डेली न्यूज़ (03 Aug, 2020)



इक्वाडोर के समुद्री क्षेत्र के निकट चीनी हस्तक्षेप

प्रीलिम्स के लिये:  

पेरू धारा, गैलापागोस द्वीप समूह, IUCN रेड लिस्ट

मेन्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय समुद्री क्षेत्रों में चीनी मछुआरों की बढ़ती आक्रामता और अनियंत्रित समुद्री शिकार की चुनौतियों से जुड़े प्रश्न  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘इक्वाडोर’ (Equador) ने अपने समुद्री क्षेत्र के निकट बड़ी संख्या में चीन के मछली पकड़ने वाले जहाज़ों की गतिविधि में हुई वृद्धि के संदर्भ में आधिकारिक रूप से चीन से अपनी असहजता व्यक्त की है। 

प्रमुख बिंदु:

  • हाल ही में इक्वाडोर के गैलापागोस द्वीप समूह (Galapagos Islands) के निकट लगभग 260 मछली पकड़ने वाले जहाज़ों को देखे जाने के बाद इक्वाडोर द्वारा इस क्षेत्र में सतर्कता बढ़ा दी गई थी। 
  • गौरतलब है कि प्रशांत महासागर स्थित गैलापागोस द्वीप समूह लगभग 60,000 वर्ग किमी. में फैला है और यह दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप से लगभग 1,000 किमी. दूरी पर स्थित है।
  • गैलापागोस द्वीप समूह के आस-पास मछलियों का व्यावसायिक शिकार बढ़ने से क्षेत्र में पाई जाने वाली शार्क जैसी जलीय प्रजातियाँ अब लुप्तप्राय हो चुकी हैं।
  • इक्वाडोर को हर वर्ष इस क्षेत्र में चीन के मछली पकड़ने वाले जहाज़ों से अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा हेतु चुनौती का सामना करना पड़ता है।

क्षेत्र में चीनी मछुआरों की बढ़ती सक्रियता:

  • हाल में चीनी जहाज़ों के समूह को दोनों तरफ (मुख्य इक्वाडोर और गैलापागोस द्वीप समूह) से इक्वाडोर के अधिकार क्षेत्र से लगभग 200 मील दूर अंतर्राष्ट्रीय जल (International Waters) में देखा गया था। जहाज़ों के इस समूह में लाइबेरिया और पनामा के झंडे लगे कुछ जहाज़ भी शामिल थे।
  • इक्वाडोर के विदेश मंत्री के अनुसार, चीन के मछली पकड़ने वाले जहाज़ हर वर्ष इक्वाडोर के अधिकार वाले समुद्री क्षेत्र की सीमा तक आ जाते हैं।
    • वर्ष 2019 में भी इसी क्षेत्र में (इक्वाडोर के समुद्री अधिकार क्षेत्र के बाहर) चीन के 254 मछली पकड़ने वाले जहाज़ों को देखा गया था।
    • वर्ष 2017 में ऐसे ही एक चीनी जहाज़ के इक्वाडोर के अधिकार वाले समुद्री क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद इक्वाडोर के अधिकारियों द्वारा उसे पकड़ लिया गया था।
    • इक्वाडोर के अधिकारियों द्वारा पकड़े गए चीनी जहाज़ में रखे समुद्री वन्यजीवों का वज़न लगभग 300 टन बताया गया था।
    • इनमें से अधिकांश मात्रा ‘स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क’ (Scalloped Hammerhead Shark) की थी जिसे IUCN रेड लिस्ट में गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered) श्रेणी में रखा गया है।     
      • चीन के एक प्रचलित भोजन के रूप में स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क की बड़ी मांग है।
      • एक रिपोर्ट के अनुसार, हॉन्गकॉन्ग के बाज़ारों में पाए जाने वाले दो-तिहाई स्कैलोप्ड हैमरहेड शार्क के पर या फिन (Finn) गैलापागोस क्षेत्र से ही आते हैं। 
  • चीन के मछुआरे अधिकांशतः वर्ष के इस समय में इक्वाडोर के समुद्री क्षेत्र में आ जाते हैं क्योंकि वर्ष के इस समय ठंडी पेरू धारा अपने साथ बड़ी मात्रा में पोषक तत्त्व अपवाहित करती है, जिससे इस क्षेत्र में समुद्री प्रजातियों का एक बड़ा समूह इकठ्ठा हो जाता है।

क्षेत्रीय देशों की प्रतिक्रिया:      

  • चीनी जहाज़ों को क्षेत्र के अन्य देशों के साथ भी तनाव का सामना करना पड़ा है।  
  • वर्ष 2016 में अर्जेंटीना के तटरक्षकों ने एक चीनी जहाज़ का पीछा करते हुए इस समुद्र में डुबो दिया था।
    • अर्जेंटीना के तटरक्षकों के अनुसार, यह जहाज़ बिना आधिकारिक अनुमति के दक्षिणी अटलांटिक महासागर में मछली पकड़ रहा था।
  • हालिया मामले में इक्वाडोर की नौसेना ने पहले चीनी जहाज़ों को 16 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय जल में देखे जाने की घोषणा की थी परंतु इस सप्ताह इसे राजनयिक स्तर तक उठाया गया।   
  • इक्वाडोर के राष्ट्रपति ने इस ‘खतरे' पर पेरू, चिली, कोलंबिया और पनामा जैसे क्षेत्र के अन्य प्रभावित तटीय देशों से इस मुद्दे पर चर्चा करने की बात कही है।    
  • संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने इक्वाडोर की आर्थिक और पर्यावरणीय संप्रभुता की तरफ निर्देशित आक्रामकता के खिलाफ इक्वाडोर के साथ खड़े होने की बात कही है।  

चीन का पक्ष:

  • चीन के अनुसार, फिशिंग (Fishing) के मामले में वह एक उत्तरदायी राष्ट्र है और वह अवैध मछली पकड़ने के खिलाफ एक "शून्य सहिष्णुता" की नीति रखता है।  

वैश्विक चुनौती:  

  • हाल के वर्षों में सैन्य शक्ति और व्यावसायिक विस्तार के साथ-साथ समुद्री शिकार के क्षेत्र में भी चीन की आक्रामकता में वृद्धि देखने को मिली है। 
  • फरवरी 2020 में चीनी तटरक्षकों के सहयोग से चीन के मछुआरों ने बिना किसी आधिकारिक अनुमति के इंडोनेशिया के नातुना सागर क्षेत्र में प्रवेश किया था।
  • अप्रैल 2020 में चीनी मछुआरों द्वारा बिना किसी आधिकारिक अनुमति के दक्षिण अफ्रीका की समुद्री सीमा में प्रवेश करने के कारण उनके जहाज़ों को ज़ब्त कर लिया गया था।

