डेली न्यूज़ (02 Mar, 2023)



स्थानीय मत्स्य प्रजातियों हेतु आनुवंशिक सुधार कार्यक्रम

प्रिलिम्स के लिये:

प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना, मत्स्य पालन बंदरगाह, महासागरीय धाराएँ, समुद्री उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण अधिनियम (MPEDA), 1972।

मेन्स के लिये:

भारत में मत्स्य क्षेत्र की स्थिति, भारत के मत्स्य क्षेत्र से जुड़े मुद्दे, मत्स्य क्षेत्र से संबंधित हालिया सरकारी पहल।  

चर्चा में क्यों?

केंद्रीय मत्स्य पालन, पशु पालन और डेयरी मंत्री ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research- ICAR)-CIBA कैंपस, चेन्नई में तीन राष्ट्रीय कार्यक्रमों की शुरुआत की। 

तीन राष्ट्रीय कार्यक्रम:

  • भारतीय सफेद झींगा का आनुवंशिक सुधार कार्यक्रम: 
    • झींगा पालन/उत्पादन का भारत के समुद्री खाद्य निर्यात में 42000 करोड़ रुपए के साथ लगभग 70% का योगदान है, लेकिन यह ज़्यादातर प्रशांत महासागरीय सफेद झींगा प्रजातियों पेनियस वन्नामेई (Penaeus Vannamei) के एक विदेशी विशिष्ट रोगजनक-मुक्त स्टॉक पर निर्भर करता है। 
    • एक ही प्रजाति पर निर्भरता को कम कर सफेद झींगा की स्वदेशी प्रजातियों को बढ़ावा देने के लिये  ICAR-CIBA द्वारा मेक इन इंडिया फ्लैगशिप कार्यक्रम के तहत भारतीय सफेद झींगा, पेनिअस इंडिकस (Penaeus indicus) के आनुवंशिक सुधार कार्यक्रम को राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में लिया गया है
  • झींगा उत्पाद बीमा:
    • ICAR-CIBA ने एक झींगा उत्पाद बीमा (Shrimp Crop Insurance) योजना प्रारंभ की है। उत्पाद प्रभार प्रीमियम किसान की स्थिति एवं आवश्‍यकताओं के आधार पर 3.7 से 7.7% उत्पादन लागत पर आधारित है तथा किसान को कुल फसल नुकसान की स्थिति में उत्पादन लागत के 80% नुकसान, अर्थात् 70% से अधिक उत्पाद नुकसान की भरपाई की जाएगी।
  • जलीय पशु रोगों के लिये राष्ट्रीय निगरानी कार्यक्रम (NSPAAD): भारत सरकार ने किसान-आधारित रोग निगरानी प्रणाली को सशक्त करने हेतु वर्ष 2013 में NSPAAD को लागू किया। प्रथम चरण के परिणामों ने सिद्ध किया है कि रोगों के कारण होने वाले राजस्व नुकसान में कमी आई है, जिससे किसानों की आय और निर्यात में वृद्धि हुई है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. नीली क्रांति को परिभाषित करते हुए, भारत में मत्स्यपालन विकास की समस्याओं और रणनीतियों की व्याख्या कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2018)

स्रोत: पी.आई.बी.


पुंछी आयोग की रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

पुंछी आयोग की रिपोर्ट, CJI, अंतर-राज्यीय परिषद (ISC) की स्थायी समिति, केंद्र-राज्य संबंध।

मेन्स के लिये:

केंद्र-राज्य संबंधों पर पुंछी आयोग की सिफारिशें।  

चर्चा में क्यों? 

केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) ने केंद्र-राज्य संबंधों पर पुंछी आयोग की रिपोर्ट के संबंध में राज्यों से टिप्पणी मांगने की प्रक्रिया शुरू करने का फैसला किया है। 

पुंछी आयोग: 

  • केंद्र सरकार ने पुंछी आयोग का गठन अप्रैल 2007 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) मदन मोहन पुंछी की अध्यक्षता में किया था।  
  • आयोग ने संघ और राज्यों के मध्य मौजूदा व्यवस्थाओं की जाँच और समीक्षा की, साथ ही विधायी संबंधों, प्रशासनिक संबंधों, राज्यपालों की भूमिकाओं, आपातकालीन प्रावधानों सहित सभी क्षेत्रों में शक्तियों, कर्त्तव्यों एवं ज़िम्मेदारियों के बारे में विभिन्न न्यायालयों के फैसलों की जाँच एवं समीक्षा की।
  • आयोग ने मार्च 2010 में सरकार को अपनी सात खंडों की रिपोर्ट प्रस्तुत की। 
  • अंतर-राज्यीय परिषद (ISC) की स्थायी समिति ने अप्रैल 2017, नवंबर 2017 और मई 2018 में आयोजित अपनी बैठकों में पुंछी आयोग के सुझावों पर विचार किया।  

पुंछी आयोग की प्रमुख सिफारिशें: 

  • राष्ट्रीय एकता परिषद: 
    • इसने आंतरिक सुरक्षा (जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका में गृह-भूमि सुरक्षा विभाग) से संबंधित मामलों के लिये एक अधिक्रमण संरचना के निर्माण की सिफारिश की। यह भी प्रस्तावित किया कि इसे 'राष्ट्रीय एकता परिषद' के रूप में जाना जा सकता है।
  • अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 में संशोधन: 
    • इसमें संविधान के अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 में संशोधन का सुझाव दिया गया।
      • अनुच्छेद 355 किसी भी बाहरी आक्रमण के खिलाफ राज्य की रक्षा के लिये केंद्र के कर्त्तव्य से संबंधित है और अनुच्छेद 356 राज्य व्यवस्था की विफलता के मामले में राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने से संबंधित है।
    • इन सिफारिशों का उद्देश्य केंद्र की शक्तियों के दुरुपयोग की रोकथाम कर राज्यों के हितों की रक्षा करना है।
  • समवर्ती सूची के विषय:
    • आयोग ने सिफारिश की कि समवर्ती सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों पर विधेयक पेश करने से पहले अंतर-राज्यीय परिषद के माध्यम से राज्यों से परामर्श किया जाना चाहिये।
      • समवर्ती सूची तीन सूचियों में से एक है; इसमें उन मामलों का उल्लेख है जिन पर राज्य और केंद्र दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं।
  • राज्यपालों की नियुक्ति और निष्कासन:
    • राज्यपाल को अपनी नियुक्ति से कम-से-कम दो वर्ष पहले सक्रिय राजनीति (स्थानीय स्तर पर भी) से दूर रहना चाहिये।
    • राज्यपाल की नियुक्ति करने में राज्य के मुख्यमंत्री का मत होना चाहिये।
    • एक समिति का गठन किया जाना चाहिये जिसे राज्यपालों की नियुक्ति का कार्य सौंपा जाए। इस समिति में प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य का मुख्यमंत्री शामिल हो सकता है।
    • नियुक्ति की अवधि पाँच वर्ष के लिये होनी चाहिये।
    • राज्यपाल को केवल राज्य विधानमंडल द्वारा एक प्रस्ताव के माध्यम से हटाया जा सकता है। 
  • संघ की संधि करने की शक्ति: 
    • राज्य सूची में मौजूद मामलों से संबंधित संधियों के संबंध में संघ की शक्ति को विनियमित किया जाना चाहिये।
    • इस तरह राज्यों को उनके आंतरिक मामलों में अधिक प्रतिनिधित्त्व प्राप्त होगा।
    • आयोग ने निर्धारित किया कि राज्यों को उनके मुद्दों के संदर्भ में तैयार की गई अधिक संधियों में शामिल होना चाहिये। यह सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्त्व सुनिश्चित करेगा।
  • मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति: 
    • मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति के संबंध में स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाए जाने चाहिये ताकि इस पहलू पर राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ सीमित रहें। 
    • चुनाव पूर्व गठबंधन को एकल राजनीतिक दल माना जाता है। 
    • राज्य सरकार के गठन के दौरान वरीयता का क्रम निम्नलिखित होना चाहिये:  
      • सबसे अधिक संख्या वाले सबसे बड़े चुनाव-पूर्व गठबंधन वाले समूह/गठबंधन। 
      • अन्य पार्टियों के समर्थन वाली अकेली सबसे बड़ी पार्टी। 
      • सरकार में सम्मिलित होने वाले कुछ दलों के साथ चुनाव के बाद गठबंधन।
      • सरकार में शामिल होने वाले कुछ दलों के साथ चुनाव के बाद गठबंधन और शेष बाह्य समर्थन देने वाली निर्दलीय पार्टियाँ।  

