा हो सकता है, जो मिसाइल तकनीक में बड़े देशों का मुकाबला कर सकता है, वह रक्षा सामान क्यों नहीं बना सकता है? हमने बहुत पहले परमाणु परीक्षण करके दुनिया को चौंका दिया था। फिर हमने दूसरा परीक्षण भी कर दिया। इसका अर्थ है कि प्रतिभा हमारे पास है, हमारे वैज्ञानिकों और तकनीशियनों में क्षमता है, ऐसे में बात रह जाती है सिर्फ पूंजी की।
  • स्वदेशी रक्षा उत्पादन पर विचार करते समय यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि दुनिया में जो भी रक्षा सामग्रियों के निर्माता देश हैं, वहाँ मुख्य निर्माता निजी कंपनियाँ ही हैं। चाहे अमेरिका हो या फिर फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन, ब्रिटेन, इटली यहाँ तक कि रूस में भी उत्पादन अब निजी कंपनियों के हाथों में ही है। तो भारत में भी केवल सरकारी कंपनियाँ ही रक्षा उत्पादन करें, यह व्यावहारिक नहीं होगा। निजी कंपनियों को इसके लिये आगे लाना ही होगा। सरकार यह प्रयास कर रही है। भारत की निजी कंपनियों से विदेशों की रक्षा उत्पादन कंपनियों के साथ करार कराने की कोशिशें हो रही हैं और इसमें कुछ सफलता भी मिली है।
  • एक तरफ जहाँ सरकार निर्यात, लाइसेंसिंग, एफडीआई सहित निवेश और खरीद के लिये नीति में ज़रूरी बदलाव कर रही है, वहीं उद्योग को भी ज़रूरी निवेश और प्रौद्योगिकी के मामले में उन्‍नयन करने की चुनौती को स्‍वीकार करने के लिये सामने आना चाहिये। रक्षा एक ऐसा क्षेत्र है जो नवाचार से संचालित होता है और जिसमें भारी निवेश और प्रौद्योगिकी की आवश्‍यकता होती है, लिहाज़ा उद्योग को भी अस्‍थायी लाभ  बजाय लंबी अवधि के लिये सोचने की मानसिकता बनानी होगी। हमें अनुसंधान विकास तथा नवीनतम विनिर्माण क्षमताओं पर ज़्यादा ध्‍यान देना होगा। सरकार को घरेलू उद्योग हेतु एक ऐसी पारिस्‍थितिकी प्रणाली विकसित करने के लिये प्रतिबद्ध रहना होगा जिससे वह सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में बराबर उन्‍नति कर सके।