आगे की राह:

  • एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण महासागरों का जल स्तर बढ़ने से मछली पकड़ने के मामले में द्वीपों के आसपास दबाव बढ़ जाएगा। क्योंकि अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा द्वीपों के आसपास मछलियाँ मिलने की संभावनाएँ अधिक होती हैं।  
  • मछुआरों द्वारा अधिक शिकार प्राप्त करने के लिये प्रयोग किये जाने वाले उपकरणों तथा अनियंत्रित शिकार से समुद्री जीवों की आबादी में गिरावट के साथ समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को भी भारी क्षति होती है।
  • ऐसे में विश्व के सभी देशों को राजनीति मतभेदों को दूर रखते हुए समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा हेतु मिलकर प्रयास करने चाहिये।  

गैलापागोस द्वीप समूह:

  • गैलापागोस द्वीप समूह प्रशांत महासागर स्थित है और यह लगभग 60,000 वर्ग किमी. में फैला है।    
  • यह द्वीप समूह इक्वाडोर का हिस्सा है और दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप से लगभग 1,000 किमी. दूरी पर स्थित है।
  • इक्वाडोर द्वारा इस द्वीप समूह के एक हिस्से को वर्ष 1935 में ‘वन्यजीव अभयारण्य’ बना दिया गया था, इस अभयारण्य को वर्ष 1959 में गैलापागोस नेशनल पार्क में बदल दिया गया। 
  • वर्ष 1978 में गैलापागोस द्वीप समूह को यूनेस्को (UNESCO) द्वारा पहले विश्व धरोहर स्थल के रूप में चिह्नित किया गया था। 
  • इस द्वीप समूह पर मांटा रे (Manta Ray) और शार्क जैसे जलीय प्रजातियाँ पाई जाती हैं। 
  • साथ ही इन द्वीपों पर समुद्री इगुआना, फर सील और वेब्ड अल्बाट्रोस जैसे कई जलीय वन्यजीवों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • ब्रिटिश वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने वर्ष 1835 में इस द्वीप समूह पर कुछ महत्त्वपूर्ण अध्ययन किये थे जिसने उनके विकासवाद के सिद्धांत में अहम भूमिका निभाई थी।

Galapagos-Islands

स्रोत: द इंडियन एक्स्प्रेस


अगत्ती द्वीप पर नारियल के वृक्षों की कटाई पर रोक

प्रीलिम्स के लिये:

NGT, अगत्ती द्वीप की मैप में स्थिति, एकीकृत द्वीप प्रबंधन योजना, 

मेन्स के लिये:

एकीकृत द्वीप प्रबंधन योजना

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (National Green Tribunal-NGT) की दक्षिणी पीठ ने लक्षद्वीप के अगत्ती द्वीप में नारियल के वृक्षों की कटाई पर अंतरिम रोक लगा दी है।

प्रमुख बिंदु:

  • यह निर्णय समुद्र तट पर सड़क निर्माण के उद्देश्य से काटे जा रहे नारियल के वृक्षों की कटाई को देखते हुए एक स्थानीय व्यक्ति द्वारा याचिका दायर करने के बाद आया है।
  • इसके अलावा यह पता लगाने के लिये कि सड़क निर्माण के समय, लक्षद्वीप एकीकृत द्वीप प्रबंधन योजना का कोई उल्लंघन तो नहीं हुआ है, प्राधिकरण के द्वारा एक समिति का गठन किया गया है।

एकीकृत द्वीप प्रबंधन योजना

(Integrated Island Management Plan- IIMP)

  • IIMP का लक्ष्य एक एकीकृत द्वीप प्रबंधन योजना तैयार करके भारतीय द्वीपों, अंडमान और निकोबार तथा लक्षद्वीप की सामाजिक-पारिस्थितिक स्थिरता को सुनिश्चित करने में सहायता  करना है
  • IIMP अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएगा, जो द्वीपों और उसके संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिये विशेष रूप से आदिवासी बहुल द्वीपों में स्वदेशी दृष्टिकोण के आधार पर काम करेगा।
  • इसके अलावा आपदा या विभिन्न प्रकार के खतरों से निपटने हेतु दिशा-निर्देश तैयार करेगा और द्वीपों के लिये जलवायु परिवर्तन अनुकूलन तथा शमन रणनीति विकसित करेगा।
  • इसके कुछ प्रमुख लक्ष्यों में एकीकृत द्वीप प्रबंधन/ग्रीन द्वीप अर्थव्यवस्था अवधारणा को विकसित करना और द्वीप के जनसमुदायों के सहयोग से इकोटूरिज्म विकास को एक विशेष विकल्प के रूप में स्थापित करना है।

अगत्ती द्वीप:

  • भौगोलिक स्थिति:
    • अगत्ती द्वीप कोच्चि से लगभग 459 किमी (248 समुद्री मील) की दूरी पर तथा कवरत्ती द्वीप के पश्चिम में स्थित है।
    • इस द्वीप का लैगून क्षेत्र 17.50 वर्ग किमी में फैला हुआ है।
    • अगत्ती द्वीप में मूंगा वृद्धि और बहुरंगी प्रवाल मछलियाँ बहुतायत में पाई जाती हैं।
  • उद्योग:
    • मत्स्य पालन अगत्ती का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्योग है जो शायद मिनिकॉय द्वीप के अलावा एकमात्र द्वीप है जहाँ बहुत अधिक मात्रा में मछलियाँ मिलती हैं।
    • मत्स्य पालन के बाद, जूट और खोपरा (नारियल गिरी) यहाँ के मुख्य उद्योग हैं।
  • जलवायु:
    • अगत्ती की जलवायु केरल की जलवायु परिस्थितियों के ही समान है।
    • यहाँ मार्च से मई तक साल का सबसे गर्म समय होता है। 
      • यहाँ वार्षिक औसत वर्षा 1600 मिमी तक होती है।

Arabian-Sea

मुद्दे:

  • याचिकाकर्त्ता का तर्क है कि सड़क निर्माण के लिये बड़े पैमाने पर नारियल के वृक्षों के कटने के कारण, स्थानीय निवासियों की आजीविका प्रभावित हुई है।
  • इसके अलावा यह पर्यावरण को भी प्रभावित करेगा क्योंकि ये वृक्ष, समुद्र तट के किनारे चक्रवातों और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के दौरान वहाँ जन समुदायों, कृषि आदि की रक्षा के लिये एक ग्रीन बेल्ट के रूप में कार्य करते है

स्रोत: द हिंदू


समुद्र जल स्तर में वृद्धि: तटीय क्षेत्रों के लिये खतरा

मेन्स के लिये

समुद्र जल स्तर में वृद्धि का कारण, इसके प्रभाव और बचाव के उपाय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्त्ताओं ने अनुमान लगाया है कि वर्ष 2100 तक वैश्विक स्तर पर तटीय बाढ़ से प्रभावित संभावित लोगों की संख्या 128-171 मिलियन से बढ़कर 176-287 मिलियन हो सकती है।

प्रमुख बिंदु

  • अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष 
    • अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2100 तक वैश्विक स्तर पर तटीय बाढ़ की घटनाओं में काफी बढ़ोतरी देखने को मिलेगी।
    • अनुमान के अनुसार, वर्ष 2100 तक तटीय बाढ़ के कारण प्रभावित होने वाली कुल वैश्विक संपत्ति 6,000- 9,000 बिलियन डॉलर यानी वैश्विक GDP का 12-20 प्रतिशत तक हो  सकती है।
    • इस अध्ययन में शोधकर्त्ताओं ने उल्लेख किया है कि समुद्र-स्तर में वृद्धि (Sea-Level Rise-SLR) जलवायु परिवर्तन का एक स्वीकार्य परिणाम है।
    • आकलन के मुताबिक, विश्व का 0.5-0.7 प्रतिशत भू-भाग वर्ष 2100 तक तटीय बाढ़ के खतरे में होगा और यदि तटीय बचाव संबंधी कोई विशिष्ट उपाय नहीं अपनाए जाते हैं तो  तटीय बाढ़ के कारण विश्व की 2.5-4.1 प्रतिशत आबादी प्रभावित हो सकती है।
  • समुद्र-स्तर में वृद्धि (SLR) का अर्थ
    • समुद्र स्तर में वृद्धि (SLR) का अभिप्राय वैश्विक तापमान में वृद्धि के प्रभावों के परिणामस्वरूप महासागरों के जल स्तर में होने वाले वृद्धि से है।
      • जीवाश्म ईंधन को जलाना वैश्विक तापमान में वृद्धि के प्रमुख कारणों में से एक है क्योंकि इसके कारण कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) और अन्य गैसें वायुमंडल में उत्सर्जित होती हैं।
    • हिमनद (Glaciers) जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि से काफी अधिक प्रभावित होते हैं और वैश्विक तापमान में लगातार वृद्धि के कारण ये काफी तेज़ गति से पिघल रहे हैं, जिससे इनका जल महासागरों में प्रवेश करता है और समुद्र जल के स्तर में वृद्धि करता है।
    • क्षेत्रीय SLR: चूँकि समुद्र स्तर में होने वाली वृद्धि दुनिया भर में एक समान नहीं है, इसलिये वैश्विक स्तर पर समुद्र के जल स्तर में होने वाली वृद्धि को क्षेत्रीय स्तर पर होने वाली वृद्धि से अलग रखना मापा जाता है।
      • गौरतलब है कि क्षेत्रीय SLR, वैश्विक SLR की तुलना में कम अथवा ज़्यादा हो सकते हैं।
      • उदाहरण के लिये स्कॉटलैंड, आइसलैंड और अलास्का जैसे स्थानों में समुद्र स्तर में होने वाली वृद्धि, पूर्वी अमेरिका में वृद्धि स्तर में होने वाली वृद्धि से काफी कम है।
  • समुद्र स्तर में वृद्धि का प्रभाव
    • समुद्र जल के स्तर में वृद्धि तटीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिये काफी गंभीर खतरा पैदा करती है।
    • आवास में कमी, जैव विविधता की हानि और अंतर्देशीय प्रवास आदि।
    • बीते वर्ष सितंबर माह में, इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो (Joko Widodo) ने देश की राजधानी को जकार्ता (Jakarta) से पूर्वी कालीमंतन प्रांत में स्थित बोर्नियो द्वीप के पूर्वी छोर पर स्थानांतरित करने की घोषणा की थी।
      • राजधानी को हस्तांतरित करने का मुख्य कारण देश की वर्तमान राजधानी जकार्ता पर बोझ को कम करना था, जो कि पहले से ही खराब गुणवत्ता वाली हवा और यातायात के बोझ जैसी समस्याओं का सामना कर रही है, साथ ही इंडोनेशिया की वर्तमान राजधानी तटीय बाढ़ के प्रति भी काफी संवेदनशील है।
      • जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या के भारी बोझ के कारण जकार्ता दुनिया के सबसे तेज़ी से डूबने वाले शहरों में से एक बन गया है और अनुमान के अनुसार, यह प्रति वर्ष लगभग 25 सेंटीमीटर डूब रहा है।
    • यही स्थिति भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई के साथ भी है, आकलन के अनुसार, वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन और समुद्र स्तर में वृद्धि के कारण मुंबई के लगभग सभी क्षेत्र पूर्णतः जलप्लावित हो जाएंगे, जिससे शहरों के लाखों लोग प्रभावित होंगे।
    • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) का अनुमान भी बताता है कि आने वाले वर्षों में समुद्र जल स्तर में लगातार वृद्धि दर्ज की जाएगी।
  • समुद्र जल स्तर में वृद्धि से बचाव के तरीके
    • बीते वर्ष अमेरिकी मौसम विज्ञान सोसाइटी द्वारा प्रकाशन हेतु स्वीकार किये गए एक शोध पेपर में शोधकर्त्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप समुद्र जल के बढ़ते स्तर से 25 मिलियन लोगों और 15 उत्तरी यूरोपीय देशों की रक्षा करने के लिये एक उपाय प्रस्तावित किया था।
    • इसके तहत उत्तरी यूरोपीय देशों की रक्षा करने के लिये 637 किलोमीटर की लंबाई वाले दो बांधों का निर्णय शामिल था, ताकि समुद्र जल के स्तर में वृद्धि के खतरे को कम किया जा सके। इस तरह के विकल्पों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये।
    • इसके अलावा समुद्र जल स्तर में वृद्धि के खतरे को रोकने के लिये तटीय क्षेत्रों में बेहतर जलनिकास प्रणाली (Drainage Systems) स्थापित की जा सकती है और पहले से मौजूद प्रणालियों को अपग्रेड किया जा सकता है।
    • किंतु उक्त उपाय समुद्र जल में वृद्धि के मूल कारण यानी तापमान में वृद्धि को संबोधित नहीं करते हैं, इसलिये देशों को उपरोक्त उपायों के साथ-साथ दूसरे उपायों जैसे- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने आदि पर भी ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
      • आवश्यक है कि हम जल्द-से-जल्द जीवाश्म ईंधन के स्थान पर किसी स्वच्छ विकल्प की ओर स्थानांतरित करने का प्रयास करें।
    • तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण समाधान है, वायुमंडल में मौजूद ग्रीनहाउस गैस को कम करना। गौरतलब है कि अधिकांश वैश्विक मंचों पर इस संदर्भ में चर्चा ही नहीं की जाती है।
      • विशेषज्ञों के अनुसार, इस कार्य हेतु अधिक-से-अधिक पेड़ लगाना और वनों की कटाई को रोकना काफी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