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सार्वजनिक व सत्यापित वन आवरण डेटा की उपलब्धता

प्रिलिम्स के लिये:

वृक्षावरण, वनावारण, भारत वन रिपोर्ट-2021, भारतीय वन सर्वेक्षण, वन (संरक्षण) नियम, 2022

मेन्स के लिये:

भारत वन रिपोर्ट-2021, भारत में वनों से संबंधित मुद्दे, वन संरक्षण के लिये सरकारी पहल

चर्चा में क्यों? 

वर्ष 2010 और 2020 के बीच औसत शुद्ध वन लाभ के मामले में भारत ने विश्व स्तर पर तीसरा स्थान प्राप्त किया, लेकिन इस क्षेत्र के विशेषज्ञों और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय (United Nations Framework Convention on Climate Change -UNFCCC) ने भारत द्वारा वृक्षारोपण एवं प्राकृतिक वनों के आँकड़ों को मिश्रित किये जाने के कारण वन संबंधी डेटा की वैधता पर सवाल उठाया है।

  • भारत का वन आवरण वर्ष 1980 के दशक के 19.53% से बढ़कर वर्ष 2021 में 21.71% हो गया है और वृक्षों सहित इसका कुल हरित आवरण अब 24.62% है।

हरित आवरण (Green Cover) के आकलन की प्रक्रिया: 

  • परिचय: 
    • भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India- FSI) अपनी द्विवार्षिक भारत वन स्थिति रिपोर्ट (India State of Forest Report - ISFR) में देश के 'वन आवरण' और 'वृक्ष आवरण' की नवीनतम स्थिति प्रस्तुत करता है।
      • FSI पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के तहत एक संगठन है।
    • भारत एक हेक्टेयर या उससे अधिक के सभी भूखंडों में न्यूनतम 10% वृक्ष आवरण वाले क्षेत्र, चाहे वह भूमि उपयोग के लिये हो अथवा स्वामित्त्व वाली, को वन आवरण के तहत मानता है।
      • यह संयुक्त राष्ट्र के बेंचमार्क की अवहेलना करता है जिसमें वनों में मुख्य रूप से कृषि और शहरी भूमि उपयोग के तहत क्षेत्र शामिल नहीं हैं।
  • वर्गीकरण: 
    • अति सघन वन: 70% या अधिक वृक्ष आवरण घनत्त्व वाली भूमि।
    • घने वन: 40% और उससे अधिक वृक्ष आवरण घनत्त्व वाले सभी भूमि क्षेत्र।
    • खुले वन: 10-40% के बीच वृक्ष आवरण घनत्त्व वाले सभी भूमि क्षेत्र
    • वृक्ष आवरण (Tree Cover): वृक्ष आवरण की गणना किसी समूह अथवा अलग-थलग क्षेत्र में सभी पेड़ों के शीर्ष भाग का आकलन करते हुए की जाती है जो आकार में 1 हेक्टेयर से छोटे होते हैं और इसे वन की श्रेणी में नहीं रखा जाता है।

