केशवानंद भारती वाद और ‘मूल संरचना’ का सिद्धांत | 07 Sep 2020

प्रिलिम्स के लिये

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, संबंधित संविधान संशोधन, अनुच्छेद 368, इस वाद की पृष्ठभूमि में मौजूद सभी कानूनी मामले

मेन्स के लिये

भारतीय लोकतंत्र में ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत की भूमिका और इसका महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

केरल स्थित एडनीर मठ (Edneer Mutt) के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती का 79 वर्ष की आयु में केरल के कासरगोड (Kasaragod) स्थित आश्रम में निधन हो गया है। गौरतलब है कि स्वामी केशवानंद भारती द्वारा दायर याचिका में ही सर्वोच्च न्यायालय ने 24 अप्रैल, 1973 को संविधान की ‘मूल संरचना’ (Basic Structure) का ऐतिहासिक सिद्धांत दिया था। 

प्रमुख बिंदु

  • ‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य’ वाद (1973) में दिये गए निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय के सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णयों में से एक माना जाता है क्योंकि इसके माध्यम से भारतीय संविधान की उस ‘मूल संरचना’ को निर्धारित किया गया, जिसे संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है। 

केशवानंद भारती

  • स्वामी केशवानंद भारती वर्ष 1961 से ही केरल के कासरगोड ज़िले में स्थित एडनीर मठ के प्रमुख के रूप में कार्य कर रहे थे। केशवानंद भारती को केरल भूमि सुधार कानून को चुनौती देने और सर्वोच्च न्यायालय के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत के लिये आज भी याद किया जाता है और भविष्य में भी किया जाता रहेगा।
  • इस मामले की सुनवाई के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने 13 न्यायाधीशों की एक खंडपीठ का गठन किया था, जो कि अब तक सबसे बड़ी खंडपीठ थी। इस मामले की सुनवाई कुल छह माह तक तकरीबन 68 कार्यदिवसों में पूरी की गई थी।

केशवानंद भारती वाद- पृष्ठभूमि

  • किसी देश का संविधान उस देश का मूलभूत कानून होता है, इस दस्तावेज़ के आधार पर देश में अन्य सभी कानून बनाए और लागू किये जाते हैं।
  • कई देशों के संविधानों में उसके कुछ विशिष्ट हिस्सों को संशोधन के प्रावधानों से सुरक्षा प्रदान की गई है, इन विशिष्ट हिस्सों को संविधान के अन्य हिस्सों की तुलना में खास दर्जा दिया गया है।
  • भारतीय संविधान के लागू होने के साथ ही संविधान के कुछ प्रावधानों को संशोधित करने की संसद की शक्ति को लेकर बहस शुरू हो गई थी।
  • स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार वाद’ (1951) और ‘सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार वाद’ (1965) में निर्णय देते हुए संसद को संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की। 
  • बाद के वर्षों में जब सत्तारुढ़ सरकार ने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिये संविधान संशोधन जारी रखा तो गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद (1967) में अपने पुराने निर्णयों को बदलते हुए निर्णय दिया कि संसद के पास मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की शक्ति नहीं है।
  • 1970 के दशक की शुरुआत में तत्कालीन सरकार ने ‘आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970), ‘माधवराव सिंधिया बनाम भारत संघ (1970) और पूर्व उल्लेखित गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद (1967) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये निर्णयों को बदलने के उद्देश्य से संविधान में कई महत्त्वपूर्ण संशोधन (24वाँ, 25वाँ, 26वाँ और 29वाँ) किये।
  • इन सभी संशोधनों और गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में चुनौती दी गई। असल में इस मामले में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती द्वारा याचिका के माध्यम से केरल सरकार के दो राज्य भूमि सुधार कानूनों से राहत की मांग की गई थी।
    • दरअसल 1970 के दौर में केरल की तत्कालीन सरकार द्वारा नागरिकों के बीच समानता स्थापित करने हेतु भूमि सुधार कानून लाए गए, इन कानूनों के तहत राज्य सरकार ने ज़मींदारों और मठों के पास मौजूद भूमि का अधिग्रहण कर लिया, इसी निर्णय के तहत एडनीर मठ की भूमि का भू अधिग्रहण कर लिया गया था। राज्य सरकार के इसी निर्णय को केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में चुनौती दी गई थी।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और संविधान की ‘मूल संरचना’

  • चूँकि गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार वाद में 11 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने निर्णय लिया था, इसलिये केशवानंद भारती मामले की सुनवाई करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 13 न्यायाधीशों की खंडपीठ का गठन किया गया।
  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13-सदस्यीय खंडपीठ के सदस्यों के बीच भारी वैचारिक मतभेद देखने को मिला और खंडपीठ ने 7-6 से निर्णय दिया कि संसद को संविधान की मूल संरचना में परिवर्तन करने से रोका जाना चाहिये।
  • खंडपीठ ने यह स्पष्ट किया कि संविधान के कुछ हिस्से इतने अंतर्निहित और महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्हें संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 368 जो कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्तियाँ प्रदान करता है, के तहत संविधान की आधारभूत संरचना में बदलाव नहीं किया जा सकता है। 

‘मूल संरचना’ का सिद्धांत

  • ‘मूल संरचना’ के सिद्धांत की उत्पत्ति असल में जर्मनी के संविधान में पाई जाती है, जिसे नाज़ी शासन के बाद कुछ बुनियादी कानूनों की रक्षा के लिये संशोधित किया गया था।
    • जर्मनी में नाज़ी शासन के पूर्व के संविधान में संसद को दो-तिहाई बहुमत के साथ संविधान संशोधन की शक्ति दी गई थी और इन्ही प्रावधानों का उपयोग हिटलर द्वारा कई महत्त्वपूर्ण बदलाव करने के लिये किया गया था।
  • इन्ही अनुभवों से सीखते हुए जर्मनी के नए संविधान में इसके कुछ विशिष्ट हिस्सों को संशोधित करने के लिये संसद की शक्तियों पर पर्याप्त सीमाएँ लागू की गई।
  • भारत में मूल संरचना सिद्धांत के माध्यम से संसद द्वारा पारित सभी कानूनों की न्यायिक समीक्षा का आधार प्रस्तुत किया गया है। 
  • हालाँकि, बुनियादी संरचना क्या है, यह निरंतर विचार-विमर्श का विषय रहा है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मूल संरचना’ को परिभाषित नहीं किया, किंतु संविधान की कुछ विशेताओं को ‘मूल संरचना’ के रूप निर्धारित किया है, जिसमें संघवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा आदि शामिल हैं। तब से इस सूची का निरंतर विस्तार किया जा रहा है। 

निष्कर्ष

यद्यपि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में एडनीर मठ के प्रमुख स्वामी केशवानंद भारती को केरल सरकार के कानूनों से तो राहत नहीं मिल सकी थी, किंतु इस मामले से भारतीय लोकतंत्र की जीत ज़रूर हुई थी। इस सिद्धांत के आलोचक इसे अलोकतांत्रिक सिद्धांत मानते हैं, क्योंकि यह न्यायाधीशों को जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के बनाए कानूनों को रद्द करने का अधिकार देता है। वहीं इसके समर्थकों का मत है कि यह सिद्धांत बहुसंख्यकवाद और अधिनायकवाद के विरुद्ध एक सुरक्षा उपकरण के रूप में कार्य करता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस