एडिटोरियल (01 Dec, 2020)



वन अधिकार कानूनों का कार्यान्वयन

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में जनजातियों और वनों पर आश्रित समुदायों के जीवन पर COVID-19 महामारी के प्रभाव और इससे निपटने में वन अधिकार अधिनियम की भूमिका के साथ इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

Covid-19 महामारी ने समाज के अन्य वर्गों की तरह ही वनों पर आश्रित समुदायों को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया है। इस महामारी के कारण इन समुदायों को आजीविका के साथ-साथआश्रय, खाद्य असुरक्षा, शारीरिक कठिनाइयों और स्वास्थ्य चिंताओं आदि से जुड़ी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा है।

ऐसे में वर्तमान में इस चुनौती से निपटने के लिये ‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006’ या ‘वन अधिकार अधिनियम’ (Forest Rights Act- FRA) का प्रभावी कार्यान्वयन और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।  FRA देश में वनों पर आश्रित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों  (कम-से-कम 200 मिलियन आबादी) के अधिकारों के संरक्षण तथा उनकी अन्य समस्याओं के समाधान में पूरी तरह सक्षम है। हालाँकि कि इस अधिनियम के लागू होने के लगभग डेढ़ दशक बाद भी इसके कार्यान्वयन में व्याप्त शिथिलता के कारण इस अधिनियम का पूरा लाभ नहीं मिल पाया है।

‘वन अधिकार अधिनियम’ और इससे जुड़े अन्य मुद्दे:  

  • भारत का ‘वन अधिकार अधिनियम’ वनवासी समुदायों को आजीविका के साथ-साथ वनों के संरक्षण के लिये वनों का उपयोग, प्रबंधन और संचालन/नियंत्रण का अधिकार प्रदान करता है। हालाँकि इस अधिनियम के कार्यान्वयन में व्याप्त कमियाँ अभी भी एक बड़ी समस्या बना हुई है।
  • FRA के कार्यान्वयन में व्याप्त कमियों के प्रमुख कारण:  
    • राजनीतिक प्रतिबद्धता का अभाव।
    • जनजातीय मामलों के विभाग (Department of Tribal Affairs) के पास पर्याप्त मानव और वित्तीय संसाधनों की कमी, जो कि FRA के कार्यान्वयन के लिये नोडल एजेंसी है।
    • वन विभाग में नौकरशाही के बीच आतंरिक गतिरोध भी एक बड़ी समस्या है, जो विभिन्न स्तरों पर निर्णयों को प्रभावित करती है।
    • ज़िला और उप-प्रभाग स्तर की समितियों का खराब कामकाज या उनकी निष्क्रियता भी एक बड़ी चुनौती रही है, गौरतलब है कि ये समितियाँ ही ग्राम सभाओं द्वारा प्रस्तुत आवेदनों की समीक्षा करती हैं।
  • इस अधिनियम को पारित हुए लगभग डेढ़ दशक  बीत चुका है परंतु अभी तक ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा FRA के तहत मात्र 4 करोड़ हेक्टेयर (लगभग 13%) भूमि को ही चिह्नित किया गया है।  
    • FRA संबधित समुदायों के लिये उनके वन अधिकारों को प्रदान करने में देरी और उसके कारण बढ़ती भू-असुरक्षा की वजह से  इन समुदायों की सुभेद्यता में वृद्धि होगी जो इस महामारी के दौरान तथा इसके बाद भी वनों पर आश्रित समुदायों की आजीविका एवं  खाद्य असुरक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा। 

वनों पर आश्रित समुदायों के समक्ष अन्य चुनौतियाँ: 

  • सामाजिक अवसंरचना का अभाव: जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और कुपोषण, मलेरिया, कुष्ठ रोग, आदि बीमारियों तथा स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं की व्यापकता ने COVID-19 जैसी किसी भी बड़ी महामारी से निपटने की क्षमता को बड़े पैमाने पर सीमित कर दिया है।
  • देश के सभी राज्यों में जनजातीय और वनवासी समुदायों के बीच सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की पहुँच में कई प्रकार की कमियाँ देखने को मिली हैं।
  • कई रिपोर्टों में देश के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों से भुखमरी की बात भी सामने आई है, गौरतलब है कि ऐसे समुदाय सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का अधिकांश लाभ प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। 

लघु वनोत्पाद से संबंधित मुद्दे:

  • मात्र लघु वनोत्पाद (Minor Forest Produce- MFP) का स्वामित्त्व प्रदान करने से आदिवासियों की आजीविका में कोई बड़ा सुधार नहीं होगा, गौरतलब है कि वन विभाग द्वारा किये जाने वाले वृक्षारोपण में व्यापक विविधता के अभाव के कारण लघु वन उत्पादों (तेंदू पत्ता को छोड़कर) के समग्र उत्पादन में भारी गिरावट देखने को मिली है।  
  • इसके अतिरिक्त अधिकांश लघु वनोत्पाद अभी भी ‘राष्ट्रीयकृत’ (Nationalised) ही हैं, जिसका अर्थ है कि इन उत्पादों को केवल सरकारी एजेंसियों को ही बेचा जा सकता है।
  • COVID-19 महामारी के कारण वनवासियों के लिये लघु वन उत्पादों के संग्रह, उपयोग और बिक्री की प्रक्रिया भी गंभीर रूप से प्रभावित हुई है।    