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  • वैश्विक मानक:  
    • संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organisation- FAO) द्वारा "वन" हेतु वैश्विक मानक प्रदान किया गया है, जिसके अनुसार, कम-से- कम 1 हेक्टेयर भूमि जिसमें न्यूनतम 10% वृक्ष वितान (Canopy) का आवरण हो।
    • इसमें वन में "मुख्य रूप से कृषि या शहरी भूमि उपयोग के तहत" क्षेत्रों को शामिल नहीं किया गया है।

भारत में वनों की स्थिति:

  • राष्ट्रीय सुदूर संवेदन एजेंसी (National Remote Sensing Agency- NRSA) बनाम FSI: 
    • NRSA ने भारत के वन आवरण का अनुमान लगाने हेतु उपग्रह इमेजरी का उपयोग किया, जिसमें पाया गया कि यह वर्ष 1971-1975 में 16.89% और 1980-1982 में 14.10% हो गया अर्थात् केवल सात वर्षों में 2.79% की गिरावट आई।
    • सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि वर्ष 1951 और 1980 के बीच 42,380 वर्ग किमी. वन भूमि को गैर-वन उपयोग हेतु परिवर्तित किया गया था, हालाँकि अतिक्रमण के विश्वसनीय आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
    • सरकार शुरू में NRSA के निष्कर्षों को स्वीकार करने हेतु अनिच्छुक थी, लेकिन संवाद के बाद NRSA और नव स्थापित FSI ने वर्ष 1987 में भारत के वन आवरण को 19.53% ‘स्वीकार’ (Reconciled)" कर लिया।
  • पुराने वन क्षेत्र में कमी: 
    • रिकॉर्ड किये गए वन क्षेत्र में आरक्षित, संरक्षित और अवर्गीकृत वन भारत के कुल वन क्षेत्र का 23.58% है।
      • ये राजस्व रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज या वन कानून के तहत वन के रूप में घोषित क्षेत्र हैं।
    • वर्ष 2011 में FSI ने बताया कि लगभग एक-तिहाई (2.44 लाख वर्ग किमी. से अधिक, उत्तर प्रदेश के क्षेत्र से बड़ा या भारत का 7.43%) रिकॉर्ड किये गए वन क्षेत्रों में कोई वन नहीं था और वे अतिक्रमण, परिवर्तन, वनाग्नि आदि के कारण नष्ट हो गए थे।
  • प्राकृतिक वन क्षेत्रों में कमी: 
    • रिकॉर्ड किये गए वन क्षेत्रों के भीतर घने वन वर्ष 1987 में 10.88% से घटकर वर्ष 2021 में 9.96% अर्थात् दसवाँ हिस्सा रह गए।
    • ग्लोबल फाॅरेस्ट वॉच के अनुसार, भारत में वर्ष 2010 और 2021 के बीच प्राकृतिक वन क्षेत्र में 1,270 वर्ग किमी. की कमी आई।
      • हालाँकि FSI ने इसी अवधि के दौरान घने वन क्षेत्र में 2,462 वर्ग किमी. और समग्र वन क्षेत्र में 21,762 वर्ग किमी. की वृद्धि दर्ज की।

वर्तमान वन आवरण डेटा से संबंधित मुद्दे:

  • वन डेटा में वृक्षारोपण का समावेश:
    • वृक्षारोपण, बागानों और शहरी आवासों को घने जंगलों के रूप में शामिल किये जाने के कारण, प्राकृतिक वनों की हानि पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
      • उदाहरण के लिये SFR 2021 ने किसी भी हरित क्षेत्र को सम्मिलित करते हुए सघन वनों का आवरण 12.37% दर्शाया है।
    • वृक्षारोपण वाले वनों में एक समान आयु वर्ग के वृक्ष होते हैं जो आगजनी, कीट और प्रकोप के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं तथा प्रायः प्राकृतिक वनों के पुनरुथान में बाधा के रूप में कार्य करते हैं। 
    • प्राकृतिक वन पुराने होते हैं, अतः इन वनों में और वहाँ की मृदा में बहुत अधिक कार्बन संचित होता है तथा वे अधिक जैव-विविधता का पोषण करते हैं।
    • पुराने प्राकृतिक वनों की तुलना में वृक्षारोपण से वन बहुत अधिक तीव्रता से वृद्धि कर सकते हैं जिसका अर्थ है कि वृक्षारोपण अतिरिक्त कार्बन लक्ष्यों को तेज़ी से प्राप्त कर सकता है।  
      • हालाँकि जब प्राकृतिक वनों की तुलना में वृक्षारोपण संबंधी वन तेज़ी से नष्ट किये जाते हैं तो दीर्घकालिक कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्ति में अधिक समय लगता है।