बाइडू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम

प्रीलिम्स के लिये

बाईडू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम, नाविक (NavIC), अमेरिका की GPS प्रणाली

मेन्स के लिये

बाईडू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम की विशेषताएँ और चीन तथा भारत के लिये इसके निहितार्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चीन ने औपचारिक रूप से अपने बाइडू-3 नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम (BeiDou-3 Navigation Satellite System) की वैश्विक सेवाओं की शुरुआत की है।

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि चीन के साथ निकटता से कार्य करने वाले कुछ देश जैसे पाकिस्तान आदि पहले से ही चीन के बाइडू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम का प्रयोग कर रहे हैं।
  • इसके अलावा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में शामिल देशों में भी चीन अपने इस घरेलू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम के उपयोग को बढ़ावा दे रहा है।

बाइडू नेवीगेशन सिस्टम- पृष्ठभूमि

  • सर्वप्रथम 1980 के दशक में चीन ने समय की मांग के अनुरूप अपने घरेलू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम के निर्माण हेतु अध्ययन की शुरुआत की।
  • इसके पश्चात् 1990 के दशक के शुरुआती दौर में चीन ने बाइडू-3 नेवीगेशन सैटेलाइट प्रोजेक्ट को लॉन्च किया और वर्ष 2000 तक चीन का यह घरेलू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम सक्रिय रूप से चीन में सेवाएँ प्रदान करने लगा।
  • वर्ष 2012 तक चीन की यह तकनीक एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लगभग सभी क्षेत्रों में अपनी नेवीगेशन संबंधी सेवाएँ प्रदान करने लगी।
  • इस प्रकार इसे कुल तीन चरणों में विकसित किया गया है, जिसमें पहला चरण (BeiDou-1) केवल चीन तक सीमित था, वहीं दूसरा चरण (BeiDou-2) एशिया-प्रशांत क्षेत्र तक सीमित था और तीसरे चरण (BeiDou-3) के तहत यह प्रणाली विश्व के सभी क्षेत्रों में कार्य करने में सक्षम है।

विशेषताएँ

  • चीन के दावे के अनुसार, चीन का यह घरेलू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम उपग्रहों के एक व्यापक नेटवर्क का उपयोग करते हुए लगभग दस मीटर के अंदर सटीक अवस्थिति बता सकता है।
    • ज्ञात हो कि अमेरिका का ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) 2.2 मीटर के अंदर अवस्थिति की सटीकता प्रदान करता है।
  • चीन का बाइडू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम सटीक स्थिति, सटीक नेवीगेशन और सटीक समय के साथ-साथ छोटे संदेशों के संचार की सेवाएँ प्रदान करता है।
  • इस प्रणाली का उपयोग चीन के विभिन्न क्षेत्रों जैसे-रक्षा, परिवहन, कृषि, मत्स्यपालन और आपदा राहत आदि में किया जा रहा है।
  • ध्यातव्य है कि चीन का बाइडू-3 नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम अमेरिका के GPS, रूस के ग्लोनास (GLONASS) और यूरोपीय संघ (EU) के गैलीलियो (Galileo) के बाद चौथा वैश्विक उपग्रह नेवीगेशन सिस्टम होगा।
    • चीन का दावा है कि उसका घरेलू नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम अमेरिका के GPS से भी काफी सटीक जानकारी प्रदान करता है।

निहितार्थ

  • अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती: विश्व में मौजूद लगभग सभी नेवीगेशन प्रणालियों में से अमेरिका की GPS प्रणाली का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है, ऐसे में चीन के नवीन बाइडू-3 नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम को अमेरिका की GPS प्रणाली के एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जा रहा है, यदि चीन की यह प्रणाली वैश्विक स्तर पर ख्याति प्राप्त करने में सफल रहती है तो यह अमेरिका के वर्चस्व के लिये बड़ी चुनौती होगी।
  • सैन्य क्षमता में वृद्धि: गौरतलब है कि जैसे-जैसे चीन और अमेरिका के संबंधों में तनाव बढ़ता जा रहा है, वैसे ही चीन के लिये अपनी स्वयं की नेवीगेशन प्रणाली होना काफी महत्त्वपूर्ण हो गया है, खासतौर पर ऐसी प्रणाली जिस पर अमेरिका का नियंत्रण न हो। स्वयं की सुरक्षित और स्वतंत्र नेवीगेशन प्रणाली के विकास से चीन की सैन्य शक्ति को काफी बढ़ावा मिलेगा।
  • आर्थिक लाभ: चीन का दावा है कि उसकी यह घरेलू नेवीगेशन प्रणाली अमेरिका की GPS प्रणाली से काफी बेहतर है और यदि चीन का यह दावा सही है तो इससे दुनिया भर के कई देश और कई बड़ी कंपनियाँ अपने कार्य के लिये चीन की प्रणाली को अपना सकती हैं, जिससे चीन को आर्थिक मोर्चे पर भी काफी फायदा होगा।
  • चीन के प्रोपेगंडा का प्रचार: चीन पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि वह अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में शामिल सभी देशों में इस प्रणाली के प्रयोग पर ज़ोर देने पर विचार कर रहा है, ऐसे में यदि ये देश चीन की इस प्रणाली को अपनाते है तो चीन यह भी सुनिश्चित करना चाहेगा कि ये सभी देश ताइवान, तिब्बत, दक्षिण चीन सागर और अन्य संवेदनशील मामलों पर चीन का साथ दें, इससे कई देशों में चीन के प्रोपेगेंडा का व्यापक प्रचार होगा।
  • भारत के लिये सुरक्षा दृष्टि से खतरा: कई विशेषज्ञ चीन की इस नई प्रणाली को भारत के लिये सुरक्षा की दृष्टि से काफी खतरनाक मान रहे हैं, क्योंकि इस प्रणाली के माध्यम से भारत के रणनीतिक और सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर आसानी से निगरानी की जा सकेगी। वहीं पाकिस्तान में भी इस प्रणाली का काफी व्यापक स्तर पर प्रयोग किया जा रहा है, जिससे भारत को चीन के साथ-साथ पाकिस्तान को लेकर भी सचेत रहने की आवश्यकता है। गौरतलब है कि भारत के पास भी नाविक (NavIC) नामक एक नेवीगेशन प्रणाली है।

