Be Mains Ready

19 वींशताब्दी की तुलना में 20वीं शताब्दी में होने वाले किसान आंदोलनों की विशेषताओं और सामाजिक प्रभाव में एक प्रकार का मूलभूत परिवर्तन/पैराडाइम शिफ्ट देखने को मिलता है उदाहरण सहित समझाए। (250 शब्द)

01 Dec 2020 | सामान्य अध्ययन पेपर 4 | सैद्धांतिक प्रश्न

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

दृष्टिकोण:

  • किसान आंदोलनों के कारणों के लिये उत्तरदायी परिस्थितियों के बारे में बताएँ।
  • 19वीं शताब्दी के किसान आंदोलनों की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  • 20वीं शताब्दी के किसान आंदोलनों की प्रकृति के विरोधाभास को दर्शाए।
  • उचित निष्कर्ष दीजिये।

परिचय:

  • 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में ब्रिटिश साम्राज्य शोषणकारी आर्थिक और भूमि राजस्व नीतियों के माध्यम से अपने शासन को मज़बूत करने का प्रयास कर रहा था।
  • भारतीय कृषक समाज ब्रिटिश शासन से सर्वाधिक पीड़ित थे। हालांँकि, किसानों द्वारा शोषण का विरोध किया गया तथा नीतियों के खिलाफ सामूहिक विरोध और आंदोलनों का आयोजन किया गया।

प्रारूप:

19वीं शताब्दी के किसान आंदोलनों की विशेषता

  • तात्कालिक उद्देश्य: किसानों की अधीनता या शोषण व्यवस्था को समाप्त करना इन आंदोलनों का उद्देश्य नहीं था बल्कि इनकी मांँग पूरी तरह से आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित थी।
  • उपनिवेशवाद के प्रति समझ का अभाव: किसानों के संघर्षों को विशिष्ट और सीमित उद्देश्यों एवं विशेष शिकायतों के निवारण के लिये निर्देशित किया गया। आंदोलनकारियों द्वारा विदेशी बागान, स्वदेशी ज़मींदारों और साहूकारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शित किया गया। उपनिवेशवाद इन आंदोलनों के लक्ष्य में निहित नहीं था।
  • नेतृत्व: नील विद्रोह (1859-60), 1860 के दशक में पबना कृषक लीग तथा 1870 के दशक में डेक्कन कृषक विद्रोह द्वारा किसान आंदोलनों में मुख्य भूमिका निभाई गई।
    • इनकी प्रादेशिक पहुंँच एक विशेष स्थानीय क्षेत्र तक ही सीमित थी।
  • संगठन: इन आंदोलनों के नेतृत्व के लिये कोई औपचारिक संगठन नहीं था जिस कारण ये आंदोलन छोटी अवधि के लिये ही हुए। संगठन के अभाव के चलते आंदोलनों ने दीर्घकालिक रणनीति और कार्यान्वयन को बाधित किया।
  • विचारधारा: अग्रगामी विचारधारा सामाजिक आंदोलनों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होती है, हालांँकि किसान आंदोलन के इस चरण में भविष्य के बारे में किसी भी सुसंगत वैकल्पिक वैचारिक ढाँचे का अभाव था तथा ये आंदोलन शोषित किसान की सहज प्रतिक्रिया का परिणाम थे।

20 वीं शताब्दी के किसान आंदोलनों की विशेषता

  • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के एक भाग के रूप में किसान आंदोलन: भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में उपनिवेशवाद के खिलाफ व्यापक संघर्ष में महात्मा गांधी की उपस्थिति के साथ किसानों के चंपारण, खेड़ा और बाद में बारदोली आंदोलनों ने कृषकों के मध्य उपनिवेशवाद विरोधी चेतना जागृत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।
  • वर्ग चेतना संगठनों का उद्भव: कॉन्ग्रेस द्वारा ज़मींदार एवं ज़मींदारों के हितों की रक्षा करने की नीति के कारण ग्रामीण भारत में स्वतंत्र किसान वर्ग संगठनों का उदय हुआ। किसान आंदोलनों के कट्टरपंथी तबके द्वारा महसूस किया कि कॉन्ग्रेस पूंजीपतियों की ज़मीन-जायदाद व उनके हितों के प्रति अधिक संवेदनशील है। वर्ष 1935 में लखनऊ में आयोजित पहली किसान कॉन्ग्रेस द्वारा अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया।
  • सांप्रदायिक राजनीति का प्रभाव: मोपला विद्रोह को मुस्लिम जोतदारों/पट्टेदारों द्वारा सरकार एवं ज़मींदारों के विरुद्ध शुरू किया गया, हालांँकि बाद में इस विद्रोह ने सांप्रदायिक रूप ग्रहण कर लिया। विद्रोह के सांप्रदायिकरण ने खिलाफत-असहयोग आंदोलन में मोपलाओं के मध्य चले आ रहे अलगाव को दूर करने का कार्य किया।
  • अखिल भारतीय आंदोलन: कॉन्ग्रेस के प्रांतीय शासन के दौरान वर्ष 1937-39 के मध्य की अवधि किसान आंदोलनों की गतिविधियों का उच्चतम स्तर था। किसान सम्मेलनों और बैठकों के माध्यम से किसानों को एकत्रित किया जाता था तथा उनकी मांँगों को पारित कर प्रसारित किया जाता था।साथ ही किसानों को गांँवों के स्तर पर एकजुट करने का कार्य किया गया।

नेतृत्व: इस अवधि के दौरान किसान आंदोलनों का नेतृत्व कॉन्ग्रेस और कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा किया गया। तेलंगाना आंदोलन कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले गुरिल्लाओं द्वारा आयोजित किया गया।

इसी प्रकार तेभागा आंदोलन का नेतृत्व बंगाल प्रांतीय किसान सभा द्वारा किया गया।

निष्कर्ष:

  • ब्रिटिश शासन के दौरान किसान आंदोलनों की प्रकृति में ब्रिटिश राज के पहले चरण एवं 20वीं शताब्दी में किसान आंदोलनों के मध्य हड़तालों के स्तर पर भिन्नता विद्यमान थी।
  • औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति को लेकर बढ़ती जागरूकता, जन-आधारित राजनीतिक संगठन और मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट विचारों के रूप में कॉन्ग्रेस के उद्भव के कारण इन मतभेदों का उत्पन्न होना स्वाभाविक था।