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  • पारदर्शी और सहभागी डेटा का अभाव: 
    • FSI ने कभी भी अपने डेटा को स्वतंत्र रूप से सार्वजनिक समीक्षा के लिये उपलब्ध नहीं कराया।
    • बिना किसी स्पष्टीकरण के यह मीडिया को अपने भू-संदर्भित मानचित्रों तक पहुँचने से भी रोकती है। 
    • वर्ष 2021 में इसने गैर-वनों के साथ वनों की पहचान करने में 95.79% की समग्र सटीकता स्थापित करने का दावा किया था। यद्यपि सीमित संसाधनों को देखते हुए यह प्रयास 6,000 सैंपल अंकों से भी कम तक सीमित था। 
  • वन भूमि का परिवर्तन/विचलन: 
    • वर्ष 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद से विकास परियोजनाओं के लिये कम-से-कम 10,000 वर्ग किमी. वनों का विचलन कर दिया गया है।  
    • हाल में अधिनियम के तहत वन (संरक्षण) नियम, 2022 आवेदन के दायरे को सीमित करने, वनों को काटने के लिये अनुमति की आवश्यकता जैसी कुछ गतिविधियों को छोड़ने और वन भूमि पर निजी वृक्षारोपण आदि की अनुमति देने की मांग करते हैं।
    • भले ही देश ने 2017-2021 के दौरान 700 वर्ग किमी. से अधिक वन भूमि को डायवर्ट किया हो, फिर भी वर्ष 2019 के बाद से प्रतिवर्ष 145.6 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन स्टॉक बढ़ता जा रहा है। 
      • FSI ने अनुमान लगाया कि भारत वन कार्बन सिंक बढ़ाने के लिये अतिरिक्त उपायों को लागू किये बिना वर्ष 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5 से 3 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक की अपनी कार्बन प्रतिबद्धता को आसानी से प्राप्त  कर लेगा। 
  • आवासीय और शहरी क्षेत्रों का समावेश: 
    • कुछ स्वतंत्र जाँचों के अनुसार, मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के बंगले, यहाँ तक कि संसद मार्ग पर भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की इमारत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) तथा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के परिसरों के कुछ हिस्से एवं दिल्ली के कुछ आवासीय क्षेत्र आधिकारिक वन कवर मानचित्र में ‘वन’ के रूप में सूचीबद्ध हैं। 

आगे की राह

  • डेटा पारदर्शिता: यह महत्त्वपूर्ण है कि नक्शों को जाँच के लिये सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराया जाए। हम ब्राज़ील का उदाहरण ले सकते हैं, जो अपने वन डेटा को ओपन वेब पर उपलब्ध कराता है।
  • व्यापक मूल्यांकन: चूँकि वन सर्वेक्षण रिपोर्ट द्वि-वार्षिक रूप से प्रकाशित होती है; अतः इसे जल्दबाज़ी में तैयार किया जाता है। आवशयक है कि रिपोर्ट को हर 5 वर्ष में व्यापक मूल्यांकन के साथ प्रदर्शित किया जाए।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारत के वन संसाधनों की स्थिति और जलवायु परिवर्तन पर इसके परिणामी प्रभावों का परीक्षण कीजिये। (2020)