नाविक (NavIC)

  • नाविक-NavIC (Navigation in Indian Constellation) उपग्रहों की क्षेत्रीय नेवीगेशन उपग्रह आधारित स्वदेशी प्रणाली है जो अमेरिका के GPS की तरह कार्य करती है।
  • इसके माध्यम से स्थानीय स्थिति (Indigenous Positioning) या स्थान आधारित सेवा (Location Based Service- LBS) जैसी सुविधाएँ प्रदान की जा रही हैं। यह भारतीय उपमहाद्वीप पर 1,500 किलोमीटर के दायरे को कवर करता है।
  • गौरतलब है कि कारगिल युद्ध के बाद से ही भारत में GPS की तरह ही स्वदेशी नेवीगेशन सेटेलाइट नेटवर्क के विकास पर ज़ोर दिया जा रहा था।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


हिरोशिमा काली

प्रीलिम्स के लिये:

काली बारिश, परमाणु विस्फोट, 

मेन्स के लिये:

परमाणु हथियारों से संबंधित मुद्दे, काली बारिश से जुड़े सभी महत्त्वपूर्ण पक्ष

संदर्भ

हाल ही में हिरोशिमा (जापान) की एक ज़िला अदालत ने 1945 के परमाणु विस्फोट के बाद हुई ‘काली बारिश’ से जीवित बचे 84 लोगों को पीड़ितों के रूप में मान्यता दे दी है, अब ये सभी लोग परमाणु विस्फोट के पीड़ितों के रूप में उपलब्ध निःशुल्क चिकित्सीय सुविधा का लाभ उठा सकते हैं।

परमाणु विस्फोट की घटना

  • 6 अगस्त और 9 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा (Hiroshima) एवं नागासाकी (Nagasaki) पर अमेरिका ने परमाणु बम से हमला किया।
  • एक अनुमान के अनुसार, इन दोनों विस्फोटों और परिणामी आग्नेयास्त्र (विस्फोट के कारण लगी बड़ी आग) से हिरोशिमा में लगभग 80,000 और नागासाकी में लगभग 40,000 लोगों की मौत हुई थी।
  • विस्फोट के बाद रेडियोएक्टिव विकिरण के संपर्क में आने और विस्फोटों के बाद हुई ‘काली बारिश’ से भी दोनों शहरों में हज़ारों लोगों की मौत हो गई थी।

‘काली बारिश’ (Black Rain) क्या है?

  • एक अनुमान के अनुसार, इस परमाणु हमले से नष्ट हुई इमारतों का मलबा और कालिख, बम से निकले रेडियोधर्मी पदार्थ के साथ मिलकर वातावरण में एक मशरूम रूपी बादल के रूप में प्रकट हुआ। ये पदार्थ वायुमंडल में वाष्प के साथ संयुक्त हो गए जिसके बाद काले रंग की बूंदों के रूप में धरती पर गिरने लगे जिसे ‘काली बारिश’ कहा गया।
  • ‘काली बारिश’ से बचे लोगों ने इसे बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदों के रूप में वर्णित किया जो सामान्य बारिश की बूंदों की तुलना में बहुत भारी थी।
  • इस घटना में जीवित बचे लोगों के अनुसार, घटना के शिकार हुए बहुत से लोगों के शरीर की खाल जल गई और लोग गंभीर रूप से निर्जलित (Dehydrated) हो गए।

इसका प्रभाव क्या हुआ?

  • काली बारिश, अत्यधिक रेडियोधर्मी पदार्थ से युक्त थी, इस संबंध में हुए अध्ययनों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, इस बारिश के संपर्क में आने से कई प्रकार की गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं।
  • वर्ष 1945 में किये गए एक अध्ययन से पता चलता है कि ग्राउंड ज़ीरो से तकरीबन 29 किमी. के क्षेत्र में काली बारिश हुई।
  • इस बारिश ने अपने संपर्क में आने वाली सभी चीज़ों को दूषित कर दिया।
  • काली बारिश ने कई लोगों में विकिरण के तीव्र लक्षण (Acute Radiation Symptoms-ARS) उत्पन्न किये। कुछ लोग कैंसर से ग्रस्त हो गए तो कुछ लोगों की आँखों की रोशनी चली गई। शहर की ज़मीन और पानी भी विकिरण से दूषित हो गया था। 

नागासाकी के बारे में बात करें तो

  • नागासाकी पर गिराया गया बम हिरोशिमा पर गिराए गए बम से अधिक शक्तिशाली था, लेकिन इससे कम लोगों की मौत हुई और शहर की भौगोलिक स्थिति के कारण इसका प्रभाव एक छोटे से क्षेत्र तक ही सीमित रहा।
  • इसका मतलब यह था कि हिरोशिमा की तुलना में नागासाकी में काली बारिश के लिये आवश्यक रेडियोएक्टिव सामग्री कम थी, यही कारण था कि यहाँ अपेक्षाकृत छोटे से क्षेत्र में ही बारिश सीमित थी।

हादसे के संबंध में हुए अध्ययनों के अनुसार

  • वर्ष 1976 में जापानी सरकार ने हिरोशिमा में हुए वर्ष 1945 के अध्ययन का उपयोग उस क्षेत्र का सीमांकन करने के लिये किया जिसके भीतर काली बारिश और परमाणु विस्फोट के पीड़ित लोग चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने का दावा कर सकें।
  • युद्ध के बाद जापान की सरकार द्वारा अध्ययनों से पता चला है कि सरकार द्वारा सीमांकित किये गए आकार का लगभग चार गुना अधिक क्षेत्र काली बारिश से प्रभावित हुआ होगा।
  • इन अध्ययनों के आधार पर कुछ इलाकों को बमबारी की वजह से गंभीर रूप से प्रभावित घोषित किया था। उस समय जो लोग वहाँ रह रहे थे उन्हें मुफ्त चिकित्सा देने की घोषणा की गई। ये 84 वादी, जिन इलाकों में रहते थे वो हमले से प्रभावित घोषित इलाके से तो बाहर थे लेकिन हमले के बाद काली बारिश से उत्पन्न हुए रेडियोएक्टिव संदूषण की चपेट में आ गए थे।

बुधवार को आए फैसले से क्या लाभ होगा?