विशेषतः सुभेद्य जनजातीय समूह

(Particularly Vulnerable Tribal Groups- PVTG): 

  • देश के सुदूर हिस्सों में रह रहे ‘विशेषतः सुभेद्य जनजातीय समूह’ (PVTG) की उत्तरजीविता भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है। 
  • PVTG गहरे/घने वनों के प्रमुख संरक्षणकर्त्ता रहे हैं और उन्होंने सदियों से वनों की जैव विविधता का प्रबंधन किया है। 
  • घने वन संसाधनों, जैव विविधता, प्रकृति, वन्य  जीवन को जोड़ने वाला एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र है 
  • इस पारिस्थितिकी तंत्र को तोड़ने से समुदायों का निर्वासन और उनके बीच अलगाव बढ़ जाएगा जिसका प्रतिकूल प्रभाव वनों पर भी देखने को मिलेगा। 

पर्यावरण प्रभाव आकलन संबंधी कानूनों का विलय :   

  • आदिवासी समुदायों की चुनौतियों में वृद्धि के बीच आत्मनिर्भर भारत पहल के तहत अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये पर्यावरण से जुड़े कानूनों और नियमों में ढील दिये जाने के प्रयासों ने इन समुदायों के असंतोष को और बढ़ा दिया है। 
    • एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2008 से वर्ष 2019 के बीच लगभग 3.9 लाख हेक्टेयर वन भूमि को अन्य विभागों को स्थानांतरित कर दिया गया। 
    • हाल ही में सरकार द्वारा पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में कुछ छूट दिये जाने और कोयला क्षेत्र में निजी संस्थाओं के प्रवेश से संबंधित मानदंडों के उदारीकरण ने जनजातीय समूहों के गुस्से को बढ़ा दिया है। 

आगे की राह: 

  • FRA का प्रभावी कार्यान्वयन: FRA के प्रभावी कार्यान्वयन के माध्यम से न सिर्फ वनों पर आश्रित समुदायों का विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा बल्कि इन समुदायों और सरकार के बीच विश्वास भी बढ़ेगा, जिससे भू-संघर्ष, नक्सलवाद और अल्प विकास जैसी समस्याओं में भी कमी आएगी।
  • सहकारी संघवाद: व्यक्तिगत और सामुदायिक वन प्रबंधन के व्यापक आर्थिक, सामाजिक तथा पारिस्थितिक लाभ को ध्यान में रखते हुए  केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के सहयोग से ‘वन अधिकार अधिनियम, 2006’ को प्रभावी रूप से लागू करने का प्रयास करना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण है कि केंद्र और राज्योें में जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा FRA के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु उन्हें मानव तथा वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित कर मज़बूत बनाया जाए।
  • नौकरशाही में सुधार: FRA के कार्यान्वयन की निगरानी के लिये आधुनिक तकनीकों के उपयोग को बढ़ावा देने के साथ-साथ ग्राम सभाओं के लिये एक प्रभावी सेवा प्रदाता के रूप में कार्य करने हेतु वन विभाग की नौकरशाही में बड़े सुधार करने होंगे।
  • लघु वन उत्पादों के विपणन में सुधार : गैर-वन उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे प्रयासों के माध्यम से विपणन में सहयोग प्रदान करना बहुत ही आवश्यक है, साथ ही सामुदायिक वन उद्यमों को सहयोग प्रदान करने के लिये एक मज़बूत संस्थागत तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
    • इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा  ग्राम सभाओं को तकनीकी सहायता भी जारी रखी जानी चाहिये, जिससे न केवल लघु वन उत्पादों का उच्च उत्पादन सुनिश्चित किया जा सकेगा बल्कि आदिवासी अर्थव्यवस्था को पुनः गति प्रदान करने के लिये किसानों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता को भी जारी रखा जा सकेगा।

निष्कर्ष:   

  • FRA के तहत प्राप्त अधिकारों ने संकट के समय अनेक बाधाओं और चुनौतियों से निपटने में वनों पर आश्रित समुदायों की विभिन्न स्तरों पर सहायता की है। परंतु FRA के कार्यान्वयन में व्याप्त शिथिलता न सिर्फ इन समुदायों की चुनौतियों को बढ़ाती है बल्कि इससे वन संरक्षण के प्रयासों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे में वर्तमान समय में इस महामारी के कारण उत्पन्न हुई चुनौतियों को कम करने के लिये ‘वन अधिकार अधिनियम’ का प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाना बहुत ही आवश्यक है।

अभ्यास प्रश्न: ‘वनों पर आश्रित समुदायों के अधिकारों के संरक्षण और आदिवासी अर्थव्यवस्था को मज़बूती प्रदान करने के लिये वन अधिकार अधिनियम’ का प्रभावी कार्यान्वयन बहुत आवश्यक है।’ चर्चा कीजिये।