प्रश्न. "विभिन्न प्रतियोगी क्षेत्रों और साझेदारों के मध्य नीतिगत विरोधाभासों के परिणामस्वरूप ‘पर्यावरण के संरक्षण तथा उसके निम्नीकरण की रोकथाम’ अपर्याप्त रही है।" सुसंगत उदाहरणों सहित टिप्पणी कीजिये। (2018)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सोशल स्टॉक एक्सचेंज

प्रिलिम्स के लिये:

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज, सेबी के ICDR विनियम 2018, ज़ीरो कूपन ज़ीरो प्रिंसिपल (ZCZP) इंस्ट्रूमेंट्स, डेवलपमेंट इम्पैक्ट बाॅण्ड।

मेन्स के लिये:

सोशल स्टॉक एक्सचेंज (SSE) की विशेषताएँ।  

चर्चा में क्यों?

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज ऑफ इंडिया को सोशल स्टॉक एक्सचेंज (SSE) स्थापित करने हेतु भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) से अंतिम मंज़ूरी मिल गई है।

सोशल स्टॉक एक्सचेंज: 

  • परिचय:  
    • SSE मौजूदा स्टॉक एक्सचेंज के भीतर एक अलग खंड के रूप में कार्य करेगा और सामाजिक उद्यमों को अपने तंत्र के माध्यम से जनता से धन जुटाने में मदद करेगा।
    • यह उद्यमों हेतु उनकी सामाजिक पहलों के लिये वित्त की व्यवस्था करने, दृश्यता हासिल करने और फंड जुटाने एवं उपयोग के बारे में बढ़ी हुई पारदर्शिता प्रदान करने हेतु एक माध्यम के रूप में काम करेगा।
    • खुदरा निवेशक केवल मुख्य बोर्ड के तहत लाभकारी सामाजिक उद्यमों (Social Enterprises- SE) द्वारा प्रस्तावित प्रतिभूतियों में निवेश कर सकते हैं।
      • अन्य सभी मामलों में केवल संस्थागत निवेशक और गैर-संस्थागत निवेशक सामाजिक उद्यमों द्वारा जारी प्रतिभूतियों में निवेश कर सकते हैं।
  • पात्रता:  
    • कोई भी गैर-लाभकारी संगठन (Non-Profit Organisation- NPO) या लाभकारी सामाजिक उद्यम (FPSEs) जो सामाजिक प्रधानता का इरादा रखता है, को सामाजिक उद्यम के रूप में मान्यता दी जाएगी, जो इसे SSE में पंजीकृत या सूचीबद्ध होने के योग्य बनाएगा।
    • सेबी के ICDR विनियम, 2018 के तहत 17 प्रशंसनीय मानदंड भूख, गरीबी और कुपोषण को खत्म करने के साथ-साथ शिक्षा, रोज़गार, समानता एवं पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देने हेतु कार्य कर रहे हैं।
  • अयोग्यता:  
    • कॉर्पोरेट क्षेत्र, राजनीतिक या धार्मिक संगठन, पेशेवर या व्यापार संघ, बुनियादी निर्माण एवं आवास कंपनियों (किफायती आवास को छोड़कर) को सामाजिक उद्यम हेतु गैर-लाभकारी संगठन के रूप में पहचाना नहीं जाएगा। 
    • जो गैर-लाभकारी संगठन अपनी फंडिंग के 50% से अधिक के लिये कॉर्पोरेट पर निर्भर हैं, उन्हें अयोग्य माना जाएगा।
  • गैर-लाभकारी संगठनों द्वारा धन जुटाना:  
    • गैर-लाभकारी संगठन निजी नियोजन या सार्वजनिक निर्गम से ज़ीरो कूपन ज़ीरो प्रिंसिपल (ZCZP) इंस्ट्रूमेंट जारी करके या म्यूचुअल फंड से दान के माध्यम से धन जुटा सकते हैं।  
      • ZCZP बॉण्ड पारंपरिक बॉण्ड से इस अर्थ में भिन्न होते हैं कि इसमें ज़ीरो कूपन होता है और परिपक्वता पर कोई मूल भुगतान नहीं होता है। 
      • ZCZP जारी करने के लिये न्यूनतम निर्गम आकार वर्तमान में 1 करोड़ रुपए और सदस्यता हेतु न्यूनतम आवेदन आकार 2 लाख रुपए निर्धारित किया गया है।
    • इसके अलावा डेवलपमेंट इम्पैक्ट बॉण्ड (Development Impact Bonds) परियोजना के पूरा होने पर उपलब्ध होते हैं और पूर्व-सहमत सामाजिक मेट्रिक्स पर पूर्व-सहमत लागतों/दरों पर वितरित किये जाते हैं।
  • FPSE द्वारा धन जुटाना:  
    • FPSE को सोशल स्टॉक एक्सचेंज के माध्यम से धन जुटाने से पूर्व SSE के साथ पंजीकृत होने की आवश्यकता नहीं है।
    • यह इक्विटी शेयर जारी करके अथवा सामाजिक प्रभाव कोष (Social Impact Fund) सहित किसी वैकल्पिक निवेश कोष को इक्विटी शेयर जारी करके अथवा ऋण लिखतों को जारी करके धन जुटा सकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. 'वाणिज्यिक पत्र' एक अल्पकालिक प्रतिभूति रहित वचन पत्र है।
  2. 'जमा प्रमाणपत्र' भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा एक निगम को जारी किया जाने वाला एक दीर्घकालिक प्रपत्र है।
  3. 'शीघ्रावधि द्रव्य' अंतर-बैंक लेन-देनों के लिये प्रयुक्त अल्प अवधि का वित्त है।
  4. ‘शून्य-कूपन बॉण्ड' अनुसूचित व्यापारिक बैंकों द्वारा निगमों को निर्गत किये जाने वाले ब्याज सहित अल्पकालिक बॉण्ड हैं।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2 
(b) केवल 4
(c) केवल 1 और 3 
(d) केवल 2, 3 और 4

उत्तर: (c)

व्याख्या:

  • वाणिज्यिक पत्र वचन पत्र के रूप में निर्गत किया गया एक असुरक्षित मुद्रा बाज़ार साधन है और इसे SEBI द्वारा अनुमोदित तथा पंजीकृत किसी भी डिपॉज़िटरी के माध्यम से डीमैट रूप में रखा जाता है। अतः कथन 1 सही है।
  • जमा प्रमाणपत्र एक परक्राम्य मुद्रा बाज़ार लिखत है जिसे डीमेट रूप में या एक निर्दिष्ट समय अवधि के लिये किसी बैंक या अन्य पात्र वित्तीय संस्था में जमा की गई निधि के लिये मियादी वचनपत्र के रूप में जारी किया जाता है। CDs क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (RRB) और स्थानीय क्षेत्रीय बैंकों (LAB) को छोड़कर (i) अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों तथा (ii) RBI द्वारा निर्धारित दायरे के अंतर्गत अल्पकालिक संसाधनों को बढ़ाने के लिये RBI द्वारा अनुमति प्राप्त चुनिंदा अखिल भारतीय वित्तीय संस्थानों (FAI) द्वारा जारी किये जा सकते हैं।अतः कथन 2 सही नहीं है।
  • कॉल मनी एक वित्तीय संस्थान द्वारा किसी अन्य वित्तीय संस्थान को दिये गए 1 से 14 दिनों के भीतर भुगतान योग्य अल्पकालिक, ब्याज-भुगतान ऋण है। अतः कथन 3 सही है।
  • ये वे बॉण्ड होते हैं जहाँ जारीकर्त्ता परिपक्वता तिथि तक धारक को कोई कूपन भुगतान प्रदान नहीं करता है। यहाँ बॉण्ड अंकित मूल्य राशि से कम और परिपक्वता की तारीख पर जारी किये जाते हैं। बॉण्ड को अंकित मूल्य की राशि पर भुनाया जाता है। अतः कथन 4 सही नहीं है।

अतः विकल्प (C) सही उत्तर है।

स्रोत: द हिंदू