  • इन वादियों ने न्यायालय के समक्ष दलील प्रस्तुत की थी कि उनके स्वास्थ्य पर भी उसी तरह का प्रभाव पड़ा था जैसा कि उन लोगों पर पड़ा था जो घोषित इलाके में रह रहे थे। 
  • इस संबंध में बुधवार को हिरोशिमा ज़िला न्यायालय में हुई सुनवाई में न्यायालय ने इन लोगों को हिबाकुशा के रूप में मान्यता देते हुए कहा कि ‘काली बारिश’ में भीगने वाले लोगों की भाँति ये लोग भी ऐसी बीमारियों से पीड़ित हैं जिन्हें परमाणु बम से संबंधित माना जाता है।
    • द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा किये गए इस हमले के पीड़ितों को हिरोशिमा में स्थानीय लोग ‘हिबाकुशा’ कहते हैं।
    • अमेरिकी बमबारी के 75 वर्ष पूरे होने के कुछ दिन पहले ही यह निर्णय आया है। 

परमाणु हमले के लिये जापान को ही क्यों चुना गया?

  • द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान जर्मनी का साथ दे रहा था। जर्मनी ने मई 1945 में ही समर्पण कर दिया था।
  • जुलाई 1945 में अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और सोवियत नेता जोसेफ स्टालिन युद्ध के बाद की स्थिति पर विचार करने के लिये जर्मनी के शहर पोट्सडम में मिले, इसका एक कारण यह था कि अभी तक प्रशांत क्षेत्र में युद्ध समाप्त नहीं हुआ था। जापान अभी भी मित्र देशों के सामने समर्पण करने के लिये तैयार नहीं था। 
  • पोट्सडम में ही अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन को यह जानकारी मिली कि न्यू मेक्सिको में परमाणु बम का परीक्षण सफल रहा है। पोट्सडम में ही ट्रूमैन और चर्चिल के बीच इस बात पर सहमति बनी कि यदि जापान तत्काल बिना किसी शर्त के समर्पण करने के लिये तैयार नहीं होता तो उसके खिलाफ परमाणु बम का इस्तेमाल किया जाएगा।
  • जापान के समर्पण नहीं करने के कारण पहली अगस्त 1945 को जापान के शहर हिरोशिमा पर परमाणु हमले की तारीख तय की गई। लेकिन तूफान के कारण इस दिन हमले को रोकना पड़ा, इसके पाँच दिन बाद यह हमला किया गया।

हिरोशिमा के बाद नागासाकी पर हमला क्यों किया गया?

  • हिरोशिमा पर हुए हमले के बावजूद जापान समर्पण के लिये तैयार नहीं हुआ। संभवतः सीमा पर तैनात जापानी अधिकारियों को हिरोशिमा में हुई तबाही की जानकारी नहीं मिल पाई थी, लेकिन उसके तीन दिन बाद अमेरिका ने नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया।
  • पहले हमले के लिये क्योटो को चुना गया था लेकिन अमेरिकी रक्षा मंत्री की आपत्ति के बाद नागासाकी शहर को चुना गया। फैट मैन नामक बम 22,000 टन टीएनटी की शक्ति के साथ नागासाकी पर गिराया गया।
  • वर्ष 1945 में नागासाकी मित्सुबिशी कंपनी के हथियार बनाने वाले कारखानों का केंद्र तो था ही साथ ही वहाँ कंपनी का जहाज़ बनाने के कारखाने के साथ-साथ अन्य कारखाने भी थे जिनमें टारपीडो बनाए जाते थे जिनसे जापानियों ने पर्ल हार्बर में अमेरिकी युद्धपोतों पर हमला किया था।
  • नागासाकी पर परमाणु हमले के एक दिन बाद जापान के सम्राट हीरोहीतो ने अपने कमांडरों को देश की संप्रभुता की रक्षा की शर्त पर मित्र देशों की सेना के सामने समर्पण करने का आदेश दे दिया। मित्र देशों ने शर्त मानने से इंकार कर दिया और हमले जारी रखे।
  • उसके बाद 14 अगस्त को एक रेडियो भाषण में सम्राट हीरोहीतो ने प्रतिद्वंद्वियों के पास ‘अमानवीय’ हथियार होने की दलील देकर बिना किसी शर्त के ही समर्पण करने की घोषणा कर दी।
  • औपचारिक रूप से तो यह युद्ध 12 सितंबर, 1945 को ही समाप्त हो गया था लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु हमलों के शिकार लोगों की तकलीफ का अंत नहीं हुआ। युद्ध की इस पीड़ा ने जापान के बहुमत को युद्धविरोधी बना दिया।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अधिकांश भारतीय स्वास्थ्य बीमा की सुविधा से वंचित

प्रीलिम्स के लिये: 

राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना

मेन्स के लिये:  

स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियों से संबंधित प्रश्न 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्‍ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (National Sample Survey- NSS) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, 80% से अधिक भारतीयों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • NSS के 75वें दौर के सर्वेक्षण के तहत देश में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति और रुग्णता पर चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं।
  • इस सर्वेक्षण के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 85.9% और शहरी क्षेत्रों में 80.9% लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा नहीं हैं।
    • इस सर्वेक्षण में सरकारी और निजी बीमा सेवा प्रदाताओं से जुड़ी जानकारी को शामिल किया गया था। 
  • NNS का नवीनतम/पिछला सर्वेक्षण 2017 और जून 2018 के बीच संचालित किया गया था।
  • इस सर्वेक्षण में देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से लगभग 5.5 लाख से अधिक लोगों को शामिल किया गया था।

चिंता का कारण:

  • हाल के वर्षों में अधिक-से-अधिक लोग निजी स्वास्थ्य सेवा का उपयोग कर रहे हैं जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की तुलना में काफी महँगी है। 
  • लोगों तक सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने के लिये सरकार द्वारा सार्वभौमिक बीमा कवरेज से जुड़ी योजनाएँ शुरू की गई हैं। 

अन्य आँकड़ें:

  • NSS के हालिया आँकड़ों के अनुसार, अधिकांश (लगभग 55%) भारतीय, स्वास्थ्य सेवाओं के लिये निजी स्वास्थ्य केंद्रों पर निर्भर हैं।  
  • इस सर्वेक्षण में शामिल लोगों में से केवल 42% लोग ही इलाज के लिये सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर गए।  
  • स्वास्थ्य केंद्र का चुनाव: ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 52% लोग ने इलाज के लिये निजी अस्पतालों और लगभग 46% लोगों ने सार्वजनिक अस्पतालों का विकल्प चुना।  
  • शहरी क्षेत्रों में केवल 35% लोग ही ऐसे थे जिन्होंने सार्वजनिक अस्पतालों का विकल्प चुना।
  • सरकारी योजनाओं की पहुँच: ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य से जुड़ी सरकार की योजनाओं से लगभग 13% लोगों को लाभ हुआ जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा मात्र 9% ही रहा।
    • इस सर्वेक्षण में ‘प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’ (Pradhan Mantri Jan Aarogya Yojana- PMJAY) को शामिल नहीं किया गया था, क्योंकि इस योजना को 23 सितंबर, 2018 को लॉन्च किया गया था, जबकि यह सर्वेक्षण जून 2017 में ही शुरू हो चुका था।

औसत चिकित्सा व्यय:

  • इस सर्वेक्षण के अनुसार, एक ग्रामीण परिवार वार्षिक रूप से अस्पताल में लगभग 16,676 रुपए खर्च करता है, जबकि एक शहरी भारतीय के लिये यह खर्च 26,475 रुपए है।
  • इस सर्वेक्षण में पाया गया कि निजी अस्पतालों का औसत चिकित्सा व्यय सार्वजनिक अस्पतालों की तुलना में 6 गुना है।
  • सर्वेक्षण के अनुसार, सार्वजनिक अस्पतालों में मरीज़ को भर्ती करने का औसत व्यय ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 4,290 रुपए है जबकि शहरी क्षेत्रों के लिये यह 4,837 रुपए है।
  • जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के निजी अस्पतालों के लिये यह खर्च औसतन 27,347 रूपए और शहरी क्षेत्र के निजी अस्पतालों के लिये 38,822 रुपए है।

प्रभाव:

  • स्वास्थ्य बीमा की अनुपस्थिति और स्वास्थ्य सेवाओं के महँगे होने के कारण भारतीयों को अपने परिवार के स्वास्थ्य खर्च को पूरा करने के लिये अपनी बचत या ऋण पर निर्भर रहना पड़ता है।
  • इस सर्वेक्षण के अनुसार, देश के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 80% परिवार अपने स्वास्थ्य खर्च को पूरा करने के लिये अपनी बचत जबकि लगभग 13% लोग विभिन्न स्रोतों से प्राप्त ऋण पर निर्भर करते हैं।
  • शहरी क्षेत्रों में लगभग 84% लोग स्वास्थ्य से जुड़े खर्चों के लिये अपनी बचत जबकि लगभग 9% लोग ऋण पर निर्भर हैं।

कारण:  

  • देश की अधिकांश आबादी तक स्वास्थ्य बीमा सुविधाओं की पहुँच न होने में सरकारी नीतियों की असफलता के साथ एक बड़ा कारण अशिक्षा और रोज़गार भी है।  
  • वर्तमान में भी देश में कामगारों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्य करता है, ऐसे में इस क्षेत्र से जुड़े लोगों तक श्रमिकों को मिलने वाली अन्य सुविधाओं के साथ स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधाएँ नहीं मिल पाती है। 
  • पूर्व में सरकार की नीतियों और योजनाओं के क्रियान्वयन की कमियों के चलते स्वास्थ्य बीमा योजनाओं को ज़रूरतमंद लोगों तक नहीं पहुँचाया जा सका। 

आगे की राह:

  • केंद्र सरकार के अनुसार, इस सर्वेक्षण के बाद PMJAY जैसी योजनाओं के कारण लोगों तक स्वास्थ्य बीमा सुविधाओं की पहुँच में सुधार हुआ है। 
  • अधिक-से-अधिक औद्योगिक इकाइयों और व्यवसायों को संगठित क्षेत्र से जोड़कर एक बड़ी आबादी तक स्वास्थ्य बीमा की पहुँच सुनिश्चित की जा सकती है।
  • सरकार को बिना न्यूनतम आय सीमा की बाध्यता सभी लोगों को कम दरों पर स्वास्थ्य बीमा सुविधा उपलब्ध कराने हेतु योजनाओं की शुरुआत करनी चाहिये।  
  • COVID-19 महामारी ने देश की स्वास्थ्य सेवा की कमियों को उजागर किया है, अतः सरकार को इस महामारी से सीख लेते हुए स्वास्थ्य क्षेत्र में आवश्यक सुधार करने चाहिये।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


प्लास्टिक अपशिष्ट को कम करने हेतु निवेश

प्रीलिम्स के लिये:

NGO, अलायंस टू एंड प्लास्टिक वेस्ट, प्लास्टिक अपशिष्ट से जुड़ी टर्म्स

मेन्स के लिये:

प्लास्टिक अपशिष्ट से जुड़े मुद्दे, पर्यावरण संरक्षण के संबंध में भारत सरकार की पहलें, इस दिशा में वैश्विक प्रयास

चर्चा में क्यों?

सिंगापुर स्थित एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) ‘अलायंस टू एंड प्लास्टिक वेस्ट’ (Alliance to End Plastic Waste) आगामी पाँच वर्षों में प्लास्टिक अपशिष्ट को कम करने के लिये भारत में 70 से 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर निवेश करने की योजना बना रहा है।

प्रमुख बिंदु:

  • यह NGO पर्यावरणीय परियोजनाओं के लिये कुल 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने की योजना बना रहा है। इसमें से 100 मिलियन डॉलर भारत के लिये जबकि बाकि धनराशि  दक्षिण पूर्व एशिया और चीन के लिये आरक्षित है।

अलायंस टू एंड प्लास्टिक वेस्ट 

  • एक गैर-लाभकारी संगठन के रूप में ‘अलायंस टू एंड प्लास्टिक वेस्ट’ की स्थापना वर्ष 2019 में हुई थी, इसका लक्ष्य प्रत्येक वर्ष 8 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट के समुद्र में फैंके जाने जैसी गंभीर एवं जटिल समस्या के समाधान के लिये कार्य करना है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट की रोकथाम के साथ-साथ इसे मूल्यवान बनाने की शृंखला में लगभग पचास कंपनियाँ इस अलायंस के साथ मिलकर कार्य कर रही हैं जो इस समस्या के समाधान के लिये तकरीबन 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने के लिये  प्रतिबद्ध है।

विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस

(World Nature Conservation Day):

  • विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस (28 जुलाई) के अवसर पर भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट को समाप्त करने के लिये इस निवेश की घोषणा की गई।
  • प्राकृतिक संसाधनों के महत्त्व के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने एवं इसके प्रसार के उद्देश्य से हर वर्ष इस दिवस का आयोजन किया जाता है।
  • यह दिवस पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और सुरक्षा के लिये लोगों को प्रोत्साहित करता है जो अति-शोषण एवं दुरुपयोग के कारण तेज़ी से कम हो रहे हैं।

इस दिशा में भारत के प्रयास:

  • वर्तमान में 'अलायंस टू एंड प्लास्टिक वेस्ट' प्रोजेक्ट ‘अविरल’ (Aviral) पर कार्य कर रहा है जिसका उद्देश्य गंगा नदी में प्लास्टिक अपशिष्ट को कम करना है।
  • ‘अविरल’ प्रोजेक्ट का लक्ष्य अपशिष्ट प्रबंधन से जुड़ी चुनौतियों का समाधान करने के लिये एक सार्थक दृष्टिकोण प्रदान करना है। विशेष रूप से, यह एक एकीकृत प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली को सुदृढ़ करने पर ध्यान केंद्रित करेगा।

विश्वव्यापी पहल:

  • UN-हैबिटेट वेस्ट वाइज़ सिटीज़ (UN-Habitat Waste Wise Cities-WWC):
    • अलायंस टू एंड प्लास्टिक वेस्ट भी संसाधनों की पुनर्प्राप्ति को बढ़ावा देते हुए व्यवसाय को बढ़ावा देने और आजीविका के अवसर पैदा करने वाली परिपत्र अर्थव्यवस्था (Circular Economy) की तरफ ध्यान केंद्रित कर रहा है, इस संदर्भ में यह UN-हैबिटेट के साथ मिलकर काम कर रहा है।
    • यह UN-हैबिटेट वेस्ट वाइज़ सिटीज़ की सहायता से अपशिष्ट प्रवाह का पता लगाने और अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों से संभावित प्लास्टिक रिसाव का आकलन करने की दिशा में कार्य करना चाहता है।
    • यह संयुक्त रूप से वर्ष 2022 तक विश्व के 20 शहरों में स्थायी अपशिष्ट प्रबंधन को स्थापित करने और शहरों की सफाई करने के लिये WWC चैलेंज का सहयोग और समर्थन करते हैं।
  • ज़ीरो प्लास्टिक वेस्ट सिटीज़ इनिशिएटिव (Zero Plastic Waste Cities Initiative):
    • यह भारत और वियतनाम में ज़ीरो प्लास्टिक वेस्ट सिटीज़ की पहल को लागू करने की दिशा में भी कार्य कर रहा है जिसका उद्देश्य नगरपालिका अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार और आवश्यक सहायता प्रदान करके प्लास्टिक की समस्या से निपटना है, इसके तहत एकत्र अपशिष्ट का पुनर्प्रयोग करने और इसे समुद्र में बहने से रोकने जैसे पक्षों पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है।
    • यह स्थायी सामाजिक व्यवसायों को भी विकसित करेगा जो प्लास्टिक अपशिष्ट के पर्यावरण में प्रवेश को बाधित करते हुए बहुत से लोगों की आजीविका में सुधार करते हो।
    • इस परियोजना में शामिल दो प्रारंभिक शहर पुदुच्चेरी (भारत) और वियतनाम के मेकांग डेल्टा क्षेत्र में अवस्थित टैन एन (Tan An) हैं।

प्लास्टिक कचरा

  • वैश्विक परिदृश्य में बात करें तो:
    • वर्ष 1950 से अब तक वैश्विक स्तर पर तकरीबन 8.3 बिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ है और इसका लगभग 60% हिस्सा लैंडफिल या प्राकृतिक वातावरण में ही निस्तारित हो गया है।
    • अभी तक उत्पादित सभी प्रकार के प्लास्टिक अपशिष्ट में से केवल 9% का ही पुनर्नवीनीकरण किया गया है और लगभग 12% को जलाया गया है, जबकि शेष 79% लैंडफिल, डंपिंग के रूप में प्राकृतिक वातावरण में ही मौजूद है।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट, चाहे वह किसी नदी या अन्य जलधारा में मौजूद हो, समुद्र में हो या फिर भूमि पर, सदियों तक पर्यावरण में बना रह सकता है, एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक विश्व भर के समुद्रों और महासागरों में प्लास्टिक की मात्रा का वज़न वहाँ पाई जाने वाली मछलियों की तुलना में अधिक होने की संभावना है।
  • भारतीय परिदृश्य में बात करें तो:
    • वर्तमान में भारत में प्रत्येक दिन लगभग 26,000 टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न होता है जिसमें से लगभग 10,000 टन से अधिक का संग्रहण तक नहीं हो पाता है।
    • भारत में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 11 किग्रा से कम है जो संयुक्त राज्य अमेरिका (109 किग्रा) का लगभग दसवाँ हिस्सा है।
    • भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट को आपूर्ति शृंखला में वापस लाने से अर्थात् इसके पुनर्नवीनीकरण से वर्ष 2050 में 40 लाख करोड़ रुपए तक का वार्षिक लाभ प्राप्त हो सकता है।
  • वैश्विक के साथ साथ भारत सरकार की पहलें:
    • वैश्विक स्तर पर समुद्री प्लास्टिक अपशिष्ट के मुद्दे से निपटने हेतु G20 (G20) समूह ने कार्रवाई के लिये एक नया कार्यान्वयन ढाँचा अपनाने पर सहमति व्यक्त की है।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 (Plastic Waste Management Rules, 2016) के अनुसार, प्रत्येक स्थानीय निकाय को प्लास्टिक अपशिष्ट के पृथक्करण, संग्रहण, प्रसंस्करण और निपटान के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे को स्थापित करने के अपने दायित्व को पूरा करना चाहिये।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम 2018 ने विस्तारित निर्माता के उत्तरदायित्व (EPR) की अवधारणा पेश की है।
      • EPR एक नीतिगत दृष्टिकोण है जिसके अंतर्गत उत्पादकों को उपभोक्ता के खरीदने के बाद बचे उत्पादों के निपटान के लिये एक महत्त्वपूर्ण वित्तीय और भौतिक जिम्मेदारी (स्रोत पर अपशिष्ट के पृथक्करण और संग्रहण) दी जाती है।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन पर एक नए राष्ट्रीय ढाँचा को लाने पर विचार किया जा रहा रहा है, जो निगरानी तंत्र के एक भाग के रूप में कार्य करेगा।

आगे की राह

  • सरकार को सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, विनियमों के कड़ाई से कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये नीतियों का निर्माण करना चाहिये।
  • आर्थिक रूप से सस्ते और पारिस्थितिक रूप से व्यवहार्य विकल्पों, ताकि संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ न पड़े, पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
  • इसके साथ-साथ नागरिकों को भी अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना चाहिये और अपशिष्ट पृथक्करण एवं अपशिष्ट प्रबंधन में मदद करते हुए इस दिशा में चलाई जा रही पहलों को सफल बनाने के प्रयास करने चाहिये। यदि देश का प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अपने उत्तरदायित्व को पूरा करता है तो एकल प्लास्टिक के उन्मूलन को सुनिश्चित करना कोई कठिन कार्य नहीं होगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस